हाशिये का समाज

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स्त्रियां और दलित जरूर पढ़ें बु​द्ध का अनत्ता और देरिदा का deconstruction दर्शन, इसी में है उनकी मुक्ति का आश्वासन।आत्मा और ईश्वर को मानने वाले दर्शन (ध्यान) की बजाय ‘भक्ति’ के आधार पर समाज का निर्माण और नियंत्रण करते हैं, इस कारण वे अंधविश्वास और तानाशाही पैदा करते हैं, वे कभी विज्ञान पैदा नहीं कर पाते….

युवा समाजशास्त्री संजय श्रमण का विश्लेषण

भारत के धार्मिक दर्शनों में अब तक बौद्ध धर्म के अनत्ता के सिद्धांत को ठीक से नही समझा गया है। इसके भारी दुष्परिणाम हुए हैं। एक चैतन्य सनातन आत्मा और उसके सर्जक परमात्मा (ईश्वर) की कल्पना ने भारत को बहुत गहरी गर्त में धकेला है। विज्ञान, सभ्यता और सामान्य बुद्धि तक का ठीक विकास इससे बाधित हुआ है। इसका अनिवार्य परिणाम भारत में लोकतंत्र और सभ्य राजनीति पर भी पड़ा है। गौतम बुद्ध का अनत्ता अर्थात अनात्मा (कोई आत्मा नहीं होती) का सिद्धांत भारत को सभ्य और समर्थ बनाने में बड़ी भूमिका निभा सकता है। कांट, ह्यूम या हाईडगर या नीत्शे जैसे पश्चिमी दार्शनिक जिस विस्तार में गये हैं उसके स्वाभाविक फलित में पश्चिम में मनुष्य की आत्यंतिक निजता और individuality का कांसेप्ट आगे बढ़ा है।

किसी भी देश या समाज के उन वर्गों-समुदायों के सम्मिलित समाज को हाशिये का समाज कहा गया है, जो वर्चस्ववादी कुनबे की तुलना में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और आर्थिक स्तर पर किन्हीं कारणों से पीछे रह गए हैं। … उसी प्रकार समाज में कुछ जातियों या समुदायों को मुख्य धारा से अलग कर दिया गया है ।

समाज या राज्य के साथ मनुष्य की निजता का क्या संबंध है इस पर बात निकली है। यही बात मानव अधिकार, सभ्यता लोकतंत्र सहित मनुष्य के निजी जीवन में लोकतंत्र और सामाजिक जीवन में लोकतंत्र को आगे बढाती गयी है। इससे पश्चिमी समाज सभ्य बनता गया है.वहीं भारत के समाज और राजनीति में सभ्यता का प्रवेश कठिन होता जा रहा है। भारत ने पश्चिम से सीखने की कोशिश अवश्य की है, लेकिन इसके बावजूद भारत की मूल दार्शनिक विपन्नता और अंधविश्वास भरी मान्यताएं सबसे बड़ी बाधा बन रही हैं। भारत में एक सभ्य राजनीति ही नहीं, बल्कि सभ्य और नैतिक सामाजिक जीवन के लिए अनात्मा का दर्शन अब आवश्यक होता जा रहा है। अगर दलित बहुजन अगले दशकों में बौद्ध धर्म अपनाते हैं तो अनत्ता दर्शन से निकलने वाले सामाजिक और राजनीतिक दर्शन को सामने लाना जरुरी है जो एक नई राजनीति का आधार बन सके। यह न केवल समाज और राजनीति बल्कि एक एक व्यक्ति के निजी और पारिवारिक मनोविज्ञान को भी पूरी तरह बदलकर अधिक स्वस्थ बनाएगा।

आत्मा, सेल्फ या स्व को एक इकाई की तरह देखते हुए जो मनोविज्ञान या समाज विकसित हुआ वो असल में इश्वर को सुप्रीम सेल्फ मानने वाले और मनुष्य को उसका एक छोटा अंग या सेल्फ मानने वाले विज्ञान की तरह आगे बढ़ा। इस आगे बढने के दौरान जो भी सिद्धांत और उपचार विधियां आईं उनका जोर एक इकाई के रूप में व्यक्तित्व को सुरक्षित बनाने और उसे बल देने पर था। ये असल में ‘सनातन आत्मा’ ‘रूह’ या ‘सोल’ या ‘ठोस व्यक्तित्व’ की मान्यता से निकलने वाली दिशा है. इस तरह सोचना असल में मनुष्य, अन्य जीव जगत, समष्टि और प्रकृति के नाजुक परस्पर निर्भर ताने बाने को दुर्लक्ष्य करता है।

