जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

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जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?
जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

जाति आखिर क्यों नहीं जाती…?

वर्तमान समय में यह एक प्रसांगिक सवाल है। क्योंकि ऐसा देखने को मिलता है कि जातिवाद ने किस तरह से पूरे समाज को खोखला कर रखा है। जातिवाद वो दीमक है, जो समाज को खाता जा रहा है। अगर हम समाज में देखें तो पता चलता है कि ये समाज में हर स्तर पर व्याप्त है। चाहे व्यक्ति किसी भी वर्ग का हो उसे अपने वर्ग के लोगों पर ही ज्यादा भरोसा रहता है,चाहे वह उच्च जाति का हो, उसे उच्च जातियों में अपनी जाति पर ज्यादा भरोसा होगा। चाहे वह पिछड़े वर्ग का हो, उसे पिछड़े वर्ग में भी अपनी जाति पर ज्यादा विश्वास होगा। चाहे वह दलित वर्ग का हो, उसे दलित वर्ग की अपनी जाति पर ही ज्यादा विश्वास होगा। इससे आप समझ सकते हैं कि पहले हमारा समाज अलग अलग वर्गों में बंटा था, किन्तु अब यह अलग अलग जातियों में बंटकर आपसी विद्वेष पैदा कर रहा है। जो कि हमारे आने वाले समाज के लिए अत्यंत घातक है। लोगों को अगर हमारे आने वाली पीढ़ी को कुछ अच्छा देकर जाना है तो इस जाति में विभक्त समाज को एक जुट करना होगा तभी हम एक शशक्त राष्ट्र की ओर कदम बढ़ा पाएंगे।

यादराम सिंह यादव

मनु को एक महान विधिवेत्ता कहा जाता है। यह हिन्दू परम्परा में ना केवल सत्य है, अपितु उसे दिव्य रूप अथवा मनु भगवान माना जाता है। उसके द्वारा रचित आचार संहिता मनुस्मृति कहलाती है। जिसे हिन्दुओं विशेषकर ब्राह्मणों द्वारा पवित्र धर्मग्रंथ अकाटय, दिव्य तथा ईश्वरीय विधि जीवन पद्धति आदि कहा जाता है। मनुस्मृति की विधिक समीक्षा करते हुए डा.अम्बेडकर ने बताया कि हमारे संविधान की अनेक महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। ‘‘विधि का शासन’’ अर्थात विधि के समक्ष समानता। मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही विधि तथा धर्म का आधार माना गया है। इसमें विधि के उन सभी आधारों का उल्लंघन पाया जाता है। जो आदमी की गरिमा एवं समानता के द्योतक होते है। वर्ण व्यवस्था से जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के लिए मनुस्मृति उत्तरदायी है। फलतः सम्पूर्ण हिन्दू समाज में वर्ग (श्रेणीकरण) एवं प्रतिष्ठा का सिद्धान्त मनुस्मृति की विधि व्यवस्था का ही परिणाम है। इसमें ब्राह्मण को प्रथम स्थान पर रखा गया। इसके नीचे क्षत्रिय फिर वैश्य और इसके नीचे शूद्र और सबसे नीचे अतिशूद्र को स्थान दिया गया है। प्रतिष्ठा एवं श्रेणीकरण की यह व्यवस्था असमानता के सिद्धान्त को कायम करती है। अर्थात हिन्दू धर्म समानता को मान्यता नहीं देता है। मनु ने गुलामी को मान्यता दी। परन्तु उसे शुद्र तक ही सीमित रखा। शूद्रों को ऊपर के तीनों वर्णों का गुलाम बनाया जा सकता था, किन्तु ऊँचे वर्ण शुद्रों के गुलाम नहीं बन सकते थे। 

मनु के उत्तराधिकारी ‘नारद’ नाम के व्यक्ति ने एक नया नियम बनाया कि जब कोई मनुष्य अपनी जाति विशेष के कर्तव्यों का उल्लंघन करता है, उसे छोड़कर चार वर्णां पर नीचे से ऊपर उल्टे क्रम में गुलामी लागू नहीं की जा सकती। दूसरे तरीके से यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य अपनी-अपनी जाति की गुलामी कर सकते थे। परन्तु शुद्रों को ऊपर के तीनों वर्णां की गुलामी करनी पडेगी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नीचे स्तर के लोगों की गुलामी नहीं कर सकता है। केवल ब्राह्मण नीचे के चार वर्णों के किसी व्यक्ति को गुलाम बना सकता है। या सभी वर्णां को गुलाम बना सकता है। इस प्रकार मनुस्मृति ने ब्राह्मणों की सर्वाच्चता स्थापित कर समाज में असमानता कायम कर जाति व्यवस्था बनायी, जिसे धर्म से जोड़ा गया। उपरोक्त व्यवस्था विवाह शादियों के लिए लागू की गयी। ऊपर से नीचे तक प्रत्येक वर्ग अपने-अपने वर्ग में विवाह करता था। किन्तु किसी कारण दूसरी शादी करनी पड़े तो नीचे के वर्ण शूद्र को प्राथमिकता दी जाती थी। उल्टे क्रम में अर्थात नीचे से ऊपर के क्रम में जातियाँ अपने वर्ग को छोड़कर दूसरे में शादी नहीं कर सकते थे। मनु अन्तर्जातीय विवाह के सिद्धान्त का विरोधी था। क्योंकि इससे उसके वर्णां की असमानता अर्थात उच्चता के सिद्धान्त को हानि पहुंचती  थी। यह भेदभाव क्यों किया। इसका केवल एक ही उत्तर है कि मनु असमानता ऊँच-नीच के भेदभाव को बनाये रखना चाहता था। जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

