राजनीति के महारथी-मुलायम सिंह यादव

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मधुकर त्रिवेदी

माजवादी आंदोलन के महानायक डा0 राम मनोहर लोहिया और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के विचारों से प्रभावित होकर श्री मुलायम सिंह यादव ने राजनीति की शुरूआत की। वे राष्ट्रीय राजनीति की मुख्य भूमिका में रहे। इसकी पृष्ठभूमि में उनकी दीर्घकालीन संघर्ष यात्रा है। वे खुद कहते थे कि संकल्प, साहस और संघर्ष के बूते ही सफल हुआ जा सकता है। उनके पूरे जीवन पर गौर करें तो पायेंगे कि उनकी ताकत उनका धारा के विपरीत तैरने का साहस है। जब-जब वे चुनौतियों से रूबरू हुए थे, वे शक्तिमान की भूमिका में उतर आए। साहसिक निर्णय लेने पर उनका व्यक्तित्व अलग निखरता रहा है। याद करिए 15 वर्ष की उम्र में नहर रेट आन्दोलन में जेल यात्रा। बड़े-बूढ़े और मजिस्टेªट घर जाने को कह रहे थे पर यह लड़का निर्भय जेल जाने को तैयार। 1953 ई0 में दलित गंगा प्रसाद जाटव के घर खाना खा आए तो सामाजिक बहिष्कार की नौबत आ गयी। एक बाल्मीकि के घर भी बेहिचक दावत खा आए। यह तबकी बात है जब जाति की जंजीरें हिलाने की कोई हिम्मत नहीं करता था। यह बड़ी जोखिम का काम था।

बचपन से चुनौती लेने और अपनी बात मनवाने वाले किशोर को पिताश्री श्री सुघर सिंह ने ठीक ही पहलवानी के दंगल में उतारा था। इससे एक तो मिट्टी से उनका गहरा रिश्ता जुड़ा और दूसरे दांवपेंच सीखकर दंगल में अपने से बड़े पहलवानों को चित करने का जज्बा भी मजबूत हुआ। 1958 में हाईस्कूल परीक्षा पास करते ही विवाह हो गया। तब भी वे पढ़ाई से विरत नहीं हुए। कालेज छात्रसंघ के अध्यक्ष बने। बीटी करके कालेज में नागरिक शास्त्र के प्रवक्ता बने। सैफई गांव, जहां वे पैदा हुए, इटावा जो कर्मभूमि बनी, से लखनऊ और फिर दिल्ली तक की यह यात्रा सड़क से संसद तक की संघर्ष यात्रा है। इस बीच उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आये। जय-पराजय दोनों का स्वाद उन्होंने चखा। लेकिन गांव-गरीब, किसान- नौजवान के मसलों से वे हमेशा जुड़े रहे। उनके प्रशंसक उन्हें धरती पुत्र कहते हैं, वे नारा लगाते हैं- ‘जिसने कभी न झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम है।’


सन् 1967 में सबसे कम उम्र के विधायक मुलायम सिंह यादव 1977 में सहकारिता मंत्री बने। सहकारिता आंदोलन को नौकरशाही के जकड़न से अलग करने के कई निर्णय लिये। 5 दिसम्बर 1989 को जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब उनके सामने कई चुनौतियां थी। समस्यायें मुंह बाये खड़ी थी। केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनते ही छल प्रपंच की राजनीति का विद्रूप सामने आने लगा था। घटकवाद का झगड़ा तो था ही, बदहाल उत्तर प्रदेश की पटरी से उतरी विकास गति को भी रास्ते पर लाने का काम था। साम्प्रदायिकता का उन्माद फैलने लगा था। टिकैत का किसान आंदोलन कानून व्यवस्था को ललकार रहा था।

खुद को केन्द्र की कठपुतली न बनने देने के संकल्प के साथ श्री मुलायम सिंह यादव साम्प्रदायिकता के खिलाफ जंग को राष्ट्रीय मंच पर इस तरह पेश किया कि वे धर्मनिरपेक्षता के जुझारू सेनापति के रूप में विख्यात हो गए। कारसेवकों के साथ राममन्दिर-बाबरी मस्जिद का मुद्दा गरमा गया था। अल्पसंख्यक भयभीत थे। तभी 7 मई 1990 को अयोध्या में राममन्दिर के शिलान्यास की घोषणा हुई। स्वामी स्वरूपानन्द (जगद्गुरू शंकराचार्य) की गिरफ्तारी अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाने का काम था। 30 अक्टूबर को अयोध्या में कार सेवा ऐलान के साथ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा चल पड़ी थी।


