क्या धरती की कोख सोखने को तैयार
क्या धरती की कोख सोखने को तैयार

[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”इस समाचार को सुने”]

क्या धरती की कोख सोखने को तैयार

इस समय भारत गंभीर जल संकट से जूझ रहा है। साफ पानी न मिलने के कारण हर साल दो लाख लोग जान गवां रहे हैं। देश के करीब 60 लाख लोग पानी की गंभीर किल्लत का सामना कर रहे हैं। वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि बढ़ती आबादी के कारण 2030 तक भारत में पानी की मांग उपलब्धता से दोगुनी हो जाएगी। 2030 के बाद ये संकट और भी ज्यादा गहरा सकता है।

भारत की जीडीपी में 6 प्रतिशत तक कमी आ सकती है। इन सभी समस्याओं के बीच उत्तर प्रदेश में पांच करोड़ यूकेलिप्टिस के पौधे लगाने का निर्णय धरती की कोख को सोखने की तैयारी करने के समान प्रतीत हो रहा है। जिससे पानी की भीषण कमी झेल रहे उत्तर प्रदेश में निकट भविष्य में पानी की और बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। जिसका नुकसान आसपास के इलाकों को भी उठाना पड़ेगा।

वर्ष 1951 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 54 लाख 10 हजार लीटर थी, जो 40 साल बाद वर्ष 1991 में घटकर 23 लाख 1 हजार लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष रह गई। वर्ष 2001 में पानी की उपलब्धता प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 19 लाख 2 हजार लीटर, जो वर्ष 2011 में घटकर 15 लाख 88 हजार लीटर पर पहुंच गई, लेकिन बढ़ती आबादी और संसाधनों का इसी प्रकार दोहन होता रहा तो, वर्ष 2025 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता केवल 13 लाख 99 हजार लीटर ही रह जाएगी।

यह भी पढे- धरती की कोख में रहेगा भरपूर पानी

यूकेलिप्टिस प्रजाति के फूलदार वृक्ष आस्ट्रेलिया में प्रमुख हैं। आस्ट्रेलिया में यूकेलिप्टिस की छह सौ से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। यूकेलिप्टिस का पेड़ काफी तेजी से बढ़ता है और इसके तेल का इस्तेमाल सफाई और प्राकृतिक कीटनाशक आदि के रूप में किया जाता है। यूकेलिप्टिस को नीलगिरी भी कहा जाता है। जिसके फूल में काफी मात्रा में रस पैदा होता है, जो कीट, पक्षी, चमगादड़ और पाॅसम सहित अनेक सेचन करने वालों के भोजन के काम आता है। नीलगिरी की लकड़ी काफी लंबी, टिकाऊ और मजबूत होती है। इसकी लकड़ी पर पानी का भी कोई असर नहीं होता है। जिस कारण लकड़ी की बाजार में काफी मांग रहती है और आय भी अधिक होती है। ब्राजील की अर्थव्यवस्था को तो यूकेलिप्टिस से काफी फायदा भी हुआ था।


ऑस्ट्रेलिया भी यूकेलिप्टिस के काफी आर्थिक लाभ उठा रहा है। आर्थिक दृष्टि से फायदेमंद होने के कारण अफ्रीका, अमेरिका, एशिया और यूरोप के 50 से ज्यादा देशों में यूकेलिप्टिस के पेड़ हैं। भारत में भी अब धीरे-धीरे किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर यूकेलिप्टिस के पौधों को लगाया गया और अब उत्तरप्रदेश वन विभाग भी पांच करोड़ यूकेलिस्टिस के पौधे लगाने की तैयारी में है। जिससे भूजल स्तर कम होने की आशंका से पर्यावरणविदो में हड़कंप मचा हुआ है। पर्यावरणविदों का मानना है कि बेशक यूकेलिप्टिस की खेती से काफी धन अर्जित किया जा सकता है, लेकिन धन-अर्जन के लाभ की इस दौड़ में यूकेलिप्टिस से होने वाले नुकसान को नजर अंदाज किया जा सकता है।