वर्ण या जाति हिन्दु समाज की और उसकी मानसिकता की पहचान है। शुद्रों अतिशुद्रों स्त्रियों तथा आदिवासियां के प्रति घृणा और उनको गुलाम बनाये रखने की स्थायी विशेषता है। सत्ता एवं सर्वाच्चता की बागडोर ब्राह्मणों के हाथों में सौपने और शुद्रों एवं स्त्रियों को गुलामी की अटूट जंजीरों में जकड़ देने की कोशिश जैसी ‘मनुस्मृति’ में है वैसी दुनिया में कहीं और नहीं। यदि मनुस्मृति का दूसरा नाम मानव धर्मशास्त्र है लेकिन उससे अधिक अमानवीय शास्त्र और कोई नहीं है। मनुस्मृति दलितों की गुलामी का ग्रंथ है इसलिए दलितों की आजादी वाले प्रत्येक व्यक्ति ने उसकी निन्दा की है। भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह और संघर्ष का आदि विद्रोही शम्भूक ऋषि था। जिसकी हत्या स्वयं राम ने की थी। 

भगवतगीता की आत्मा चातुर्वण्य व्यवस्था की अनुशंसा करती है। जिसमें पहली निषेधाज्ञा अध्याय 3 के 26 वें श्लोक में अंकित है। इसमें कृष्णा कहते है कि किसी बुद्धिमान व्यक्ति को चातुरवर्ण व्यवस्था के विरूद्ध प्रचारकर अबोध व्यक्तियों को भ्रमित नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि इस कर्मकाण्ड के विरूद्ध, विद्रोह के लिए कोई आन्दोलन नहीं करना चाहिए और नाही ऐसा करने को दूसरे व्यक्तियों को उकसाना चाहिए। इसकी निषेधाज्ञा गीता के 18 वें अध्याय के 41 से 48 तक के श्लोकों में दी गई है। जिसमें कृष्ण स्वयं चेतावनी देते है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने वर्ण के लिए नियत कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। दूसरे के कर्तव्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। अर्थात जो लोग उनकी पूजा करते है। वे तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते जब तक वे अपने वर्णानुसार कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करते। तात्पर्य यह है कि एक शुद्र को तब तक मोक्ष नहीं मिलेगा, जब तक वह अपने शूद्रोचित कर्म पूरे नहीं करेगा। मुख्य प्रश्न यह है कि भगवतगीता ने आखिर क्यों प्रतिक्रान्ती का समर्थन किया। स्पष्ट है कि बौद्धधर्म द्वारा की गई क्रान्ती के प्रभाव को नष्ट करने के लिए ऐसा किया गया। महात्मा बुद्ध ने अहिंसा का प्रचार एवं वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। कर्मकाण्ड, यज्ञ आदि के औचित्य को नकारा। इन सब बातों को गीता ने पुनः स्थापित करने का यत्न किया और वेद विहित बताकर इनको निर्विवाद घोषित किया। बुद्ध का युग प्रबुद्ध एवं विवेकशील लोगों का युग था। ब्राह्मणवादी मान्यताएँ उन लोगों के तर्क के सामने कही नहीं ठहरती थी। इसलिए भगवतगीता को अपनी प्रतिष्ठा, खोये ब्राह्मणवाद को पुनः स्थापित करने के लिए रचा गया था। उसने प्रतिक्रांति को पुनःजीवन प्रदान किया और यदि आज तक वह प्रतिक्रांति जीवित है तो इसलिए कि, उसे भगवत गीता के दार्शनिक आधार का रक्षा कवच मिला हुआ है। सच्चाई यह है कि यदि चातुवर्ण को भगवत गीता का दार्शनिक समर्थन नहीं मिला होता तो, आज जात-पांत के भेदभाव में बंटे, भारत की तस्वीर कुछ और ही होती।