स्थितियां विषम थीं किन्तु श्री मुलायम सिंह ने तब साफ कहा कि ‘हम जीतें या हारें, सरकार में रहे, न रहें, धर्मनिरपेक्षता हमारा मुद्दा है। हम इसकी लड़ाई लड़ते रहेंगे।’’ आज भी उनका मत यही है कि देश कानून से चलेगा, आस्था से नहीं। संविधान की रक्षा के लिए जब उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलवाई तो वे धर्मनिरपेक्ष ताकतों के सबसे प्रिय नेता बन गए। 1991 ई0 में जब कल्याण सिंह की सरकार बनी तो बकौल श्री चन्द्रशेखर विरोधियों ने उनकी राजनीतिक अन्त्येष्टि ही करने का इरादा कर लिया था। श्री मुलायम सिंह यादव ने बहुजन समाज पार्टी के साथ दुबारा सरकार बनाई पर वह कांशीराम और मायावती की हठधर्मी राजनीति का शिकार हो गई। 4 दिसम्बर 1993 को श्री मुलायम सिंह यादव फिर मुख्यमंत्री बने और दो वर्ष तक सरकार चली। फिर 29 अगस्त 2003 से 12 मई 2007 तक मुख्यमंत्री रहे। 01 जून 1996 से 19 मार्च 1998 तक देश के रक्षा मंत्री रहे।


मुलायम सिंह ने अपने कार्यकाल में सिविल सेवाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की। रक्षा मंत्री के रूप में सैनिक शहीदों के अन्तिम संस्कार का इंतजाम कराया। पहले सैनिक के घर उसकी टोपी, मेडल ही जाती थी। नेताजी ने विधवाओं को पति के अन्तिम दर्शन करने की व्यवस्था की।इसमें दो राय नहीं कि मुलायम सिंह यादव रचना और विध्वंस दोनों के मास्टर माइंड हैं। अगर कोई गलत निर्णय लिया तो साहस के साथ उसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने में भी उन्हें गुरेज नहीं होता है। पिछड़े वोटों को जुटाने में अगर कल्याण सिंह को साथ लिया तो गलती का एहसास होते ही उसके लिए सार्वजनिक रूप से माफी भी मांग ली। अमर सिंह कभी नाक के बाल थे, उनकी अति महत्वाकांक्षा से पार्टी का नुकसान होते देखा तो उनसे किनारा भी कर लिया। मो0 आजम खां और बेनी वर्मा कुछ समय तक रूठे रहे तो उनको मनाकर साथ लेने में भी हिचके नहीं।


भाजपा की साम्प्रदायिकता का समाजवादी पार्टी द्वारा नवम्बर 1992 में गठन के साथ ही विरोध शुरू किया गया। फासीवादी ताकतों को दिल्ली पर कब्जा करने से रोकने में समाजवादी पार्टी और श्री मुलायम सिंह यादव की भूमिका से सभी परिचित हैं। आजीवन वे समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई लडते़ रहे। उनके विरोधी भी इस मायने में उनके कायल रहे हैं। अलोकप्रिय होने का खतरा उठाकर भी उन्होंने कभी साम्प्रदायिक तत्वों के सामने कमजोरी नहीं दिखाई। वे कहते हैं कि मुस्लिमों के हक में साथ में इसलिए खड़े होते हैं कि वे कमजोर हैं और जुल्म के शिकार हैं। सच्चर कमेटी ने उनकी हालत दलितों से भी बदतर बताई है। बिना अल्पसंख्यकों को साथ लिये बिना समाज में समता और संतुलन नहीं बना रह सकता है। मुस्लिम ही क्यों वे पिछड़ोे और महिलाओं को भी आरक्षण देने के हामी रहे। सामाजिक न्याय को अमली जामा पहनाने के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे। वे सामाजिक सद्भाव और एकता के पक्षधर रहे। उनकी चिन्ता के केन्द्र में गांव, गरीब, किसान और कमजोर वर्ग के लोग रहे हैं। इतना तो उनके समर्थक और विरोधी दोनों ही मानते हैं कि राजनीति की शतरंज का उनसे बड़ा खिलाड़ी कोई और नहीं है। विरोधी को विरोधी के ही दांव से चित करने में उन्हें महारथ हासिल थी। उन्हें भूलना आसान नहीं होगा।

–(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)