यह भी पढे- धरती की कोख में रहेगा भरपूर पानी

क्या धरती की कोख सोखने को तैयार

पानी सहेजने के लिए भांति-भांति के जलाशयों का निर्माण हमारे पुरखों की एक बड़ी विशेषता थी। देश के विभिन्न इलाकों में बारिश की मात्रा, मिट्टी की प्रकृति आदि के हिसाब से जलाशयों का निर्माण किया जाता था। हर दिन के इस्तेमाल के लिए यही हमारे पानी के भंडार थे। नदी किनारे रहने वाले लोग भी पानी के लिए रोज-रोज नदी तक नहीं जाते थे, बल्कि पोखर ही उनके लिए नजदीकी जल भंडार थे। समाज व्यवस्था में जलाशयों की देखरेख के लिए खास दिशा-निर्देश हुआ करते थे। जिसके चलते ही अंग्रेजी शासन कि तमाम दुर्दशाओं के बावजूद आजादी मिलने के बाद तक लगभग हर गांव में एक से ज्यादा तालाब मौजूद थे।

भारत जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों में 120वें पायदान पर है। यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के 180 करोड़ लोग पूरी तरह से दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। दूषित पानी पीने के कारण दुनिया भर में हर साल 8 लाख 42 हजार लोगों की मौत होती है। भारत में भी पानी की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। भारत के जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ो के अनुसार वाॅटर रिचार्ज न होने के कारण देश के 18 राज्यों का भूजल स्तर काफी तेजी से कम हो रहा है। सबसे बुरा हाल तमिलनाडु का है, जहां 374 इलाकों में भूमिगत जल काफी कम हो चुका है।

सेंट्रल वाॅटर कमीशन की बीते वर्ष आई रिपोर्ट के अनुसार देशभर के 91 बड़े जलाशयों में 59 प्रतिशत पानी सूख चुका है। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश के 31 जलाशयों में पानी 80 प्रतिशत तक कम हो गया है। तेलंगाना में दो बड़े जलाशयों में 62 प्रतिशत पानी बचा है, जबकि केरल के सभी बड़ें जलाशयों में पानी 50 प्रतिशत तक कम हो चुका है। केरल का दूसरा सबसे बड़ा जलाशय 94 प्रतिशत तक सूख गया है, जो हर तरफ से पानी से लबालब भरे केरल की एक भयावह तस्वीर बयां करते हैं।

पानी को स्वच्छ रखना समाज का संस्कार है, लेकिन ये संस्कार हमारे देश से गायब होता जा रहा है। जिस कारण भारत की संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखने वाले गांव के लोग आज बूंद बूंद पानी का तरस रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था वाटर ऐड के मुताबिक ग्रामीण भारत में 6 करोड़ 30 लाख लोगों की पहुंच साफ पानी तक नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के दस प्रतिशत प्यासे भारत के ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, जो वैश्विक स्तर पर भारत की एक भयावह तस्वीर को प्रदर्शित करती है, लेकिन हमारी सरकार और प्रशासन विकराल होती पानी की समस्या के प्रति गंभीर नहीं दिख रहे हैं, जिसका अंदाजा यूपी में यूकेलिप्टिस के पेड़ो को लगाने के निर्णय से लगाया जा सकता है।

यह भी पढे- गुणों की खान है अगस्ति, जानें फायदे…

क्या धरती की कोख सोखने को तैयार

कम हो रही पानी की उपलब्धता वर्ष 1951 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 54 लाख 10 हजार लीटर थी, जो 40 साल बाद वर्ष 1991 में घटकर 23 लाख 1 हजार लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष रह गई। वर्ष 2001 में पानी की उपलब्धता प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 19 लाख 2 हजार लीटर, जो वर्ष 2011 में घटकर 15 लाख 88 हजार लीटर पर पहुंच गई

बढ़ती आबादी और संसाधनों का इसी प्रकार दोहन होता रहा तो, वर्ष 2025 में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता केवल 13 लाख 99 हजार लीटर ही रह जाएगी। यानी 2025 में भारत में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 3 हजार 800 लीटर पानी उपलब्ध होगा। साल 2050 में स्थिति और भी भयावह हो जाएगी और वर्ष 2050 तक पूरी दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी पानी की कमी वाले इलाकों में रहेगी।