भारत में जातियां हिन्दू सामाजिक ढांचे की इमारती पत्थर हैं। जातियों ने हिन्दू समाज को सदियों से ऐसी व्यवस्था में विभाजित कर दिया है। परिणामतः व्यक्ति की सामाजिक शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति के बीच गहरा संबंध स्थापित हो गया। निम्न वर्ग को विद्या ग्रहरण करने व सम्पत्ति शिक्षा, सत्ता व भूमि से वंचित कर उन पर कुछ वर्गां का ही अधिकार हो गया। शूद्र, अतिशूद्रों व दलितों को  आरक्षण का अधिकार सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ापन है। इस व्यवस्था को ऐसा गढ़ा गया है। जिसमें वे अपनी स्थितियों को भाग्य मानकर समाज में हीनता व निम्न दर्जा स्वीकार करने पर मजबूर हो गये। राज्य प्रशासन में उनकी भागीदारी समाप्त कर दी गयी। भारत के नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्यसेन तथा वर्ष 2015 के नोबेल पुरस्कार विजेता डेटोन ने भी विश्लेषण के आधार पर सिद्ध किया है कि भारत में गरीबी व भूखमरी का मूल कारण जातिवाद है। यही बात बाबा साहेब अम्बेड़कर ने 1925 ई. में अपनी रिसर्च में साबित कर दिया था अर्थात भारत देश में ‘एक नया गुलाम भारत ’ बनाया जा रहा है। जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

ब्राह्मणवाद का समूल और सम्पूर्ण विरोध चार्वाक दर्शन न किया जिसे लोकायत भी कहा जाता है। चार्वाक दार्शनिकों ने परलोकवाद आत्मावाद और वर्णाश्रम व्यवस्था का खण्डन किया है। उनके मुताबिक यज्ञ और दूसरे कर्मकाण्ड ‘‘बुद्धि तथा पौरूष से हीन’’ पुरोहितों की आजीविका के साधन मात्र हैं और कुछ नहीं। चार्वाक ने श्राद्धकर्म और दानकर्म को लूट की व्यवस्था कहा है। चार्वाक दर्शन के आचार्य बृहस्पति ने ब्राह्मण धर्म के मूलाधार पर चोट करते हुए कहा कि तीनों वेदों की रचना करने वाले पाखण्डी, धूर्त और निशाचर है। 

भयो वेदस्य कत्तारो भण्डधूर्त निशाचराः। जर्फरी तुर्फरीत्यादि पण्डिताना वच स्मृतम्।।

इस प्रकार चार्वाक दर्शन महात्मा बुद्ध के विचारों के समान क्रांतिकारी दर्शन था। उसके अनुयायी सामाजिक जीवन में भी सत्ता के स्त्रोत एवं सेवकों की उग्र आलोचना करते है।हिन्दू धर्म दर्शन और जाति व्यवस्था का सबसे शक्तिशाली विरोध बौद्धधर्म और दर्शन ने किया था। उसमें हिन्दूधर्म दर्शन और जाति व्यवस्था की केवल आलोचना ही नहीं की, बल्कि सबके लिए नये मानवीय और विवेकसम्मत विकल्प भी थे। इसलिए हिन्दू धर्म और समाज की दमनकारी रूढ़ियों की गुलामी से मुक्ति का मार्ग था। इसलिए महान दार्शनिक कवि और नाटकार ‘अश्वघोष’ ने बज्रसूची नाम की पुस्तक लिखी। जिसमें वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवाद का उग्र विरोध किया है। यह पुस्तक सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में जाति व्यवस्था का मूलगामी खण्डन करने वाली पहली पुस्तक है। जिसका अनुवाद राजाराममोहन राय ने बंग्लाभाषा में तथा महात्मा ज्योतिबा फूले ने मराठी में अनुवाद कर प्रकाशन कराया था। बौद्धधर्म ने जाति व्यवस्था की गुलामी से मुक्ति का जो मार्ग दिखाया, उसे ही बाबासाहब अम्बेडकर ने भी स्वीकार कर अपनाया था। इसलिए बौद्ध धर्म दर्शन के महान ग्रन्थों की खोज करते हुए उसे नया जीवन देने वाले ‘‘राहुल सांस्कृत्यान’’ एवं डा. अम्बेडकर के विरोधी है। जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

