जानें न्यायाधीशों का मनोनयन कॉलेजियम से कितना निष्पक्ष

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लोकसेवकों के चयन के लिए यूपीएससी,पीएससी, यूपीएसएसएससी,एसएससी की प्रतियोगी परीक्षा तो न्यायाधीशों का मनोनयन कॉलेजियम से कितना निष्पक्ष व न्यायसंगत।“उच्च न्यायपालिका में समानुपातिक प्रतिनिधित्व से ही कायम हो सकती है न्यायपालिका की निष्पक्षता”।

चौ.लौटनराम निषाद

लखनऊ। राष्ट्रीय निषाद संघ के राष्ट्रीय सचिव चौ.लौटनराम निषाद ने लोकसेवा आयोग, उत्तर प्रदेश अधीनस्थ कर्मचारी सेवा चयन आयोग, संघ लोकसेवा आयोग,कर्मचारी चयन आयोग आदि की भर्तियों में कट ऑफ मार्क्स के आधार पर कोटा निर्धारण की मांग की है।ओबीसी,एससी,एसटी की कट ऑफ सामान्य या अनारक्षित के ऊपर हो तो उनका समायोजन अनारक्षित में होना चाहिए न कि उनके निर्धारित कोटे में,अन्यथा इसे तो सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित माना जायेगा।उन्होंने कहा कि ओबीसी,एससी, एसटी की मेरिट हमेशा सामान्य व ईडब्ल्यूएस से कम पर बनाना न्यायसंगत होगा।

यूपीएससी, पीएससी की कई प्रतियोगी परीक्षाओं के कट ऑफ को देखा जाय तो सामान्य व ईडब्ल्यूएस से अधिक की बनाई गईं, जो असंवैधानिक व नैसर्गिक न्याय के प्रतिकूल है।ओवरलैपिंग व्यवस्था को खत्म करना बिल्कुल पक्षपातपूर्ण व अन्यायपरक निर्णय है।उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को लोकतंत्र का सर्वोच्च स्तम्भ कहा जाता है।लोकसेवकों का चयन यूपीएससी, पीएससी, यूपीएसएसएससी, एसएससी की 2 व 3 स्तरीय प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से किया जाता है तो उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों का कॉलेजियम से मनोनयन क्यों और क्या यह संवैधानिक व नैसर्गिक न्याय के अनुकूल है।

भारत की न्यायपालिका के आंकड़े सिद्ध करते है कि भारत की न्यायिक प्रणाली में सिर्फ कुछ घरानों का ही कब्ज़ा रहा गया है।साल दर साल इन्ही घरानों से आये वकील और जजों के लड़के /लड़कियां ही जज बनते रहते हैं। जिस व्यवस्था के तहत सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियां की जातीं हैं उसे “कॉलेजियम सिस्टम” कहा जाता है।कॉलेजियम सिस्टम का भारत के संविधान में कोई जिक्र नही है। यह सिस्टम 28 अक्टूबर 1998 को 3 जजों के मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के जरिए प्रभाव में आया था। कॉलेजियम सिस्टम में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों का एक फोरम जजों की नियुक्ति और तबादले की सिफारिश करता है। कॉलेजियम की सिफारिश दूसरी बार भेजने पर सरकार के लिए मानना जरूरी होता है। कॉलेजियम की स्थापना सुप्रीम कोर्ट के 5 सबसे सीनियर जजों से मिलकर की जाती है।


