संसार प्रत्यक्ष है

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हृदयनारायण दीक्षित


संसार प्रत्यक्ष है। इसी संसार में जीवन है। यह असार नहीं। संसार के कुछ अं-रु39या अल्पकालिक रूप में होते हैं। उनका उदय होता है, अस्त भी होता है।यह प्रकृति की स्वाभाविक कार्यवाही है। अल्पकालीन होने के कारण उन्हें असार नहीं कहा जा सकता। संसार का एक भाग -रु39याा-रु39यवत है। हम उसे चेतन या आत्मतत्व कह सकते हैं। इसी तरह संसार का एक भाग परिवर्तन-रु39याील रहता है। जन्म होते हैं।मृत्यु होती है। संसार में -रु39याा-रु39यवत व परिवर्तन-रु39याील तत्व एक साथ हैं। कुछ लोग संसार को व्यर्थ बताते हैं और -रु39याा-रु39यवत को सत्य। कुछ लोगों के लिए यह संसार मोक्ष या मुक्ति का क्षेत्र है। मुक्ति या मोक्ष के प्रयास भी इसी संसार में होते हैं। जीवन की आद-रु39र्या आचार संहिता धर्म है। इसलिए संसार धर्म क्षेत्र है। कर्म क्षेत्र है। दुःख क्षेत्र है। सुख क्षेत्र है, लेकिन इन सबके साथ यह संसार कर्म प्रधान है, सो कर्म क्षेत्र है। यह आनन्द का क्षेत्र भी है। कुछ लोगों को यह संसार संघ-ुनवजर्या क्षेत्र भी दिखायी पड़ता है। ऐसे लोग जीवन को एक संघ-ुनवजर्या मानते हैं। कुछ को यह संसार आत्मीय प्रतीत होता है। वे संसार से आत्मीयता ब-सजय़ाते हैं। व्यक्ति और संसार के बीच आत्मीयता के संबंध प्रीतिपूर्ण है। वे सबके प्रति प्रीतिपूर्ण रहते हैं। वे इसे सांस्कृतिक दृ-िुनवजयट कहते हैं। कर्मरत रहना प्रत्येक मनु-ुनवजयय का स्वभाव है।


सत्कर्म का परिणाम हम सबको आनन्द से भरता है। कर्म का प्रेरक तत्व मन है। मन संकल्प का भी केन्द्र है। हम कर्मफल की अभिला-ुनवजयाा में सत्कर्मों का संकल्प लेते हैं। कभी-ंउचयकभी हमारी अभिला-ुनवजयाा सत्कर्मों से नहीं जुड़ती। तब जीवन दुखमय हो जाता है। मन को भारतीय चिंतन में चंचल बताया गया है। गीता में श्रीकृ-ुनवजयण ने अर्जुन को कर्म योग की -िरु39याक्षा दी थी। यह -िरु39याक्षा सुनने के बाद अर्जुन ने कृ-ुनवजयण से पूछा, ’’कि हे कृ-ुनवजयण यह मन बड़ा चंचल है, बलवान है। मन को एकाग्र करना वायु को पकड़ने जैसा कठिन काम है।’’ मन वैदिककाल से ही हमारे पूर्वजों का प्रिय अध्ययन वि-ुनवजयाय रहा है। मन को दिक्काल के खूंटे से नहीं बांधा जा सकता। ऋग्वेद में कहते हैं, ’’यह मन बहुत दूर आका-रु39या, अंतरिक्ष, वन-ंउचयउपवन और पर्वतों की ओर चला गया है। हम उसे वापस बुलाते हैं। हम जहां होते हैं मन वहीं नहीं रहता। किसी समय हम अपने घर पर है और मन हमारे कार्यालय की ओर चला गया है। हम कार्यालय में होते हैं।

हमारा मन किसी दूसरे नगर में चला जाता है। मन की चंचलता सतत्क र्म में बाधक है। ऋ-िुनवजया बार-ंउचयबार कहते हैं, ’’हे मन तुम यहीं वापस आओ। आपका जीवन इसी संसार में है।यहां संसार असार नहीं है। संसार यथार्थ है। काल की सापेक्षता में यह सत्य ही है। योग, उपासना, आध्यात्मिक और सुखद उपलब्धियों का क्षेत्र भी संसार ही है। योग जप, तप, पूजापाठ और सारी क्रियाएं मन संकल्प से जुड़ी हुई हैं। मन सबका स्वामी है। वस्तुतः संसार आनन्द क्षेत्र है। हम अपने मनः संकल्प द्वारा संसार को अतिरिक्त आनन्द से परिपूर्ण कर सकते हैं। इसके लिए मन को एकाग्र करना और लोक कल्याण के संकल्प से जोड़ना जरूरी है। एकाग्र मन के द्वारा व्यक्ति स्वयं का स्वामी हो जाता है। यजुर्वेद में दक्ष मन की प्राप्ति के लिए एक सा छः मंत्र है। इन छः मंत्रों को मिलाकर -िरु39याव संकल्प स्तोत्र भी कहते हैं। पहले मंत्र में कहते हैं कि “हमारा मन जागृत द-रु39याा में बहुत दूर-ंउचयदूर भागता है। निद्रा में भी वह दूर-ंउचयदूर तक भ्रमण करता है। यह इन्द्रियों का ज्योति रूप है। जीवन का यही एक दिव्य माध्यम -ंउचय ज्योर्ति एकम है।”

