उत्तर भारत के परियार ललई सिंह यादव

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उत्तर भारत के परियार ललई सिंह यादव
उत्तर भारत के परियार ललई सिंह यादव

ब्यूरो निष्पक्ष दस्तक

भारत में जब-जब क्रांतियां हुई है तब-तब उनमें दलित पिछड़े समाज के महापुरुषों ने बढ़ चढ़कर अपनी अहम भूमिका निभाई है। इसी में एक है उत्तर भारत के पेरियार कहे जाने वाले ललई सिंह यादव इनका जन्म 1 सितम्बर 1911 को हुआ था। पेरियार एक सामाजिक ऐक्टिविस्ट थे। जिन्होने सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष किया और उसके लक्ष्य के लिए अनेक पुस्तकों की रचना की जो अत्यन्त विवादित रहीं। इसीलिए ललई सिंह यादव को उत्तर भारत का ‘पेरियार’ कहा जाता है। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले के कठारा ग्राम में एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था। पिता चौ. गुज्जू सिंह यादव एक कर्मठ आर्यसमाजी थे। इनकी माता श्रीमती मूलादेवी, उस क्षेत्र के जनप्रिय नेता चै. साधौ सिंह यादव निवासी ग्रा. मकर दादुर रेलवे स्टेशन रूरा, जिला कानपुर की साध्वी पुत्री थी। इनके मामा चौ.नारायण सिंह यादव धार्मिक और समाज सेवी कृषक थे। पुराने धार्मिक होने पर भी यह परिवार अंधविश्वास रूढि़यों के पीछे दौड़ने वाला नहीं था। ललई सिंह यादव ने सन् 1928 में हिन्दी के साथ उर्दू लेकर मिडिल पास किया। सन् 1929 से 1931 तक फाॅरेस्ट गार्ड रहे। 1931 में ही इनका विवाह श्रीमती दुलारी देवी पुत्री चौ.सरदार सिंह यादव ग्रा.जरैला निकट रेलवे स्टेशन रूरा जिला कानपुर के साथ हुआ। 1933 में सशस्त्र पुलिस कम्पनी जिला मुरैना (म.प्र.) में कान्स्टेबिल पद पर भर्ती हुए। नौकरी से समय बचा कर विभिन्न शिक्षायें प्राप्त की। सन् 1946 ईस्वी में नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ ग्वालियर कायम कर के उसके अध्यक्ष चुने गए।‘सोल्जर ऑफ दी वार’ ढंग पर हिन्दी में ‘‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी,जिसने कर्मचारियों को क्रांति के पथ पर विशेष अग्रसर किया। इन्होंने आजाद हिन्द फौज की तरह ग्वालियर राज्य की आजादी के लिए जनता तथा सरकारी मुलाजिमान को संगठित करके पुलिस और फौज में हड़ताल कराई जवानों से कहा कि—-बलिदान न सिंह का होते सुना,बकरे बलि बेदी पर लाए गये। उत्तर भारत के परियार ललई सिंह यादव


इस महापुरुष को दिनांक 29.03.47 ईस्वी को ग्वालियर स्टेट्स स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में पुलिस व आर्मी में हड़ताल कराने के आरोप में धारा 131 भारतीय दण्ड विधान (सैनिक विद्रोह) के अंतर्गत साथियों सहित राज-बन्दी बनाया गया। दिनांक 06.11.1947 ईस्वी को स्पेशल क्रिमिनल सेशन जज ग्वालियर ने 5 वर्ष स-श्रम कारावास तथा पाँच रूपये अर्थ दण्ड का सर्वाधिक दण्ड अध्यक्ष हाई कमाण्डर ग्वालियर नेशनल आर्मी होने के कारण दी। दिनांक 12.01.1948 ईस्वी को सिविल साथियों सहित बंधन मुक्त हुये।

बलिदान न सिंह का होते सुना, बकरे बलि बेदी पर लाए गये। विषधारी को दूध पिलाया गया,केंचुए कटिया में फंसाए गये।।
न काटे टेढ़े पादप गये,सीधों पर आरे चलाए गये। बलवान का बाल न बांका भया बलहीन सदा तड़पाये गये।।