निषाद ने बताया कि उत्तर प्रदेश में सत्ता पक्ष के 90 ओबीसी, 66 एससी/एसटी के विधायक हैं, जिनके अंदर तनिक भी वर्गीय चेतना होती तो सरकार बैकपुट पर आ जाती। उत्तर प्रदेश में एक-एक कर आये दिन पिछड़ा-दलित आरक्षण व कोटा विरोधी निर्णय आ रहा है, पर भाजपा व सहयोगी दल के सभी के सभी मंत्री,विधायक गूंगे-बहरे बन चुप्पी साधे हुए हैं।जिस दिन उत्तर प्रदेश के पिछड़े-दलित विधायकों का ज़मीर जाग जाएगा और उनके अंदर वर्गीय संवेदना पैदा हो जायेगी, उसी दिन योगी सरकार का जातिवादी निर्णय बन्द हो जायेगा।उत्तर प्रदेश सरकार में ओबीसी,एससी के मंत्रियों को महत्वहीन पद देकर दोयमदर्जे का बर्ताव किया गया है,मलाईदार विभाग सवर्ण जातियों में बाँटा गया है।निषाद ने उच्च न्यायपालिका में आरक्षण कोटे की मांग करते हुए कहा कि जब तक न्यायपालिका में समानुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था नहीं होगी, कॉलेजियम सिस्टम खत्म नहीं होगा, तब तक न्यायपालिका में निष्पक्षता नहीं आ सकती। उन्होंने कहा कि जब जूनियर और सीनियर ज्यूडिशियरी में आरक्षण की व्यवस्था है, तो हायर ज्यूडिशियरी में क्यों नहीं?


उन्होंने उच्च न्यायपालिका में कॉलेजियम पद्धति से न्यायाधीशों के चयन को असंवैधानिक और जातिवादी तरीका बताया।निषाद ने राष्ट्रीय न्यायिक सेवा चयन आयोग के द्वारा यूपीएससी व पीएससी प्रतियोगी परीक्षा पैटर्न पर न्यायाधीशों के चयन की मांग की है।उन्होंने कहा कि एससी/एसटी को आजादी पूर्व से ही कार्यपालिका व विधायिका में समानुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था है, लेकिन ओबीसी को मात्र कार्यपालिका में 27% आरक्षण 16 नवम्बर,1992 के इन्दिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद मिला है, जो उनकी जनसंख्या का आधा भी नहीं है।सेन्सस-1931 की जातिगत जनगणना के अनुसार ओबीसी की 52.10% आबादी थी।1999 के बाद तमाम जातियों को इस सूची में जोड़ने से यह संख्या और अधिक हो गयी है। भाजपा सरकार के समय गठित उत्तर प्रदेश सामाजिक न्याय समिति-2001 की रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की संख्या 54.05% थी।सामान्य वर्ग की जातियों की संख्या-20.94% थी, जिसमें मुस्लिम सामान्य वर्ग (शेख, सैय्यद, पठान, मुगल, मिल्की आदि) की जातियाँ भी शामिल थीं। अविभाजित उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या में सवर्ण-20.50%(ब्राह्मण-9.2%, राजपूत-7.2%, वैश्य-2.5%, कायस्थ-1.0%, भूमिहार-0.04%, खत्री-0.1%, त्यागी-0.1%) थे।अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों की संयुक्त संख्या-21.34% थी। इस दृष्टि से ओबीसी की संख्या 58.16% थी। उत्तराखंड के अलग होने से जहाँ उत्तर प्रदेश में ओबीसी व एससी की संख्या बढ़ गयी होगी, वही एसटी व सवर्ण की घट गई होगी। 1999 में जाट व कलवार को ओबीसी में शामिल करने से ओबीसी की संख्या 60% से अधिक हो गयी है।


निषाद ने कहा कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने 2011 में जातिगत जनगणना नहीं कराया,पर भाजपा सरकार ने ओबीसी का आंकड़ा घोषित नहीं किया।सेन्सस-2021 में ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने का वादा करने के बाद भाजपा सरकार पीछे हट गई है, जो अवैधानिक है। आखिर ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने से कौन सी राष्ट्रीय क्षति हो जाएगी।सेन्सस-2011 के अनुसार एससी, एसटी, धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, रेसलर) के साथ ही साथ दिव्यांग व ट्रांसजेंडर की जनसंख्या की घोषणा कर दी गयी, पर ओबीसी की जनसंख्या घोषित नहीं की गई।