भाजपा की रणनीति से टूटा ‘परिवार’ का तिलिस्म

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लखनऊ, जेएनएन, समाजवादी कुनबे की कलह और भारतीय जनता पार्टी की रणनीति से करीब तीन दशक से उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक में बना यादव परिवार का तिलिस्म टूट गया। वर्ष 1999 में भाजपा के शासनकाल को छोड़ दें तो 1991 से लेकर अप्रैल 2020 तक बैंक पर मुलायम सिंह यादव परिवार का कब्जा रहा या प्रशासक नियुक्त हुए। ऐसा पहली बार है जब बैंक की 323 शाखाओं में से मात्र 19 पर ही विपक्ष काबिज हो सका। कुल दस जगह चुनाव निरस्त और 11 पर निर्वाचन प्रक्रिया नहीं हो सकी। यानि 293 स्थानों पर भाजपा का परचम फहराया। सहकारिता की सियासत में सिरमौर माने जाने वाले शिवपाल यादव व उनकी पत्नी अपनी सीट बचाने में कामयाब रहीं, लेकिन पूरब से लेकर पश्चिम तक उनके सभी सिपहसलार मैदान में टिके नहीं रह सके। 

कोरोना वायरस संक्रमण के दौरान कराए गए बैंक की स्थानीय प्रबंध समितियों व सामान्य सभा के चुनाव में कानपुर व ब्रज क्षेत्र में ही विपक्ष को कुछ राहत मिली, अन्यथा पश्चिम के 59 में से 55, अवध के 65 में 63, काशी के 38 में से 33 तथा गोरखपुर के 34 में 30 स्थानों पर भाजपाई काबिज हो गए। कानपुर क्षेत्र में भाजपा को 45 में से 34 तथा ब्रज में 82 में से 78 क्षेत्र में जीत मिली। मथुरा के गोवर्धन व नौझील में नामांकन ही नहीं हो सके, जबकि कुशीनगर की पडरौना, बांदा की बबेरू, फतेहपुर की बिंदकी खागा, सोनभद्र की राबर्टसगंज व कानपुर की घाटमपुर व चौबेपुर में चुनाव निरस्त हो गए।

भाजपा कार्यकर्ताओं की मेहन रंग लाई : उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह और प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल ने अभी तक के परिणामों पर प्रशन्नता जाहिर करते हुए कहा कि कार्यकर्ताओं की मेहन रंग लाई। यह जीत सहकारिका के क्षेत्र में नए आयाम गढ़ेगी। दोनों नेताओं ने इस जीत को कार्यकर्ताओं के नाम किया।

बसपा भी नहीं तोड़ सकी सपा का वर्चस्व : वर्ष 1960 में पहले सभापति जगन सिंह रावत निर्वाचित हुए। इसके बाद रऊफ जाफरी व शिवमंगल सिंह 1971 तक सभापति रहे। इसके बाद बैंक की कमान प्रशासक के तौर पर अधिकारियों के हाथ में आ गई। वर्ष 1991 में मुलायम सिंह यादव परिवार की एंट्री हुई। हाकिम सिंह करीब तीन माह के लिए सभापति बने और 1994 में शिवपाल यादव सभापति बने। केवल भाजपाकाल में तत्कालीन सहकारिता मंत्री रामकुमार वर्मा के भाई सुरजनलाल वर्मा अगस्त 99 में सभापति निर्वाचित हुए थे। बसपाकाल में सपाइयों ने कोर्ट में मामला उलझाकर चुनाव नहीं होने दिए थे।