ब्राह्मणों ने अपने एकाधिकार को स्थापित बनाये रखने के उद्देश्य से ही श्रृति और स्मृतियों की रचना की थी। इन्हीं ग्रन्थों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को देवीय रूप देने की कोशिश की। महात्मा फूले का मानना था कि ब्राह्मणवाद ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता की बौद्धिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। इसका दर्शन केवल मात्र वर्चस्ववादी दर्शन था। यह शोषण करने के उद्देश से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या देवीय नहीं है। फूले ने अवतारवादी कल्पना का विरोध किया। उन्होंने विष्णु के अवतारों का जोरदार ढंग से विरोध किया। उनका उद्देश्य देवीय एवं पवित्र बताये गये ब्राह्मणवाद का विनाश किये जाने का था। पुनर्जन्म के सिद्धान्त को भी उन्होंने नकारा, क्योंकि इसमें जन्म जन्मान्तर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। इससे वर्ण एवं जाति व्यवस्था को बढ़ावा मिलता है। फूले के अनुसार भारत की जाति व्यवस्था समाज की बुनियाद का काम करती है। जिसके ऊपर जाति एवं समाज का ढांचा बनाया गया है। इन्होंने ब्राह्मणवाद की चातुरवर्ण व्यवस्था भी खारिज की थी। ऋग्वेद के पुरूष सुक्त – जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना की गयी थी को फर्जी बताया। फूले एक समता मूलक व न्याय आधारित समाज व्यवस्था की बात करते थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णां की औरतें,शुद्र की श्रेणी में गिनी गयी थी। फूले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात कही। उनके विचारों में नारी व दलित स्मिता की लड़ाई के अनेक सूत्र ढूंढे जा सकते हैं। जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

समान शिक्षा प्रणाली व वैज्ञानिक सोच से जाति-भेदभाव का अंत- विश्व बैंक के अध्यक्ष ‘‘जिम योंग किम’’ ने कहा है कि भारत में जातीय भेदभाव की समस्या खत्म किये बिना सामाजिक विकास संभव नहीं है। जिसे विश्व के विचार पटल पर रखा। भारत की जाति प्रथा का अन्त करने के लिए डा.अम्बेडकर ने जाति की धार्मिक धारणा और उसके स्त्रोत ब्राह्मणी धर्म ग्रन्थों को प्राप्त सामाजिक मान्यता और स्वीकृति को खत्म करने का जो वैधानिक तरीका बताया है। उसे लागू करने के लिए सार्वजनिक शिक्षा नीति में ही शामिल होनी चाहिए जिसमें ‘‘समान शिक्षा प्रणाली’’ और उसमें ‘‘वैज्ञानिक पाठ्यक्रम’’ इसका एक प्रमुख माध्यम होगा। इससे धार्मिक धारणाओं को ध्वस्त कर पायेंगे। जिनकी सामाजिक स्वीकृति और मान्यता से जात-पांत फलती फूलती है। जब इस अभियान को आगे बढ़ा रहे है तो ब्राह्मणी ताकतें इसके विरूद्ध देश में ‘‘गीता’’ एवं ‘‘रामायण’’ जो मिथिक आधारित अवैज्ञानिक ग्रन्थ हैं और भेदभाव की जननी है। जिसे शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल करने की रवायत और हिमायत कर रही है। और जिमजोंग किम की नीति के विरूद्ध काम कर रहे हैं।

महात्मा फूले की पुस्तक ‘‘गुलामगिरी’’ के प्रत्येक पृष्ठ पर महान कवि व दार्शनिक होमर का यह विचार उदृत किया है कि ‘‘जिस दिन मनुष्य गुलाम हो जाता है, अपने आधे सद्गुण उसी दिन खो देता है। डा.अम्बेडकर के जीवन की सबसे बडी बाधा हिन्दु समाज में व्याप्त जाति प्रथा थी। जिसके अनुसार जिस परिवार में मनुष्य का जन्म हुआ, उसे अछूत माना जाता है। इसके खात्में के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया था। उन्होंने कहा कि छूआछूत मिटानी है तो ब्राह्मणों को अपना रसोईया शुद्रों (दलितों) को बनाना होगा। जब तक उच्च और निम्न वर्गों में रोटी बेटी का संबंध एवं व्यवहार नहीं होगा, तब तक समाज में गहरे पैठ बना चुकी जाति व्यवस्था एवं अन्य आडम्बरों को जड़ से मिटाना दुष्कर होगा। डा. अम्बेडकर ने महात्मा बुद्ध की तरह मानव को ईश्वर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया। उन्होंने अछूत वर्ग को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन न्यौछावर कर दिया था। 