उसी समय से यह मानव समाज की मुक्ति के लिए स्वाध्याय में जुटे गये। एक के बाद एक इन्होंने श्रुति,स्मृति,पुराण और विभिन्न रामायणें भी पढ़ी। हिन्दू शास्त्रों में व्याप्त घोर अंधविश्वास, विश्वासघात और पाखण्ड से वह तिलमिला उठे। स्थान-स्थान पर ब्राह्मण महिमा का बखान तथा दबे पिछड़े शोषित समाज की मानसिक दासता के षड़यन्त्र से वह व्यथित हो उठे। ऐसी स्थिति में इन्होंने यह धर्म छोड़ने का मन भी बना लिया। अब वह इस निष्कर्ष पर पहुंच गये थे कि समाज के ठेकेदारों द्वारा जानबूझ कर सोची समझी चाल और षड़यन्त्र से शूद्रों के दो वर्ग बना दिये गये है। एक सछूत-शूद्र, दूसरा अछूत-शूद्र, शूद्र तो शूद्र ही है। चाहे कितना सम्पन्न ही क्यों न हो। उनका कहना था कि सामाजिक विषमता का मूल, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, श्रृति, स्मृति और पुराणों से ही पोषित है। सामाजिक विषमता का विनाश सामाजिक सुधार से नहीं अपितु इस व्यवस्था से अलगाव में ही समाहित है। अब तक इन्हें यह स्पष्ट हो गया था कि विचारों के प्रचार प्रसार का सबसे सबल माध्यम लघु साहित्य ही है। इन्होंने यह कार्य अपने हांथों में लिया सन् 1925 में इनकी माताश्री, 1939 में पत्नी,1946 में पुत्री शकुन्तला (11 वर्ष) और सन् 1953 में पिता श्री चार महाभूतों ने विलीन हो गये। अपने पिता जी के इकलौते पुत्र थे। पहली स्त्री के मरने के बाद दूसरा विवाह कर सकते थे। किन्तु क्रान्तिकारी विचारधारा होने के कारण इन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया और कहा कि अगली शादी स्वतन्त्रता की लड़ाई में बाधक होगी।

इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सच्ची रामायण के पक्ष में मुकदमा जीतने के बाद पेरियार ललई सिंह दलित-पिछड़ों के नायक बन गए। ललई सिंह यादव ने 1967 में हिंदू धर्म का त्याग करके बौद्ध धर्म अपना लिया था। बौद्ध धर्म अपनाने के बाद उन्होंने अपने नाम से यादव शब्द हटा दिया। यादव शब्द हटाने के पीछे उनकी गहरी जाति विरोधी चेतना काम कर रही थी। वे जाति विहीन समाज के लिए संघर्ष कर रहे थे। पेरियार ललई ने भारतीय समाज के एक करुणापूर्ण दार्शनिक पुनर्गठन के लिए पांच प्रकार के न्याय की कल्पना की जिसमें सामाजिक न्याय, राजनीति न्याय, विधिक और आर्थिक न्याय, लैंगिक न्याय, धार्मिक और सांस्कृतिक न्याय शामिल था।


साहित्य प्रकाशन की ओर भी इनका विशेष ध्यान गया। दक्षिण भारत के महान क्रान्तिकारी पैरियार ई. व्ही. रामस्वामी नायकर के उस समय उत्तर भारत में कई दौरे हुए। वह इनके सम्पर्क में आये। जब पैरियार रामास्वामी नायकर से सम्पर्क हुआ तो इन्होंने उनके द्वारा लिखित ‘‘रामायण : ए ट्रू रीडि़ंग’’ (अंग्रेजी में) में विशेष अभिरूचि दिखाई। साथ ही दोनों में इस पुस्तक के प्रचार प्रसार की, सम्पूर्ण भारत विशेषकर उत्तर भारत में लाने पर भी विशेष चर्चा हुई। उत्तर भारत में इस पुस्तक के हिन्दी में प्रकाशन की अनुमति पैरियार रामास्वामी नायकर ने ललई सिंह को सन् 01-07-1968 को दे दी। उत्तर भारत के परियार ललई सिंह यादव

