संघर्षों के दम पर देश-विदेश में नाम कमाती महिलाएं…..

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सोनिया यादव

यूं तो महिलाओं के संघर्ष ने एक लंबा सफ़र तय किया है लेकिन विगत कुछ वर्षों में जिस तरह महिलाएं बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरीं और उन्होंने अपनी आवाज़ बुलंद की, उसने आने वाले दिनों में महिला आंदोलनों की एक नई इबारत लिख दी है। साल 2022 का समापन हुआ है, ऐसे में इस साल 2022 तमाम उठा-पठक के बीच देश को कई बार महिलाओं ने अपने आंदोलन और संघर्षों से झकझोरा है। एक ओर हिजाब विवाद में नारे लगाती औरतों ने सत्ता की नींद उड़ा दी, तो वहीं दूसरी ओर गीतांजलि श्री को मिले इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ ने महिलाओं के हौसलों को नई उड़ान दी। सेना से लेकर सर्वोच्च अदालत तक महिलाओं ने पितृशाही और मनुवादी सोच को चुनौती देकर अपनी जीत मुकम्मल की। राजनीति की ओर देखें, तो इस साल इतिहास में पहली बार कोई आदिवासी महिला देश के शीर्ष पद पर विराजमान हुईं। भले ही लोग इसे एक चुनावी रणनीति के तौर पर सांकेतिक ही क्यों न मानें, लेकिन ये एक उम्मीद तो है ही। खेल की दुनिया में उड़न परी पीटी उषा इस साल भारतीय ओलंपिक संघ की पहली महिला अध्यक्ष बनीं।

भारतीय सेना को आज आर्मी एविएशन कार्प्स के रूप में पहली महिला अधिकारी मिली है। कैप्टन अभिलाषा बराक यह कारनामा करने वाली पहली महिला बनी हैं। भारतीय सेना के अनुसार, अभिलाषा ने सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा कर लिया है जिसके बाद कॉम्बैट एविएटर के रूप में उन्हें आर्मी एविएशन कॉर्प्स में शामिल किया गया है। अभिलाषा 36 सेना पायलट के साथ प्रतिष्ठित विंग से सम्मानित किया गया है। सेना के बताया कि 15 महिला अधिकारियों ने आर्मी एविएशन में शामिल होने की इच्छा जताई थी लेकिन केवल दो अधिकारियों का ही पायलट एप्टीट्यूड बैटरी टेस्ट और मेडिकल के बाद चयन हुआ।

महिलाओं की आर्मी एविएशन कॉर्प्स में एंट्री

वर्ष 2022 में भारतीय सेना के इतिहास में पहली बार किसी महिला को एविएशन कॉर्प्स में एंट्री मिली है। 25 मई को आर्मी में 26 साल की कैप्टन अभिलाषा बराक को पहली महिला कॉम्बेट एविएटर के तौर पर नियुक्त किया गया, जो साल 2020 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सेना में महिलाओं की बराबरी के संघर्ष में एक सकारात्मक कदम के तौर पर देखा जा सकता है। ध्यान रहे कि भारतीय वायु सेना में महिलाएं लंबे समय से हेलीकॉप्टर उड़ा रही हैं। लेकिन आर्मी में महिलाएं इससे पहले केवल ग्राउंड ड्यूटी का हिस्सा रहा करती थीं। सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद सेना में आए इस बदलाव में महिलाओं की और सशख्त भूमिका नज़र आती है। इसके अलावा इसी साल नौसेना के एक ऑल-वूमन क्रू ने अरब सागर में निगरानी मिशन को पूरा करके भी इतिहास रचा, जो पूरे देश के लिए गर्व का क्षण रहा। सुप्रीम कोर्ट का फैसला महिलाओं के पक्ष में आने के बावजूद अभी तक 50 फीसदी महिला अफसरों को स्थायी कमीशन नहीं मिल पाया है, जो सेना में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को खुले तौर पर दर्शाता है।

महिलाओं को अलग-अलग क्षेत्रों में समान भागीदारी पाने के लिए और विकास के क्रम में शामिल होने के लिए महिलाओं को लंबा इंतजार करना पड़ सकता है। लैंगिक भेदभाव को दुनिया से मिटाने में करीब 300 साल का समय लग सकता है। ऐसे में मौजूदा जेंडर गैप की खाई को पाटने के लिए सहयोग, साझेदारी और निवेश की ज़रूरत है। बिना कार्रवाई, कानून व्यवस्था के महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा को खत्म नहीं किया जा सकता है। शादी और परिवार में उनके अधिकारों को सुरक्षित रखना भी बेहद ज़रूरी है।