मूर्तिवाद – वैदिक समय में ना मूर्तियां थी न मंदिर, फिर इसके बाद के कालों में और आज तक मंदिर क्यों। इसका जवाब यह है कि ये मूर्तियां केवल निम्न जातियों के लोगों को मानसिक गुलाम बनाये रखने के लिए बनाई गयी है। क्योंकि पत्थर मिट्टी की पूजा करते-करते मन भी मिट्टी जैसा हो जाता है। सभी जातियों को अलग-अलग एक-एक मूर्ति थमा रखी है। ताकि सभी अपनी-अपनी पीपनी बजाते रहें। उन सबका मुखिया अपने कुनबे के देवता को बना रखा है। हद तो तब होती है जब देवता की मूर्तियों को भी शराब पिलाई जाती है। पत्थर दूध पीने लगते है। देश में पढ़े लिखे लोग मूर्तियों पर हजारों-लाखों लीटर दूध फालतू में बहा देते हैं। दूसरी ओर देश के लाखों बच्चे इस दूध से वंचित हो जाते हैं। पुरोहित तरह-तरह के हथकंडों से आम जनता को मूर्ख बनाते हैं। यह आडम्बर धीरे-धीरे अन्य धर्मां में भी जगह बनाता जा रहा है। भारत के लोगों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यहाँ चित्र पूजा करते है। चरित्र की पूजा नहीं की जाती है। जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

ब्राह्मण हजारों सालों से आस्था का प्रयोग कर मूल निवासियों शुद्रों (दलितों) को मानसिक गुलाम बनाये रखने तथा साम्राज्य कायम रखने के लिए कर रहा है। क्योंकि आस्था एक ऐसी मानसिक गुलामी की अफीम हैं। जिसमें मूल निवासी लोग अपने ही मुस्लिम भाई, धोबी, भंगी, चमार आदि को नहीं पहचानता है, और उन पर हिंसा करता है। उदाहरण के तौर पर आशाराम बापू, नित्यानन्द स्वामी को देखा जा सकता है। पुरूषों के मुकाबले भारत की मूल निवासी महिलाऐं इससे अधिक ग्रसित हैं। उपस्थित धार्मिक आस्था, मूल निवासियों द्वारा क्रांति करने में बहुत बड़ी बाधा बनती है। अछूतोद्धारक रामास्वामी ई.वी.पेरियार ने कहा था कि काल्पनिक भगवान को बदमाशों ने बनाया, लुटरों ने चलाया तथा मूर्ख लोगों ने माना। 

भारत के मूल निवासियों (आर्यों के आगमन से) पहिले भारत में अनार्यां अर्थात द्रविणों की एक विकसित संस्कृति व समाज व्यवस्था विद्यमान थी। अनार्यां में राजा बाली अति लोकप्रिय था तथा उसके सामने होकर पराजित करना सम्भव नहीं था। इसलिए आर्यां ने बामन अवतार का सहारा लेकर उसके राज्य को हड़प लिया था। इस कुटिलता को 52 अवतार का नाम दे दिया गया। उपरोक्त घटना का विवरण श्रीमद्भागवत महापुराण के अध्याय 15 के स्कंध 8 में मिलता है। इसी तरह रामायण के अरण्यकाण्ड 32-2 में राम ने यहां तक कहा है कि

पूजिये विप्रशील गुन हीना, शुद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना। अर्थात ब्राह्मण,मूर्ख,ढीठ,व्याभिचारी,लोभी,चोर,डाकू उचक्का व अज्ञानी क्यों न हो तो भी पूजने योग्य है। इसके विपरीत शूद्र यदि गुणों में, ज्ञान में, संस्कार में प्रवीण हो तो भी पूजने योग्य नहीं है। आर्यां ने अपने स्वार्थ के लिए छल-कपट से अनेक अनार्य राजाओं की हत्या करवा दी तथा प्रजा में ऐसी कथाऐं प्रचलित की गयी कि भगवान विष्णु ने राम का अवतार लेकर असुरों को उनके पापों की सजा देने के लिए उनकी हत्या कर दी। डा. डी.आर. भंडारकर ने अपने निबंध ‘‘हिन्दू जनता में विदेशी तत्व’’ में अंकित किया है कि ‘‘भारतवर्ष में मुश्किल से ही कोई जाति या वर्ग ऐसे होंगे जिनमें विदेशी मिलावट ना हो, विदेशी रक्त की यह मिलावट राजपूत व मराठों जैसी लड़ाकू जातियों में ही नहीं बल्कि ब्राह्मणों में भी विद्यमान है जबकि ब्राह्मण इसी कल्पना में मग्न हैं कि उनकी जाति सर्वश्रेष्ठ है।

जाति व्यवस्था ने हिन्दू समाज को पूरी तरह असंगठित और अनैतिक अवस्था में ला दिया है। यह ऐसे लोगों की देन है जो अपने छल-बल कौशल से समाज के अन्य वर्गों पर अपना प्रभुत्व जमाने में सफल हो गये थे, कुटिलता पूर्वक अपने अहम की पूर्ति हेतु अपने प्रभुत्व को चिरस्थायी बनाने के लिए उन्होंने जाति प्रथा को जन्म दिया। जाति प्रथा सामूहिक क्रिया कलापों पर रोक लगाती है। और इसने हिन्दुओं को समान जीवन और अपने अस्तित्व में होने का अहसास होने से रोका है। यह जाति और जाति चेतना की विभिन्न जातियों के बीच वंशानुगत शत्रुता की याद ताजा रखती है और इसी के कारण कंधे से कंधा जोड़कर चलने की भावना नहीं आ पाती। जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