स्वयं पेरियार ललई ने छह नाटक लिखे जिनमें ‘सिपाही की तबाही’, ‘वीर संत माया बलिदान’, ‘अंगुलिमाल’, ‘शंबूक वध’, ‘एकलव्य’ और ‘नाग यज्ञ’ शामिल हैं। इन नाटकों को पढ़ते हुए आप भारतीय इतिहास की संतप्त सहस्राब्दियों से गुजरने का अनुभव प्राप्त करते हैं जो किसी भी आधुनिक और न्यायपूर्ण चित्त को उद्दिग्न करने की क्षमता रखते हैं।


इनके द्वारा लिखित पुस्तक सच्ची रामायण के हिन्दी में 01-07-1969 को प्रकाशन से सम्पूर्ण उत्तर पूर्व तथा पश्चिम् भारत में एक तहलका सा मच गया। पुस्तक प्रकाशन को अभी एक वर्ष ही बीत पाया था कि उ.प्र. सरकार द्वारा 08-12-69 को पुस्तक जब्ती का आदेश प्रसारित हो गया कि यह पुस्तक भारत के कुछ नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर चोट पहुंचाने तथा उनके धर्म एवं धार्मिक मान्यताओं का अपमान करने के लक्ष्य से लिखी गयी है। उपरोक्त आज्ञा के विरूद्ध प्रकाशक ललई सिंह ने हाई कोर्ट आफ जुडीकेचर इलाहाबाद में क्रमिनल मिसलेनियस एप्लीकेशन 28-02-70 को प्रस्तुत की। माननीय तीन जजों की स्पेशल फुल बैंच इस केस को सुनने के लिए बनाई। अपीलांट (ललई सिंह) की ओर से निःशुल्क एडवोकेट श्री बनवारी लाल यादव और सरकार की ओर से गवर्नमेन्ट एडवोकेट तथा उनके सहयोगी श्री पी.सी. चतुर्वेदी एडवोकेट व श्री आसिफ अंसारी एडवोकेट की बहस दिनांक 26, 27 व 28 अक्टूबर 1970 को लगातार तीन दिन सुनी। दिनांक 19-01-71 को माननीय जस्टिस श्री ए. के. कीर्ति, जस्टिस के. एन. श्रीवास्तव तथा जस्टिस हरी स्वरूप ने बहुमत का निर्णय दिया कि –

गवर्नमेन्ट ऑफ उ.प्र. की पुस्तक ‘सच्ची रामायण’ की जप्ती की आज्ञा निरस्त की जाती है। जप्तशुदा पुस्तकें ‘सच्ची रामायण’ अपीलांट ललई सिंह यादव को वापिस दी जाये। गर्वन्र्मेन्ट ऑफ उ.प्र. की ओर से अपीलांट ललई सिंह यादव को तीन सौ रूपये खर्चे के दिलावें जावें।


ललई सिंह यादव द्वारा प्रकाशित ‘सच्ची रामायण’ का प्रकरण अभी चल ही रहा था कि उ.प्र. सरकार की 10 मार्च 1970 की स्पेशल आज्ञा द्वारा ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ नामक पुस्तक जिसमें डाॅ. अम्बेडकर के कुछ भाषण थे तथा ‘जाति भेद का उच्छेद’ नामक पुस्तक 12 सितम्बर 1970 को चौधरी चरण सिंह की सरकार द्वारा जब्त कर ली गयी। इसके लिए भी ललई सिंह यादव ने श्री बनवारी लाल यादव एडवोकेट, के सहयोग से मुकदमें की पैरवी की। मुकदमें की जीत से ही 14 मई 1971 को उ.प्र. सरकार की इन पुस्तकों की जब्ती की कार्यवाही निरस्त कराई गयी और तभी उपरोक्त पुस्तके जनता को भी सुलभ हो सकी। इसी प्रकार ललई सिंह यादव द्वारा लिखित पुस्तक ‘आर्यो का नैतिक पोल प्रकाश’ के विरूद्ध 1973 में मुकदमा चला दिया। यह मुकदमा उनके जीवन पर्यन्त चलता रहा। और इस उत्तर भारत के पेरियार ललई सिंह यादव ने 7 फरवरी 1993 को अंतिम सांस ली ऐसे महान पुरुष की 111वीं जयंती के अवसर पर उन्हें हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएं अर्पित करते हैं। उत्तर भारत के परियार ललई सिंह यादव