“महिलाओं की मौजूदा समय में राजनीतिक, आर्थिक, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक स्थिति में जो असमानता व्याप्त है उसे खत्म करने के लिए विश्व स्तर पर तीन सदी तक का इंतज़ार करना होगा।”

विगत कुछ वर्ष 2021 की खट्टी-मीठी यादों से शुरू हुए इस साल इस साल की शुरुआत में पूरी दिल्ली में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं का जोरदार प्रदर्शन देखने को मिला। उन्होंने 31 जनवरी को मुख्यमंत्री केजरीवाल के आवास का घेराव करते हुए अपने संघर्ष की हुंकार भरी। उनकी मांग थी कि उनके वेतन को बढ़ाया जाए और उन्हें सरकारी कर्मचारी होने का दर्जा मिले। ये वो सब महिलाएं थी जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना कोरोना काल के दौरान लॉकडाउन में जनता को सेवाएं दी। हालांकि ये पहली बार नहीं था, जब आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं ने विरोध प्रदर्शन किया हो। पहले भी कई बार इन महिलाओं ने अपनी आवाज़ उठाई लेकिन सरकार द्वारा दिए गए झूठे आश्वासन के चलते इनके संघर्ष का कोई नतीजा नहीं निकला। फिर भी ये महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लगातार संघर्षरत हैं।

हिजाब विवाद में महिलाओं की गूंज

वैसे तो हिजाब विवाद बीते साल जुलाई के महीने में शुरु हुआ था, जब कर्नाटक के उडुपी ज़िले में एक जूनियर कॉलेज ने छात्राओं पर स्कूल में हिजाब पहनकर आने पर रोक लगा दी थी। लेकिन जब इस साल लॉकडाउन खुलने के बाद छात्राओं को पता लगा कि उनकी सीनियर्स हिजाब पहना करती थीं तो उन्होंने इस आधार पर कॉलेज प्रशासन से हिजाब पहनने की अनुमति मांगी। लेकिन उन्हें क्लास के भीतर हिजाब पहनने की अनुमति नहीं मिली। इसके बाद इन लड़कियों ने कॉलेज प्रशासन के खिलाफ प्रदर्शन किया और इस मुद्दे को लेकर कोर्ट में भी गईं। कर्नाटक राज्य से शुरू हुआ यह मुद्दा धीरे-धीरे पूरे देश में फैलने लगा।

देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचा ये मामला महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने से जुड़े अधिकार को लेकर था। उनकी भी मंशा यही थी कि उनके पहनावे पर कोई पाबंदी ना हो, वो अपनी पसंद के लिए आज़ाद हो। देश में जब हिजाब का मामला विवादों में आया, तो कई सामाजिक और नागरिक संगठन न चाहते हुए भी इसकी ओर कदम बढ़ाने लगे, वो इसके हिमायती नहीं थे लेकिन वो इसे जबरन उतरवाने के ख़िलाफ़ थे। उन्हें डर था कि इसके चलते कहीं मुस्लिम लड़कियां शिक्षा से दूर न हो जाएं और शायद यही वजह है कि विरोध में और ज़्यादा महिलाओं ने हिजाब की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला जो भी हो उसका व्यापक असर देखने को मिलेगा क्योंकि ये मुद्दा अब धर्म और शिक्षा से काफी आगे चला गया है।

महिला आरक्षण बिल का संघर्ष

देश आज़ादी के 75 साल का जश्न मना रहा है। सरकार की ओर से अमृतमहोत्सव और हर घर तिरंगा जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। लेकिन इन सबके बीच आज भी हमारे आज़ाद देश में महिलाओं की आज़ादी सवालों के घेरे में है। समाज में पितृसत्ता का बोलबाला ऐसा है कि महिलाओं के सालों पुराने मुद्दे आज भी जस के तस बने हुए हैं। हालांकि इस बीच कुछ उपलब्धियां भी औरतों ने हालिस की है, जो निश्चित तौर पर याद करने योग्य हैं। इस साल ये संयोग भी रहा कि संसदीय लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी और महिला वकीलों की अदालत में दस्तक के 100 साल भी 2022 में पूरे हुए। इन सालों में कई उपलब्धियां औरतों ने हासिल कीं, जो निश्चित तौर पर याद करने योग्य है लेकिन समाज में पितृसत्ता का बोलबाला आज भी ऐसा है कि महिलाओं के सालों पुराने मुद्दे जस के तस बने हुए हैं। सालों से संसद में महिला आरक्षण बिल लटका हुआ है, जो इस साल भी लटका ही रहा। हालांकि महिलाओं ने इसे लेकर इस साल भी अपनी आवाज़ बुलंद की। स्वतंत्रता दिवस से महज़ ठीक पहले दिल्ली के जंतर मंतर पर देश के कोने-कोने से आकर महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वूमेन और अन्य महिला संगठनों के नेतृत्व में हुए इस प्रदर्शन में औरतों की प्रमुख मांग थी कि महिलाओं को अब केवल 33 प्रतिशत नहीं बल्कि  राजनीति में 50 प्रतिशत अपना आरक्षण चाहिए।