किसी हिन्दू के लिए यह सब कैसे संभव होगा। उसका सम्पूर्ण जीवन अपनी जाति को बचाने में खप जाता है। जाति उसकी बहुमूल्य सम्पत्ति है। जिसे किसी भी कीमत पर बचाना है। आदिवासियों को आदिम स्थिति में बनाये रखने के लिए हिन्दुओं को न तो इसके लिए शर्म है और ना ही कोई पश्चाताप। इसी के परिणामस्वरूप देश में नक्सलवादी (वामपंथी) आंदोलन खड़े हो रहे है। इन्हें दूसरे पंथ के लाग अपने में शामिल कर लेगें, तब वे दुश्मनों की ताकत ही बढ़ायेंगे। जो हिन्दुओं के विरूद्ध कार्य करेंगे। अगर ऐसा होता है तो हिन्दुओं के पास जाति प्रथा और खुद को कोसने के अलावा कुछ नहीं रह जायेगा। प्राचीन भारतीय इतिहास में विदेशियों के आक्रमण एवं यहां की भूमि, समाज व्यवस्था पर कब्जा कर राज कायम करना जाति व्यवस्था का परिणाम रहा है। हिन्दुओं ने पिछड़ी जाति के लोगों को न केवल सभ्य बनाने का मानवीय कार्य नहीं किया बल्कि उन्होंने हिन्दुत्व के दायरे में आने वाली निचली जातियों को जान-बूझकर उच्च जातियों के सांस्कृतिक स्तर तक जाने से रोका है। 

शास्त्रीय मान्यता जातिवाद का पोषक – जातियां ऐसे धार्मिक विश्वास का प्रतिफल हैं जिन्हें शास्त्रीय मान्यता प्राप्त है और शास्त्र चूंकि अलौकिक, प्रतिभा सम्पन्न, ईश्वरीय प्रेरणा वाले संतों एवं ऋषियों के द्वारा प्रणीत माने गये हैं। अतः उनके आदर्शां की अवहेलना महाघातक के समान हैं। लोगों से जाति प्रथा छोड़ने के लिए कहना, उनसे अपना धर्म त्यागने तथा महापातक करने के लिए कहने के समान है। हिन्दु अपनी सामाजिक व्यवस्था को पवित्र समझते हैं और जाति प्रथा ईश्वरीय विधान का आधार मानी जाती है। अतः जातियों से जुड़ी पवित्रता तथा ईश्वरीय विधान की भावना को समाप्त करना आवश्यक है। फलतः आपकों शास्त्रों व वेदों की प्रमाणिकता एवं मान्यता समाप्त करनी होगी। 

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जाति प्रथा की समाप्ती में ब्राह्मणें पर ही सबसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ने वाला है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए क्या आशा करना उचित होगा कि ब्राह्मण जाति प्रथा को नष्ट करने का लक्ष्य रखने के किसी आन्दोलन का नेतृत्व करेंगे। भारत का ब्राह्मण यहां का बुद्धिजीवी वर्ग का तो सम्माननीय है ही, शेष हिन्दुओं द्वारा यह पूजनीय माना गया है हिन्दुओं को यह सिखाया जाता है कि ब्राह्मण पृथ्वी के देवता है और ब्राह्मण ही उनके शुरू होने योग्य है। इनके संबंध में मनु का कथन है –

अनाम्नातेषु धर्मेषु कथंस्यादिति चेम्दवेत्, यं शिष्टा ब्राह्मण ब्रृयुः स धर्मः स्याशंकित।।

