मधुकर त्रिवेदी


आज की दुनिया ऊर्जा पर पूरी तरह आश्रित है। जीवन की हर गतिविधि उसी से संचालित होती है। भारत जिस तेजी से विकास पथ पर अग्रसर हो रहा है,उसी तेजी से ऊर्जा की मांग भी बढ़ती जा रही है।भारत दुनिया में ऊर्जा के प्रमुख स्रोत कोयला के उत्पादन और आयात दोनों में चीन के बाद दूसरे नम्बर पर है। फिर भी पिछले दिनों बिजली संकट की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनी। कारण था कोयले की कमी हाने की आषंका, क्योंकि अभी भी देष के ऊर्जा ढांचे में कोयले की 55 प्रतिशत हिस्सेदारी है। उत्तर प्रदेष में सरकार आष्वस्त कर रही है कि बिजली संकट का सामना नहीं करना पड़ेगा, किन्तु जो हालात नज़र आ रहे हैं उसमें कोयले की किल्लत से प्रदेश में उजाले से ज्यादा अंधेरा रहेगा। अभी ही बिजली संकट दस्तक देने लगा है। जिलों के अलावा मुख्यालयों तक में कटौती होने लगी है। बिजली उत्पादन में गिरावट चिंता का विशय है। वैसे आज जो संकट उत्पन्न हुआ है उसके लिए बहुत हद तक केन्द्र सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। सन् 1973 में कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ था।

केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार म निजी हाथों में लगभग 35 खदानें जिंदल ग्रुप को दी गई थी। उसी समय 1 लाख 86 हजार करोड़ का कोल ब्लाक घोटाला सामने आया था। केन्द्र में जब भाजपा सरकार आई तो उसने भी मनमोहन सरकार के सभी फैसले पलटते हुए सब कुछ निजी हाथों में सौंपने का निर्णय ले लिया। कोल इण्डिया लि0 का उत्पादन 2014 से लगातार गिरता जा रहा है जबकि मौजूदा समय में लगभग 68 कोयला खदाने अडानी ग्रुप के पास हैं। पंजू घरानों को जब खदान नीलामी के बाद की जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ा तब उन्होंने उत्पादन से ही हाथ खींच लिया। देष की लगभग 216 कोयला खदानों में लगातार उत्पादन गिरने का संज्ञान नहीं लेने से आज बिजली संकट गहरा गया है।उत्तर प्रदेश में आज जो हालात है वह डबल इंजन सरकारी विफलता का द्योतक हैं मोदी जी की सब कुछ बेचो नीति का असर राज्यों पर पड़ना ही था।

उत्तर प्रदेश में कोयले से संचालित ऊर्जा प्लांट ऊंचाहार रायबरेली, टाण्डा अम्बेडकरनगर, ललितपुर और पारीछा में है जो कोयले की कमी से जूझ रहे हैं। हरदुआगंज, ओबरा और अनपरा के प्लाटों में कोयले के अपर्याप्त स्टाक को लेकर गंभीर आसंकाएँ हैं । कई ऊर्जा प्लांट में उत्पादन कम हाने और कई इकाइयां बंद होने की भी सूचनाएं है। एक भी उत्पादन इकाई पूरी क्षमता से नहीं चल रही है।अभी हालत सुधरने के आसार भी नहीं दिख रहे हैं। केन्द्र सरकार इस संकट के लिए राज्यों को जिम्मेदार ठहरा रही है। केन्द्र के अनुसार राज्यों को जून 2021में कोयले का भण्डारण बढ़ाने को कहा गया था परन्तु कुछ राज्यों ने ऐसा नहीं किया। कोयले का उत्पादन घरेलू स्तर पर ही होता है। अतः खनन बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है।


उत्तर प्रदेश में एक तो विधानसभा चुनाव होने है, दूसरे कई त्योहार भी पड़ रहे हैं इसलिए मुख्यमंत्री जी हर तरह से डैमेज कंटंोल में लग गए हैं। रेलवे के जरिए नई कोयला रैक की डिमांड भेजी गई है। यूपी पावर कारपोरशन द्वारा बिजली संकट से निबटने के लिए औसत से दुगनी दर पर बिजली खरीद की जा रही है। कोयले की आपिूर्त तथा एनटीपीसी के बकाये की अदायगी के लिए 1540 करोड़ रूपए और बिजली आपूर्ति सुधारने के लिए प्रदेश सरकार ने 10 हजार करोड़ रूपए खर्च करने का इरादा किया है। उत्तर प्रदेश में बिजली महंगी है। सरकारी हो या गैरसरकारी संस्थानों पर काफी धनराषि बकाया चल रही है। लाइनलॉस पर कंटंोल नहीं हो पा रहा है। प्राइवटे बिजली कम्पनियां मुनाफा कमा रही है। पावर कारपोरेषन घाटे में जा रहा है। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव आरोप लगाते है कि समाजवादी सरकार में ही नए बिजली घर बने थे, अण्डर ग्राउंड कैबलिंग षुरू कराई थी इसके बाद भाजपा सरकार के समय एक यूनिट बिजली का उत्पादन नहीं हुआ है।