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्लूईएफ) द्वारा जारी इस इंडेक्स के मुताबिक भारत दुनिया के अंतिम ग्यारह देशों में शामिल है जहां सबसे ज्यादा लैंगिक असमानता मौजूद है। दक्षिण एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करनेवालों में भारत तीसरा देश है। भारत केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान से आगे है। लैंगिक असमानता के मामले में भारत अपने अन्य पड़ोसी देशों बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव और भूटान से भी काफी पीछे है।बहरहाल, मौजूदा समय में सरकार भले ही बेटी बचाओ और महिलाओं की सुरक्षा के दावे करती हो लेकिन ज़मीनी वास्तविकता रिपोर्ट देश में जेंडर गैप की गंभीरता को दिखाती है। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या सरकार इस मुद्दे पर गंभीरता दिखाएगी या इसे भी नज़रअंदाज़ कर सच्चाई से मुह मोड़ लेती है।

इंटरनैशनल बुकर प्राइज़ से नवाज़ी गईं गीतांजलि श्री

साल 2022 में गीताजंलि श्री हिंदी भाषा के किसी उपन्यास के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार हासिल करने वाली पहली भारतीय लेखिका बन गईं। गीतांजलि श्री को उनकी कृति ‘रेत समाधि’ के अनुवाद ‘टूम ऑफ सेंड’ के लिए साल 2022 का ‘इंटरनैशनल बुकर प्राइज़’ से सम्मानित किया गया है। ये किताब धर्म, जेंडर और देश की सरहदों पर बात करती है। यह पहला मौका था जब कोई हिंदी रचना बुकर के लिए पहले लॉन्ग लिस्टेड, फिर शॉर्टलिस्टेड और फिर बुकर से सम्मानित हुई हो। ये पूरे देश के लिए गर्व का क्षण था, क्योंकि इस सम्मान में हिंदी रचनाकारों खासकर महिला साहित्यकारों को एक बल दिया। क्योंकि हिंदी के साथ-साथ ही भारतीय भाषाओं के साहित्य में भी ऐसे मौके कम ही आए हैं, जब उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिला हो। भारतीय मूल की लेखिका गीतांजलि श्री के हिंदी उपन्यास ‘रेत समाधि’ को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। गीतांजलि श्री हिंदी भाषा के किसी उपन्यास के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार हासिल करने वाली पहली भारतीय लेखिका हैं। 

गीतांजलि श्री का ‘टॉम्ब ऑफ सैंड’ अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाला पहला हिंदी उपन्यास बना।

भारतीय ओलंपिक संघ की पहली महिला अध्यक्ष बनीं पीटी उषा

भारत की उड़नपरी पीटी उषा के नाम वैसे तो ट्रैक पर कई रिकॉर्ड हैं, उन्होंने कई बार भारतीय ध्वज का मान इंटरनेशनल स्तर पर बढ़ाया। लेकिन इस साल पीटी उषा ने ऑफ ट्रैक भी एक नया इतिहास रचा है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बनेगा। मर्दो के वर्चस्व वाले भारतीय ओलंपिक संघ यानी आईओए की पीटी उषा ने इस साल तस्वीर बदली और वो इसकी पहली महिला अध्यक्ष बन गईं। पीटी उषा इस पद के लिए नामांकन भरने वाली इकलौती दावेदार थीं। और ये पहला मौका जब कोई महिला एथलीट इस टॉप पोजीशन तक पहुंची हो। उनकी यह उपलब्धि इस साल खेल की दुनिया में हुए सबसे बड़े बदलावों में से एक रही। इसके साथ ही खेलों में इस साल जार्जिया में आयोजित वूशू स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतकर गीतांजलि त्रिपाठी देश का नाम रोशन किया तो वहीं मीराबाई चानू 49 किलोग्राम भार वर्ग में वजन उठाकर कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मेडल जीत कर एक बार फिर इतिहास रचने में कामयाब हुईं। इस साल बीसीसीआई ने भी ऐतिहासिक कदम उठाते हुए भारतीय महिला क्रिकेटर्स को पुरुष क्रिकेटर्स के बराबर मैच फ़ीस देना की घोषणा की। हालांकि इससे खेलों में महिलाओं का संघर्ष कम नहीं हुआ है, लेकिन ये बदलाव की शुरुआत जरूर है।