दरअसल यूकेलिप्टिस की जड़ें जमीन में काफी गहराई तक जाती हैं और अन्य वृक्षों की अपेक्षा कई गुना जल सोखती हैं। जिस कारण मुख्यताः ऑस्ट्रेलिया और चीन में दलदल भूमि को सामान्य भूमि में परिवर्तित करने के लिए यूकेलिप्टिस के पेड़ लगाएं जाते हैं। लेकिन इसकी पत्तियों से वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया भी काफी तेजी से होता है। पेड़ों की संख्या अधिक होने से भू-जलस्तर में कमी आने लगती है। इससे भूमि की उर्वरता क्षमता प्रभावित होती है और भूमि बंजर होने लगती है। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार और वन विभाग दोनों ने ही इस ओर ध्यान दिए बिना ही 22 करोड़ पौधों का रोपण करने का निर्णय लिया, जिसमें पांच करोड़ यूलेलिप्टिस के पेड़ शामिल किये गए हैं।

हालांकि 22 करोड़ पौधे लगाने का निर्णय काफी सकारात्मक पहल है, लेकिन यूकेलिप्टिस के स्थान पर सागौन, पोपलर, नीम, पीपल, बरगद आदि के मिश्रित प्रजातियों के पौधे लगाये जाने चाहिए, जिससे भूजल स्तर को बनाए रखा या रिचार्ज किया जा सके, जो भारत में सूखते जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित कर भूमिगत जलस्तर को रिचार्ज करने में निश्चित रूप से सहायक सिद्ध होंगे। जिससे केवल सरकारी विभाओं के ही नहीं बल्कि जनभागीदारी से ही संभव बनाया जा सकता है।

आज समाज में एक दुर्भाग्यपूर्ण धारणा अगर यह बन गई है कि जलसंकट जैसी चीजों से पार पाना सिर्फ सरकार का काम है, तो कुछ अंश में यह बात सही भी है, क्योंकि पारंपरिक जलसंरक्षण व्यवस्था सरकारी हस्तक्षेप की वजह से ही ज्यादा छिन्न-भिन्न हुई है। गांव के तालाबों वाली हर प्रकार की जल संरक्षण की व्यवस्थाओं को पुराने जमाने की और अस्वास्थ्यकर कह कर उपेक्षा का शिकार बनाया गया। देखरेख के अभाव में जलाशय नष्ट होने ही थे। स्थानीय जल संरक्षण के बदले किसी अनिर्धारित दूरी से भेजे गए नल के पानी पर लोग निर्भर होते गए।

जल,जमीन और जंगल का प्रबंधन जरूरी है

भारत में बड़े-बड़े डैम का निर्माण खेती के नाम पर तो होता है लेकिन इनका प्रयोग उद्योगों और बिजली उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पश्चिम उत्तर प्रदेश के कालागढ़ में रामगंगा नदी पर बांध बनाए जाने की वजह से रामगंगा नदी नाले की तरह पतली हो गई है और साथ ही आसपास की करीब 13 नदियां सूख गई हैं। कभी 20 से 30 फीट नीचे खुदाई पर मिल जाने वाला पानी अब 70 फीट से भी ज्यादा की गहराई पर भी नहीं मिलता है। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन समेत कम बारिश भी जिम्मेदार है। साथ ही, लोगों में जागरूकता की कमी और पेड़ों की बेलगाम कटाई भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है। इसके लिए अभी गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत है। पानी के संचय और संरक्षण के लिए जल, जमीन और जंगल के प्रबंधन की खास जरूरत है। साथ ही, निजी तौर पर हमें पानी के उचित उपयोग की और बर्बादी से बचने की जरूरत है। साथ ही, बांधों पर चेक लगाने की आवश्यकता है। जल संसाधनों को फ़िल्टर और डीसैलिनेशन जैसी तकनीक को भी इस्तेमाल करना चाहिए। सबसे बड़ी बात वर्षा के पानी के संरक्षण की जरूरत है। इसे जमा करके भूजल स्तर को बढ़ाया जा सकता है। साथ ही, बोरवेल आदि की खुदाई के लिए 400 फीट की गहराई निश्चित की जानी चाहिए।

[/Responsivevoice]