जाति प्रथा का मुख्य पहलू है कि प्रत्येक जाति इसी बात में संतोष करती है कि वह किसी न किसी जाति से ऊँची है। यह भावना उन्हें संगठित नहीं होने देती। भारत की इस जातीय व्यवस्था ने गुलामी की बेड़ियों इस खूबसूरती से सामाजिक व धार्मिक अधिकारों को रूप दे दिया है। यहाँ प्रत्येक जाति को अपनी नीची जाति की तुलना में अपने विशिष्ट अधिकारों की हानि होने की शंका है। जाति प्रथा के संबंध में मनु ने प्रत्येक हिन्दू के दैनिक व्यवहार के प्रति तीन आज्ञाऐं दी है जिनमें – वेदः स्मृतिः सदाचार, स्वस्थ च प्रिययात्मनः अर्थात हिन्दू को क्रमशः वेद, स्मृति तथा सदाचार के नियमों का पालन करना चाहिए। इनके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इस प्रकार हिन्दुओं के जीवन में विवेक या तर्क को कोई स्थान नहीं है। एक अन्य श्लोक में मनु ने निर्देश दिया है कि तर्क का सहारा लेने वाले को नास्तिक कहा गया है। उनमें हिन्दू के लिए अपना तर्क या विवेक के प्रयोग करने की कोई गुंजाइश नहीं है। जिन विषयों पर श्रुति या स्मृतियों के स्पष्ट निर्देश उपलब्ध है। उन पर हिन्दू अपने विवेक का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र नहीं है और यही व्यवस्था ‘‘महाभारत’’ में भी दी गयी है। जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

पुराणं मानवोधर्मः सांगो वेद श्चिकित्सितं, आज्ञा सिद्धानि चत्वारि न हस्तष्यनि हेतुभिः।।

व्यक्ति को निर्देशों का पालन करना ही होगा। जहां जाति एवं वर्ण का प्रश्न है शास्त्र इस प्रश्न पर निर्णय के लिए किसी हिन्दू को विचार करने की कभी अनुमति नहीं देता है। यहां तक व्यवस्था की गयी हैं कि जिससे जाति एवं वर्ण में विश्वास के आधार को तर्क की कसौटी पर कसने का अवसर नहीं मिले। डा. अम्बेडकर ने बताया कि इसमें कोई संदेह नहीं कि जाति आधार रूप से हिन्दुओं के प्राण है। लेकिन हिन्दुओं ने सारा वातावरण गंदा कर दिया है और सिक्ख, मुस्लिम और क्रिश्चियन सभी इससे पीड़ित हैं। इसलिए आपको उन सभी पीड़ित लोगों का समर्थन मिलना चाहिए। मेरी राय में यदि हिन्दु समाज वर्ग रहित, जाति रहित समाज हो जाए, तो इसमें अपनी रक्षा के लिए पर्याप्त बल आ जायेगा। बिना ऐसे आन्तरिक बल के हिन्दुओं के लिए स्वराज्य मात्र गुलामी की दिशा में एक और कदम है।

ब्राह्मणों (विदेशी आर्यां द्वारा) जो अल्पसंख्यक थे, ने इतने बडे देश (भू-भाग) पर। शासन एवं नियंत्रण करने के लिए जाति व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था की रचना की थी। जिससे यहां के मूल निवासियों को लम्बे समय तक गुलाम बनाये रखा जा सके। इन्होंने दैत्य व राक्षसों का नाम बदलकर शूद्र एवं महाशूद्र घोषित किया। संस्कृत भाषा में वर्ण का अर्थ है रंग अर्थात वर्ण व्यवस्था। भारत के आदि मूल निवासियों का रंग आर्यां के रंग से भिन्न था। चेहरा, नैन नक्श में भी अन्तर था। वर्ण व्यवस्था से आर्यां ने यहां के मूल निवासियों को लम्बे समय तक गुलाम बनाये रखना संभव हुआ था। भारत की सभी स्त्रियों को ब्राह्मणें ने धर्मशास्त्रों में शूद्र व अधोगामी घोषित किया गया। ब्राह्मणों की मां, बहिन, बेटियों व पत्नी और क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र महाशूद्रों की महिलाओं का डी.एन.ए. एक समान होने से सभी शूद्र-नीच घोषित किया। इसलिए आर्यां ने प्रजनन के लिए भारत की महिलाओं का उपयोग किया। इसी कारण उन्हें शूद्र अर्थात निम्न वर्ण में धकेल दिया। इसलिए हिन्दुस्तान की औरतों को ब्राह्मण हमेशा पाप योनी में मानता है। क्यूंकि वो उनकी कभी थी ही नहीं। ब्राह्मण (आर्य) जब भारत पर आक्रमण करने के लिए आये। अपने साथ में औरतों को कभी लाये ही नहीं थे। जाति आखिर क्यों नहीं जाती..?