ऋ-िुनवजया की प्रार्थना है कि ऐसा हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों से भरा पूरा हो -ंउचय तन्मे मनः -िरु39याव संकल्पं अस्तु। यजुर्वेद का यह -िरु39याव संकल्प सूक्त पहला प्यारा है। इसे गुनगुनाने का मन करता है। आगे कहते हैं, ’’कर्मठ विद्वान और ऋ-िुनवजया ऐसे मन संकल्प से सत्कर्म करते हैं। यह मन संसार के सभी प्राणियों में विद्यमान हैं। ऐसा हमारा मन लोक कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।” यहां सभी छः मंत्रों के अंत में बार-ंउचयबार तन्मे मनः सेवा संकल्पम् अस्तु” दोहराया गया है। आगे कहते हैं “ज्ञान सम्पन्न मन सभी प्राणियों के भीतर अमर ज्योति है। मन की इसी क्षमता से हम वर्तमान से परिचित होते हैं और भवि-ुनवजयय को भी जान लेते हैं। पूरे सूक्त में मन को प्रका-िरु39यात करना, इसकी क्षमता सम-हजयने और लोक कल्याण की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना है।’’ पूरी कार्रवाई का क्षेत्र यही संसार है। यह यथार्थ है। यह दा-रु39र्यानिक यथार्थवाद है। वैदिककाल के समाज में कर्म करने और कर्मफल प्राप्त करने की इच्छा सुस्प-ुनवजयट है। सांसारिक क्रियाकलापों को सुन्दर बनाने और 100 व-ुनवजर्या की आयु तक स्वयं प्रसन्न व सम्पन्न रहने की अभिला-ुनवजयाा भी वैदिक मंत्रों में हैं। यजुर्वेद की तरह ऋग्वेद में भी मन को सम-हजयने की इच्छा दिखाई पड़ती है। एक प्र-रु39यन है, ’’मन का जानकार कौन ज्ञाता है। जो हमको बताये यह मन कहां से पैदा होता है?’’ भारत में वैदिक काल के परवर्ती चिंतन में मुक्ति मार्गी कवियों ने संसार को माया कहा था। इस विचार के अनुसार माया आभासी है।


ऋग्वेद में माया का अर्थ मिथ्या या आभास नहीं है। यहां माया का अर्थ कौ-रु39याल है। इन्द्र देवता हैं। अनेक रूप धारण कर लेते हैं। ऋग्वेद में इसके लिए कहते हैं कि “वह अपनी माया से तमाम रूप धारण करते हैं।” माया -हजयूठ नहीं है। वैसे भी -हजयूठ का अस्तित्व होता नहीं होता। माया वास्तव में किसी वि-ुनवजयाय वि-रु39यो-ुनवजया की कर्म कु-रु39यालता है। हम सापेक्ष रूप में इसे अनित्य कह सकते हैं। इसी तरह मनु-ुनवजयय भी अपने पूरे जीवन भर नित्य है। जीवन यथार्थ है इसके सुख-ंउचयदुख यथार्थ हैं। तरूणाई और वृद्धावस्था भी प्रत्यक्ष हैं। डॉ0
राधाकृ-ुनवजयणन ने ठीक कहा है कि ऋग्वेद की प्रवृत्ति एक साथ सरल और यथार्थवादी है। विदे-रु39याी साम्राज्यवादी -रु39याक्तियों ने भारतीय ज्ञान परम्परा को अंधवि-रु39यवासीबताया। उन्होंने वेद, उपनि-ुनवजयाद, रामायण व महाभारत के सांसारिक यथार्थवाद और उत्कृ-ुनवजयट ज्ञान की जानबू-हजयकर उपेक्षा की। उन्होंने भारतीय ज्ञान परम्परा को अंधवि-रु39यवासी बताया था। लेकिन यह नि-ुनवजयक-ुनवजर्या गलत है। वैदिककाल और उत्तर वैदिककाल के साहित्य तथा महाकाव्यों में सुव्यवस्थित अर्थ चिंतन है। समाज के गठन और विकास के सूत्र है। सुव्यवस्थित नीति -रु39याास्त्र है। यहां देवता भी मनु-ुनवजयय के लिए है। अग्नि यथार्थ में वि-रु39यव की सबसे बड़ी -रु39याक्ति है। वह देवता भी है। ऋग्वेद में कहा है कि “अग्नि ने मनु-ुनवजयय को प्रका-रु39या देने के लिए सूर्य को आका-रु39या में स्थापित किया है।’’ इसी तरह “सूर्य देव ने संसार को प्रका-रु39या देने के लिए स्वयं प्रका-रु39या धारण किया है।” अग्नि की खोज मनु-ुनवजययों ने की।
ऋग्वेद के अनुसार मनु ने मनु-ुनवजयय के हित में अग्नि की स्थापना की। देवताओं ने संसार को सुन्दर बनाने के लिए ही तमाम काम किए हैं। वे मनु-ुनवजयय हित के संवर्धक हैं। पा-रु39यचात्य विद्वानों के नि-ुनवजयक-ुनवजर्या सही नहीं हैं। भारत के प्राचीनकाल से ही यथार्थवादी चिंतन की स्प-ुनवजयट धारा है। यहां अध्यात्म भी लोकमंगल का उपकरण है और यथाथवादी है।