गांधी जी का असहयोग आन्दोलन

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शिव कुमार शुक्ला

1920 के कलकत्ता अधिवेशन के बाद गांधीजी कांग्रेस के अर्वप्रमुख नेता और पथप्रदर्शक बन गए।सीधी, सरल, किन्तु असीम शक्ति से युक्त गांधी पक्की कल्पनाशक्ति के धनी थे।निहायत अनपढ़ से अनपढ़ आदमी भी उनकी हर योजना को कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक समझ लेता था।उनका अनुयायी बनने के लिए किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रशिक्षण की जरूरत नहीं थी।सत्याग्रह और हड़ताल के बाद उन्होंने एक अहिंसक हथियार खोजा जिसे उन्होंने ‘ असहयोग’ कहा।असहयोग की शुरुआत गांधी ने स्वयं वाइसराय के सामने जाकर बोअर युद्ध में उन्हें मिले पदकों को वापस करके की।उन्होंने वायसराय को चेतावनी दी कि मैं आपके खिलाफ आंदोलन तेज करने जा रहा हूँ।उन्होंने केवल एक आधी धोती और साल को अपनी दैनिक पोशाक के रूप में स्वीकार किया।इससे खादी की प्रतिष्ठा पूरे देश में आसमान पर पहुंच गई।छोटे बड़े ,अमीर गरीब सब खादी पहनकर भाई भाई हो गए।

गांधी हर जगह,गली मोहल्लों में जाकर जनता को ललकारने लगे ” पहनो स्वदेशी फेंको विदेशी” अभी फेंको इसी समय फेंको ।हम उसे जलाएंगे।लोग इतने भावविह्लल हो जाते कि खड़े खड़े अपने बदन के सारे विदेशी कपड़े उतार फेंकते। जैसे अभी अभी पैदा हुए हों। गांधी मुस्कराते और ढेर में आग लगा देते।अंग्रेजों में गहरी प्रतिक्रिया हुई अंग्रेज अफसर वाइसराय से गाँधी को गिरफ्तार करने की मांग करने लगे। वाइसराय ने कहा अभी नहीं क्योंकि इस बुढऊ को अभी गिरफ्तार किया तो इसकी प्रसिद्धि बढ़ जाएगी और हमारे लिए समस्या खड़ी हो जाएगी।जो भारतीय उपनिवेशवाद का खत्म करना चाहते थे उनसे आग्रह किया गया कि वे स्कूलो, कॉलेजो और न्यायालय न जाएँ तथा कर न चुकाएँ। संक्षेप में सभी को अंग्रेजी सरकार के साथ ;सभी ऐच्छिक संबंधो के परित्याग का पालन करने को कहा गया। गाँधी जी ने कहा कि यदि असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा।अपने संघर्ष का और विस्तार करते हुए उन्होंने खिलाफत आन्दोलन‎ के साथ हाथ मिला लिए जो हाल ही में तुर्की शासक कमाल अतातुर्क द्वारा समाप्त किए गए सर्व-इस्लामवाद के प्रतीक खलीफ़ा की पुनर्स्थापना की माँग कर रहा था। इस तरह गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन की शुरुआत 1अगस्त 1920 से की गयी।

गाँधी जी ने यह आशा की थी कि असहयोग को खिलाफ़त के साथ मिलाने से भारत के दो प्रमुख समुदाय- हिन्दू और मुसलमान मिलकर औपनिवेशिक शासन का अंत कर देंगे। इन आंदोलनों ने निश्चय ही एक लोकप्रिय कार्रवाही के बहाव को उन्मुक्त कर दिया था और ये चीजें औपनिवेशिक भारत में बिलकुल ही अभूतपूर्व थीं। विद्यार्थियों ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर दिया। कई कस्बों और नगरों में श्रमिक-वर्ग हड़ताल पर चला गया। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुई जिनमें 6 लाख श्रमिक शामिल थे और इससे 70 लाख कार्यदिवसों का नुकसान हुआ था। देहात भी असंतोष से आंदोलित हो रहा था। पहाड़ी जनजातियों ने वन्य कानूनों की अवहेलना कर दी। अवधि के किसानों ने कर नहीं चुकाए। कुमाउँ के किसानों ने औपनिवेशिक अधिकारियों का सामान ढोने से मना कर दिया। इन विरोधि आंदोलनों को कभी-कभी स्थानीय राष्ट्रवादी नेतृत्व की अवज्ञा करते हुए कार्यान्वयित किया गया। किसानों, श्रमिकों और अन्य ने इसकी अपने ढंग से व्याख्या की तथा औपनिवेशिक शासन के साथ ‘असहयोग’ के लिए उन्होंने ऊपर से प्राप्त निर्देशों पर टिके रहने के बजाय अपने हितों से मेल खाते तरीकों का इस्तेमाल कर कार्रवाही की।

महात्मा गाँधी के अमरीकी जीवनी-लेखक लुई फ़िशर ने लिखा है कि ‘असहयोग भारत और गाँधी जी के जीवन के एक युग का ही नाम हो गया। असहयोग शांति की दृष्टि से नकारात्मक किन्तु प्रभाव की दृष्टि से बहुत सकारात्मक था। इसके लिए प्रतिवाद, परित्याग और स्व-अनुशासन आवश्यक थे। यह स्वशासन के लिए एक प्रशिक्षण था।’ 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन के अंग्रेजी राज की नींव हिल गई।

चौरी-चौरा काण्ड –

फ़रवरी 1922 में किसानों के एक समूह ने संयुक्त प्रांत के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा पुरवा में एक पुलिस स्टेशन पर आक्रमण कर उसमें आग लगा दी। इस अग्निकांड में कई पुलिस वालों की जान चली गई। हिंसा की इस कार्यवाही से गाँधी जी छुब्ध हो गए उन्होंने कहा कि लोग शायद अभी अहिंसा की असली ताकत को पहचान नहीं पाए हैं। उन्होंने यह आंदोलन तत्काल वापस लेने की घोषणा कर दी। उन्होंने जोर दिया कि, ‘किसी भी तरह की उत्तेजना को निहत्थे और एक तरह से भीड़ की दया पर निर्भर व्यक्तियों की घृणित हत्या के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है’।आंदोलन वापस लेने से कांग्रेस के कई नेता गांधी से नाराज हो गए और गांधी की छवि कमजोर पड़ने लगी।स्थिति कमजोर होने से अंग्रेजों को गांधी को गिरफ्तार करने का मौका मिल गया । अदालत ने उनपर विद्रोह फैलाने का आरोप लगाकर 6 साल के लिए पूना के पास यरवदा जेल में भेज दिया।