मुख्यमंत्री जी बिजली की मांग और आपूर्ति में बड़े अंतर के बावजूद महंगी दरों पर खरीददारी कर बिजली आपूर्ति अबाधित रखने के निर्देष दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश राज्य उपभोक्ता परिशद ने दावा किया है कि निजी घरानों ने महंगी बिजली बेचकर मात्र तीन दिन में ही 840 करोड़ रू0 की कमाई की। पावर कारपोरेशन ने एनर्जी एक्सचंजे व अन्य स्रोतों से बिजली खरीदी। इससे सरकारी खजाने पर भारी दबाव पडऩ ा स्वाभाविक है।वैसे कुछ लोगों का कहना है कि पर्यावरण की दृश्टि से सौर और पवन ऊर्जा जैसी तकनीक का भी अधिकाधिक उपयोग किया जाना चाहिए। लेकिन ये सस्ते नहीं महगं विकल्प है। इनमें विदेषी आयात पर और ज्यादा निर्भरता बढ़ेगी। अभी ताप आधारित ऊर्जा उत्पादन मं े 55 प्रतिषत कोयला और षेश जीवाष्म इंधर्् ान का उपयोग होता है इसके लिए 85 प्रतिषत ईंधन तेल का आयात होता है जो आर्थिक भार बढ़ाता है। कोयले का इस्तेमाल से पर्यावरणीय असंतुलन बढ़ाता है जो ग्लोबल वार्मिंग के साथ जलवायु परिवर्तन का कारक बनता है। वैसे इन दिनों भारत ही नहीं चीन, यूरोप के देष भी ऊर्जा संकट झेल रहे हैं। अन्तर्राश्टंीय बाजार में कोयले के दामों में उछाल आया है इसके पीछे चीन की चालबाजी का भी हाथ है। मई-जून में उसने 49 मिलियन टन से ज्यादा
कोयला खरीद लिया। भारत में महंगे हो रहे कोयले की खरीद में पिछड़ गया। यूरोप में नेचुरल गैस 300 फीसद महंगी हो गई। यूरोपियन देषों में सर्वाधिक ऊर्जा भण्डारों का इस्तेमाल हुआ। तत्कालीन उपाय में आस्टंेलिया से भारत सरकार ने कोयले का आयात रोक दिया। कोल इण्डिया ने भी फिलहाल गैर ऊर्जा क्षेत्र को कोयले की आपिूर्त रोक दी है।

यह संकट आज ही नहीं पैदा हुआ है। केन्द्र और राज्य सरकारों ने कोयला भण्डारण पर पहले ध्यान दिया होता और बिजली घरो की मागं आपूर्ति का सही आंकलन कर लिया होता तो यह स्थिति नहीं पैदा होती। कोयला आपिूर्तकी चेन टूटने की परिस्थति की जांच होनी चाहिए। यह तो सभी जानते है कि बरसात में कोयले का खनन कम हो जाता है, उत्पादन घट जाता है। यह भीध्यान रहे कि जिन सरकारी खदानों को निजी हाथों में सौंप दिया गया था, वे उत्पादन क्षमता बढ़ाने में असफल रही हैं। स्मरणीय है, देष की एक तिहाई जनसंख्या आज भी देष के पंाच बिजली ग्रिड से नहीं जुड़ सकी है। देष के कुल ऊर्जा उत्पादन में परमाणु ऊर्जा की कुल 3 प्रतिषत ही हिस्सेदारी है। लेकिन विषेशज्ञों का मानना है कि भारत परमाणु ऊर्जा तकनीक में अपना विषिश्ट योगदान करने में सक्षम है।

प्राप्त विवरण के अनुसार देश में कुल 22 परमाणु भट्ठियां चालू है।महाराष्ट्र के तारापुर, राजस्थान के रावतभाटा, तमिलनाडु के कलपक्कम में परमाणु भट्ठियां सन् 1983-85 में चालू हुई। उत्तर प्रदेष के नरौरा, गुजरात के ककरापर, कर्नाटक के कैगा मं भी परमाणु भट्ठियां लगी है। अभी इन सभी परमाणु भट्ठियों की कुल ऊर्जा क्षमता 6,780 मेगावाट है जो निर्माणाधीन परियोजनाओं के पूरा होने के बाद सन् 2031 तक 22,480 मेगावाट तक पहुंचेगी। कोयला संकट ने एक सबक भी दिया है कि अगले वर्शों में बिजली का संकट और ज्यादा न गहराये इसके लिए ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव जरूरी हो गया है। बढ़ते औद्योगीकरण और षहरीकरण के दौर में फिलहाल परमाणु ऊर्जा ही एक कारगर
साधन हो सकता है।

आज पूरी दुनिया में वातावरण में आ रहे प्राकृतिक बदलाव चिंता काविशय बन गए हैं। कार्बन उत्सर्जन हमारे पर्यावरण के लिए बहे द नुकसानदेह बताया गया है। इस मुद्दे पर देश विदेश तक में विचार विमर्ष हो रहा है और भारत पर बडे देशों का दबाव भी बढ़ रहा है। इस सबके बावजूद आज जीवन में बिजली और विद्युत संयन्त्रों के बिना सांस लेना भी मुष्किल है। वे दैनिक आवष्यकता की अनिवार्यता बन गए है। विकास के लिए बिजली प्राथमिकता में है। भारत ने बिजली उत्पादन में काफी बढ़त हासिल की है फिर भी हम प्रति व्यक्ति बिजली की खपत में चीन से पीछे है। विकसित देषों से तो बहुत पीछे हैं। लेकिन दीर्घकालीन विकास की दृश्टि से हमें अपने ऊर्जा स्रोत और ससं ाधन दोनों
विकसित करने पर ध्यान देना होगा। बिजली के बेहतर इंतजाम में केन्द्र और राज्यों के बीच अच्छे समन्वय और सहयोग की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

{लेखक ‘यशभारती’ सम्मान एवं प्रभाश जोषी पुरस्कार प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार है}