‘जाति ! हाय री जाति ! कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला। कुपित सूर्य की ओर देख, वह वीर क्रोध से बोला।।
जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड। मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं, ये मेरे भुजदण्ड।।
ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले। शरमाते हैं नहीं जगत में, जाति पूछने वाले।।
शूद्र-पुत्र हूँ मैं लेकिन थे, पिता पार्थ के कौन।साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन ।। 
 

       
 
 ये पंक्तियाँ राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर की रचना ‘‘रश्मिरथी’’ से ली गई हैं जिसमें जातिवाद पर प्रहार करते हुए तथा कर्ण को शूद्र होने के कारण अर्जुन से मुकाबला करने से रोके जाने की घटना से प्रेरित होकर लिखा गया है। इस घटना का आज भी वही महत्त्व है जो इस घटना के घटित होते समय रहा होगा।

ईसा से 3 से 5 वीं शताब्दी पूर्व महात्मा बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था को समाप्त कर दिया था। जो समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था थी। महात्मा बुद्ध अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में मानवाधिकारों की गुलामी के विरूद्ध लड़ते व संघर्ष करते रहे थे। पुष्पमित्र शुंग अर्थात राम के किरदार ने अशोक मौर्य वंश का अंतिम वंशज बृहदत्त की हत्या ई.पू. 185 में करके प्रतिकान्ती की शुरूआत की। वाल्मीकी शुंगू के दरबार में राज कवि था। उसे सामने रखकर ही रामायण लिखी गयी थी। जिसका प्रमाण रामायण में खुद है। बृहदत्त की हत्या पाटिलयुग में हुयी थी। शुंगू की राजधानी अयोध्या थी जो बाद में जीत कर राजधानी खड़ी की गयी थी। शुंगू ने अश्वमेघ यज्ञ किया था। रामायण में राम ने भी अश्वमेघ यज्ञ किया था। अर्थात पुष्पमित्र शुंगू ही राम का किरदार बनाकर रामायण रची गयी। जिसके लगभग एक हजार वर्ष बाद सन् 1554 ई. में तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखी है। जातियों को बनाये रखने की नीति ब्राह्मणों की उच्चता से जुड़ी हुयी है। इसलिए वे हमेशा जाति व्यवस्था को बनाये रखना चाहते थे। इसके लिए ही अन्य-अनेक सारी व्यवस्थाऐंं निर्धारित कर धर्म रीति व संस्कारों से जोड़ा गया था। 

जातिवाद का किला कैसे टूटे-डा. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक जाति का खात्मा (एनीहिलेशन ऑफ कास्ट)8 में लिखा है मेरा भरोसा है कि अन्तर्जातीय विवाह व भोज इसका वास्तविक उपचार है। रक्त के एकीकरण से ही आपसी भाईचारे की भावना पैदा की जा सकती है। जब तक जाति द्वारा पैदा की गयी अलगाव की भावना खत्म नहीं होगी, एकता नहीं आएगी। हिन्दुओं के सामाजिक जीवन में अन्य धर्मों की अपेक्षा अन्तर्जातीय विवाह अधिक प्रभावशाली सिद्ध होंगे। जहाँ समाज नारंगी की तरह विभक्त हो वहीं उसे जोडने के लिए, नारंगी के छिलके की भांति विवाह बंधन आवश्यक है। यही इस रोग का सही उपचार है 

जातिवाद मानने के लिए हिन्दु नहीं, उनका धर्म दोषी है। जिसने जातिवाद के जहर को जन्म दिया है। आपको जातिवाद के अनुयायियों से ना उलझकर हिन्दु शास्त्रों को विरोध करना चाहिए। क्योंकि यही इसे जातीय धर्म निभाने की शिक्षा देती है। इसका सही उपाय तो यह है कि शास्त्रों की पवित्रता की भावना समाप्त कर दी जाए। जब तक लोगों के विश्वास व विचारों को दूषित करने वाले शास्त्र मौजूद रहेंगे, तो आप सफलता की आशा कैसे कर सकते है। बिना आस्था समाप्त किए उनका व्यवहार नहीं बदल सकता। वैसे तो अन्तर्जातीय विवाह व भोज का प्रचार व आन्दोलन, हिन्दुओं के गले में जबर्दस्ती घुट्टी पिलाने के समान है। परन्तु यदि आप स्त्री व पुरूषों को शास्त्रों की गुलामी से मुक्ति दिला सकें तो, आप देखेंगे की लोग बिना आपके कहे ही अन्तर्जातीय भोज व विवाह अंगीकार कर लेंगे। यह समय व वैज्ञानिक तरक्की के साथ कुछ सीमा तक स्वमेव ही हो रहा है। किन्तु जाति एवं वर्णव्यवस्था को जड़ से खात्मा करने का सफर अभी काफी लंबा है। जिसके लिए महात्मा बुद्ध, डा. अम्बेडकर, महात्मा ज्योतिबा फूले, पेरियार वी. रामास्वामी तथा काशीराम आदि के बताये मार्ग पर निरन्तर चलना होगा। 

जाति आखिर क्यों नहीं जाती…?

{यह लेखक के अपने विचार हैं प्रकाशन समूह का सहमत होना आवश्यक नहीं है-लेखक व पत्रकार -73,अम्बेडकर नगर, टोंक फाटक,जयपुर-15}