आत्मा का सिद्धांत असल में अस्तित्व और प्रकृति सहित समाज से भी अलगाव की घोषणा करता है जिसके गर्भ से मोक्ष बैकुंठ और वैराग्य जैसी मूर्खताएं जन्म लेती हैं। इसी जहर से भारत की सारी सामाजिक दार्शनिक उपलब्धियों पर पानी फिर जाता है। विज्ञान सहित बाद के दर्शनों और मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि व्यक्तित्व कोई ठोस रचना नहीं है, बल्कि ये एक सोशल कल्चरल कंसट्रक्ट है जिसकी स्वयं में कोई आत्यंतिक सत्ता नहीं है। ये हजारों अन्य टुकड़ों का जोड़ है। देरिदा नामक महान दार्शनिक ने इस बहस को शिक्षर पर पहुंचा दिया है। बाद में देरिदा और बुद्ध में समानता खोजते हुए कई अन्य विचारकों ने काम करके ये सिद्ध कर दिया है कि deconstruction का दर्शन असल में बुद्ध द्वारा दिए गये अनत्ता के दर्शन से बहुत समानता रखता है। देरिदा ने deconstruction को सामाजिक आर्थिक मनोवैज्ञानिक भाषा में रखा है।

देरिदा से करीब ढाई हजार साल पहले बुद्ध ने इसे मेटाफिजिक्स, मनोविज्ञान, दर्शन और अध्यात्म की बहसों के मध्य स्थापित कर दिया है। इस तरह deconstruction या अनत्ता के नजरिये से स्व को देखा जाए तो स्व स्वयं में एक गठजोड़ है जिसके हजारों पुर्जे हैं। इन पुर्जों में समायोजन की कमी ही मनोरोग है। इस प्रतीति के आधार पर आधुनिक मनोविज्ञान और थेरेपी का विकास हो रहा है। इससे व्यक्ति और व्यक्तित्व को स्वस्थ बनाने की बहुत संभावनाएं बन रही हैं। आत्मा या ठोस व्यक्तित्व पर आधारित ज्ञान अब अंतिम साँसें ले रहा है, लेकिन भारत के पाखंडी बाबा लोग इसे अभी भी अंधविश्वास की कृत्रिम खुराक द्वारा ज़िंदा रखे हुए हैं। आज की मनोचिकित्सा परिवार, समाज और पीअर ग्रुप से आरंभ करती है। एक अर्थ में ये बुद्ध की अनत्ता और देरिदा के deconstruction का मोडल है। इसमें व्यक्तित्व को उसके घटकों और निर्माताओं के जरिये पकड़ा जाता है। अगर यही काम हिन्दुओं की पुनर्जन्म और आत्मा की धारणा से किया जाए तो वे पुनर्जन्म की मूर्खता में घुस जाते हैं।

हालाँकि ऐसा करते हुए वे कभी भी पिछले जन्म का एक संपूर्ण व्यक्तित्व निर्मित करके उसकी सौ प्रतिशत सही जीवनी नहीं लिख पाते। पुनर्जन्म की बकवास करते हुए भी वे असल में अनत्ता का ही इस्तेमाल करते हुए तथाकथित पिछले जन्म में इस व्यक्तित्व के किसी टुकड़े का उल्लेख या उपचार करते हैं। एक अर्थ में ये उपनिषद या हिन्दुओं के पूर्ण और बुद्ध के शून्य के बीच का संघर्ष है जो मनोविज्ञान की बहस में फलित हो रहा है। और अभी तक का ओबजर्वेशन ये बता रहा है कि मनोविज्ञान ने व्यक्ति के अस्तित्व और व्यक्तित्व की बहस के स्तर पर पूर्ण (इश्वर) और स्व (आत्मा) को निरस्त कर दिया है। अब बुद्ध और देरिदा की तरह deconstruction या अनत्ता या अनात्मा की प्रतीति पर खड़ा मनोविज्ञान आकार ले रहा है। इसी दिशा में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास की थ्योरीज भी आगे बढ़ रही हैं, लेकिन भारतीय बाबाओं के भक्त ये सब नहीं पढ़ना समझना चाहते। शून्य या अनत्ता का सिद्धांत न केवल मनोविज्ञान के लिए बल्कि भौतिक और सामाजिक विज्ञानों के लिए भी महत्वपूर्ण बनता जा रहा है।

