अखिलेश यादव की सियासत ख़ामोश….?

267

बहुत समय के बाद पिछले कुछ महीने, विपक्ष के लिए सबसे अच्छे रहे हैं- जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ़, उठाने के लिए बहुत सारे मुद्दे मिल गए हैं लेकिन फिर भी, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने ख़ामोशी अपनाई हुई है और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ भी खुलकर बोलते नज़र नहीं आ रहे हैं.

कहां हैं वो युवा….? वो इतने लो प्रोफाइल क्यों बने हुए हैं, जबकि उनके प्रदेश में चुनावों को दो साल भी नहीं बचे हैं? ऐसे महत्वपूर्ण समय में वो आक्रामक रूप से सामने क्यों नहीं हैं, ख़ासकर जब उनके पिछले दो चुनाव बिल्कुल तबाह करने वाले थे और एक लीडर के तौर पर ख़ुद को साबित करने के लिए उन्हें हर मुमकिन मौक़े को लपकने की ज़रूरत है?

अखिलेश यादव की दिक़्कत ये है कि युवा और ज़मीनी नेता होने की वजह से, शुरुआती उत्साह के अलावा, कोई चीज़ उनके पक्ष में नहीं गई है. वो बैसाखियों के कुछ ज़्यादा ही आदी हो गए- पहले उनके पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा, बाद में कांग्रेस व बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी)- और अब बिना किसी खंभे के वो दिशाहीन लगते हैं. नाज़ुक अवसरों पर ‘साए में रहना’ उनके किसी काम नहीं आ रहा है. इधर अखिलेश बैसाखियों में बंधे हैं, उधर बीमार मुलायम सिंह यादव, संसद के चालू मॉनसून सत्र के पहले दिन ही नज़र आ गए.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने सियासत के नियम ही बदल दिए हैं. ख़ामोशी के साथ परदे के पीछे रहकर काम करना, अब किसी भी महत्वाकांक्षी नेता का अंदाज़ नहीं रह गया है (नवीन पटनायक जैसे लोग एक दुर्लभ अपवाद हैं). मिलने-जुलने, दिखने और एक दूसरे से जुड़ाव की आज की सियासत में, आपका अच्छे से सुना और देखा जाना ज़रूरी है, ख़ासकर अखिलेश जैसे नेता के लिए, जिन्हें अपना अतीत पीछे छोड़कर, जो वैसे भी बहुत शानदार नहीं है, अपने आपको फिर से सामने लाना होगा और बीजेपी को चुनौती देने के लिए खुद को एक मज़बूत लीडर के तौर पर पेश करना होगा.

लेकिन अखिलेश यादव ख़बरों और लोगों के दिमाग़ से लगभग ग़ायब हो गए हैं. कहीं ज़्यादा अस्थिर और ग़ायब होने वाले राहुल गांधी भी, मोदी के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाए रखने में कामयाब रहे हैं. पिछले 6 महीने में सरकार को घेरने के, बहुत से आसान मौक़े आए हैं लेकिन लगता है कि यूपी के पूर्व सीएम ने वो सब गंवा दिए हैं.