खतरे में पड़ी एक प्रजाति

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एक महत्वपूर्ण जैविक प्रजाति-मानवजाति-के सामने अपने प्राकृतिक वास–स्थान के तीव्र और क्रमश: बढ़ते विनाश के कारण विलुप्त होने का खतरा है। इस समस्या के बारे में हम उस समय अवगत हो रहे हैं जब इसकी रोकथाम करने का वक्त लगभग हाथ से निकल चुका है। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण के इस भयावह विनाश के लिए उपभोक्तावादी समाज ही मुख्यत: जिम्मेदार हैं।ये समाज भूतपूर्व औपनिवेशिक महानगरों की देन हैं। वे उन साम्राज्यवादी नीतियों की सन्तान हैं जो खुद बहुसंख्यक मानवता पर कहर ढा रही गरीबी और पिछडे़पन के लिए जिम्मेदार हैं।

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दुनिया की जनसंख्या का महज 20 प्रतिशत होने के बावजूद वे दुनिया भर में धातुओं के कुल उत्पादन के दो–तिहाई और उफर्जा के कुल उत्पादन के तीन–चैथाई का उपभोग करते हैं। उन्होंने नदियों और समुद्रों में जहर घोल दिया है, हवा को प्रदूषित कर दिया है तथा ओजोन की परत को कमजोर करके उसे छेद डाला है। उन्होंने वायुमण्डल को गैसों से सन्तृप्त कर पर्यावरण में ऐसे अनर्थकारी बदलाव ला दिये हैं जिनकी मार हम पर पड़नी शुरू हो चुकी है।

पर्यावरण के रक्षक के रूप में पहचानी जाने वाली गिद्ध प्रजाति संरक्षण के अभाव में पूरे देश से समाप्त होने की कगार पर खड़ी है। एक अनुमान के मुताबिक 40 साल पहले जहां देश में लगभग चार करोड़ गिद्ध थे तो अब चार लाख भी नहीं बचे हैं। गिद्धों की संख्या में आयी इस तेज़ गिरावट के बाद सरकार की नींद टूटी है और वह इनकी संख्या बढ़ाने के विभिन्न उपायों पर काम कर रही है।

जंगल खत्म होते जा रहे हैं। रेगिस्तानों का विस्तार हो रहा है। अरबों टन उपजाउफ मिट्टी हर साल बहकर समुद्र में चली जाती है। बहुत सारी प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। जनसंख्या का दबाव और गरीबी में भी जीने की विवशता आदमी को निराशोन्मत्त प्रयासों की ओर धकेलती है, यहाँ तक कि प्रकृति के विनाश की कीमत पर भी। तीसरी दुनिया के देशों– यानि कल के उपनिवेश और आज के राष्ट्र जो एक अन्यायपूर्ण आर्थिक विश्व–व्यवस्था में शोषण और लूट के शिकार हैं– को इस सबके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

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इसका समाधान यह नहीं हो सकता कि उन देशों का ही विकास रोक दिया जाये जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। क्योंकि आज अल्पविकास और गरीबी को बढ़ाने वाला हर कारक पर्यावरण के साथ जघन्य बलात्कार है।परिणामस्वरूप, तीसरी दुनिया में हर साल कारोड़ों औरत–मर्द और बच्चे काल के गाल में समा जाते हैं। दोनों में से किसी विश्वयुद्ध में इतने लोग नहीं मारे गये।

असमान व्यापार, संरक्षणवाद और विदेशी कर्ज पर्यावरण–सन्तुलन पर घातक प्रभाव डालते हैं और उसके विनाश को बढ़ावा देते हैं। यदि हम मानवजाति को इस आत्मघात से बचाना चाहते हैं तो पूरी पृथ्वी पर धन–दौलत और उपलब्ध तकनीक का बेहतर तरीके से वितरण करना होगा। कुछ देशों में ऐशोआराम और बर्बादी में कटौती करने का मतलब होगा– अधिकांश विश्व में कम गरीबी और कम भुखमरी।

पर्यावरण को तबाह करने वाली जीवन शैली और उपभोग की आदतों का तीसरी दुनिया को निर्यात बन्द करो। मानव जीवन को और ज्यादा तर्कसंगत बनाओ। एक अधिक न्यायसंगत आर्थिक विश्व–व्यवस्था अपनाओ। प्रदूषण रहित टिकाउफ विकास के लिए विज्ञान को आधार बनाओ। विदेशी कर्ज की जगह पर्यावरण का कर्ज चुकाओ। भूख को हटाओ, मानव जाति को नहीं।

आज जब कम्युनिज्म का तथाकथित खतरा नहीं रह गया है और शीतयुद्ध या हथियारों की होड़ और भारी–भरकम सैन्य खर्चों को जारी रखने का भी कोई बहाना नहीं बचा है, फिर वह क्या चीज है जो तमाम संसाधनों को तेजी से तीसरी दुनिया के विकास को प्रोत्साहित करने में लगाने और हमारे ग्रह के सामने मौजूद पर्यावरण को विनाश के खतरे का मुकाबला करने से हमें रोक रही है ?

स्वार्थपरता बहुत हो चुकी। दुनिया पर वर्चस्व कायम करने के मंसूबे बहुत हुए। असंवेदनशीलता, गैरजिम्मेदारी और फरेब की हद हो चुकी है। जिसे हमें बहुत पहले ही करना चाहिए था, उसे करने के लिए कल बहुत देर हो चुकी होगी।

—– फिदेल कास्त्रो