व्यक्तित्व में आत्मनिर्णय या आत्मविकास की अंतिम जिम्मेदारी इस सिद्धांत में अंतिम रूप से ‘होश’ पर आ जाती है। अनत्ता के साथ जागरूकता और होश सबसे महत्वपूर्ण शब्द बन जाते हैं। इसके विपरीत आत्मा और ईश्वर के साथ भक्ति और समर्पण सबसे महत्वपूर्ण शब्द बन जाते हैं, इसलिए आत्मा और ईश्वर को मानने वाले दर्शन ‘ध्यान’ की बजाय ‘भक्ति’ के आधार पर समाज का निर्माण और नियंत्रण करते हैं। इस कारण वे अंधविश्वास और तानाशाही पैदा करते हैं, वे कभी विज्ञान पैदा नहीं कर पाते। इसके विपरीत अनत्ता या deconstruction की प्रतीति पर आधारित समाज होश या ‘ध्यान’ की बात करते हैं और विज्ञान सहित वैज्ञानिक सभ्यता विकसित कर पाते हैं। आधे से अधिक यूरोप ने deconstruction को बहुत अर्थों में जीना शुरू कर दिया था। देरिदा के आने के बहुत पहले वहां के दार्शनिकों ने नास्तिकता और आत्मा के निषेध की जो इबारत लिखी वो असल में deconstruction का आधार बन चुकी थी। इसी माहौल में विज्ञान पैदा हुआ और मनोविज्ञान ने पहली सांस ली।

बुद्ध की अनत्ता का नाम न लेकर भी उन्होंने अनत्ता को कई अर्थों में साकार कर दिया, इसीलिये बुद्ध की जिस तरह की समझ यूरोप के विश्वविद्यालयों में है वैसी कहीं और नहीं है। दूसरी तरफ कई बौद्ध देश जो बुद्ध की ‘पूजा’ करते हैं उन्होंने बुद्ध में ही ईश्वर का आरोपण करके ‘भक्ति’ और ‘भगवान’ पैदा कर लिया. इसीलिये एक बड़ा भारी चमत्कार हुआ पूर्व के बौद्ध देशों में.इन बौद्ध देशों ने बुद्ध को ही भगवान बनाकर शून्य और अनत्ता की वैज्ञानिक संभावनाओं की हत्या कर दी। आज उनमें और आस्तिक दर्शन को मानने वाले देशों में कोई अंतर नहीं है। शून्य और पूर्ण का झगड़ा असल में भौतिकवाद और भाववाद के झगड़े का ही एक रूप है।

भाववाद एक जहर है, जिसने भौतिक विज्ञान सहित तर्क और होश के जन्म की संभावना को बाँझ बनाये रखा। बुद्ध एक भौतिकवादी हैं। वे चार महाभूतों में भरोसा रखते हैं। पांचवां “आकाश” उनके लिए मूलभूत तत्व नहीं है। ये पांचवां तत्व ही इश्वर और आत्मा सहित पुनर्जन्म की बकवास का आधार बनता है। इस पांचवे तत्व के आते ही भौतिक और सामाजिक विज्ञानों की संभावना समाप्त हो जाती है। इस तरह अगर मनोविज्ञान और सामाजिक विज्ञानों की दिशा से बात की जाए तो बुद्ध का अनत्ता दर्शन और देरिदा का deconstruction का दर्शन भविष्य के लिए बड़े आश्वासन बनकर उभर रहे हैं। ये बात भारत की स्त्रियों और दलितों को समझनी चाहिए। इन्हीं दर्शनों में उनकी सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक मुक्ति का आश्वासन छुपा है।