मनोरंजन की दुनिया में छाईं भारतीय महिलाएं

भारतीय मॉडल सरगम कौशल ने इस साल मिसेज वर्ल्ड का खिताब अपने नाम कर देश का मान बढ़ाया। भारत ने 21 साल के लंबे इंतजार के बाद इस ताज को एक बार फिर अपने नाम किया है। इससे पहले साल 2001 में यह खिताब पहली बार डॉ. अदिति गोवित्रीकर ने हासिल किया था। इस साल भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली सरगम कौशल ने 63 देशों के प्रतिभागियों को पछाड़ते हुए ये ताज अपने सिर पर पहना है। तमाम विवादों के बीच बॉलीवुड एक्ट्रेस दीपिका पादुकोण ने इस साल कतर में आयोजित फीफा वर्ल्ड कप 2022 की ट्रॉफी का अनावरण किया। अंतरराष्ट्रीय मंच पर ये उपलब्धि हासिल करने वाली दीपिका पहली भारतीय हैं। वे इस साल दुनिया की टॉप 10 सबसे खूबसूरत महिलाओं की लिस्ट में शामिल होने के साथ- साथ पॉप कल्चर ब्रांड्स के लिए ग्लोबल चेहरे के रूप में चुनी जाने वाली भी एकमात्र भारतीय हैं।

यूएन में विशेष दूत बनीं पहली एशियाई दलित महिला अश्विनी के.पी

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में जातिवाद और नस्लीय भेदभाव जैसे मुद्दों के लिए विशेष दूत के रूप में नियुक्त कर्नाटक के कोलार जिले की अश्विनी के. पी., इस पद पर पहुंचे वाली पहली दलित और एशिया की सबसे पहली महिला भी हैं। अश्विनी के.पी का चयन संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार काउंसिल के 51वें सेशन के दौरान नवंबर में हुआ था। एक डॉक्टरेट फेलो के रूप में उन्होंने जाति, भेदभाव और इसी तरह के अन्य मुद्दों से संबंधित विभिन्न मानवाधिकारों के क्षेत्र में और अकादमिक रूप में काम किया है। वह भारतीय दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधिमंडल का भी हिस्सा थीं। अश्विनी के.पी की ये उपलब्धि अपने आप में खास है, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देसी महिलाओं की धनक को मजबूत करती है।

गौरतलब है कि आज़ादी की लड़ाई से लेकर चिपको आंदोलन तक देश में महिलाओं के संघर्ष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। यूं तो निर्भया मामले से लेकर किसान मोर्चे तक महिलाओं में ये सजगता और साहस पहले भी कई मौक़ों पर दिखा है। साल 2012 में निर्भया मामले के बाद बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चियां इंडिया गेट पर जमा हुईं। उन्होंने पुलिस की लाठियां और वॉटर कैनन झेले, लेकिन अपने हौसले और दृढ़ता से महिलाओं ने सरकार को यौन हिंसा के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून बनाने के लिए बाध्य किया।

महाराष्ट्र में मार्च 2018 में महिला किसानों के छिले हुए नंगे पैरों की तस्वीरें आज भी इंटरनेट पर मिल जाती हैं। ये नासिक से मुंबई तक किसानों की एक लंबी रैली थी। इसमें महिला किसानों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उनके इसके बाद नवंबर 2018 में क़र्ज़ माफ़ी की माँग को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों से किसान महिलाएं विरोध प्रदर्शन के लिए दिल्ली पहुँची थीं। रूढ़ीवादी परंपरा को तोड़ती हुई औरतें, सबरीमाला मंदिर हो या हाजी अली दरगाह, हिंसक प्रदर्शनकारियों के सामने अपनी जान जोख़िम में डालकर भी मंदिर पहुँचीं। महिलाओं की इस ताक़त में उम्र की कोई सीमा नहीं है। युवा, उम्रदराज़ और बुज़ुर्ग, हर उम्र की महिला के हौसले बुलंद नज़र आते हैं। यूं तो महिलाओं के संघर्ष ने एक लंबा सफ़र तय किया है लेकिन साल 2020 में जिस तरह नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ महिलाएं बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरीं और जिस तरह साल 2021 की सर्द रातों में महिलाओं ने किसान आंदोलन में अपनी आवाज़ बुलंद की, उसने आने वाले दिनों में महिला आंदोलनों की एक नई इबारत लिख दी है।

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