कोरोना कहर से पस्त जीडीपी

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कोरोना के पहले मंदी की खबर कि कार से बाज़ार भरे हैं लेकिन उन्हें कोई खरीदने वाला नहीं है। पारले जी के बिस्कुट दिख नहीं रहे हैं। लेकिन सरकार यह मानने से साफ इंकार कर रही थी की अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही है। बेकारी की दर 45 साल में सबसे अधिक होकर 6.1 फ़ीसदी हो चुकी है और यह रुकने का नाम नहीं ले रही। फरवरी 2019 में यह 8.75 फ़ीसदी के रिकॉर्ड पर पहुंच गई। साल 2013 से लेकर 2020 के बीच प्रति व्यक्ति खर्च बढ़ोतरी दर 7 फ़ीसदी सालाना रही और प्रति व्यक्ति आय बढ़ोतरी दर 5.5 फ़ीसदी रही। यानी खर्चा कमाई से ज्यादा हो रहा था। बचत कम हो रही थी। कर्ज का बोझ बढ़ रहा था। बैंक टूट रहे थे। एक दशक पहले जो
कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्त बचत हुआ करती थी वही बचत पिछले 10 सालों में कम पड़ लगी और कर्ज का आकार दोगुना हो गया।

अर्थव्यवस्था पहले से ही डूबी हुई थी और इस डूबी हुई अर्थव्यवस्था में कोरोना महामारी आई और अर्थव्यवस्था को वहां ले गई जहां वह साल 1980 के बाद से अब तक नहीं थी। सब कुछ ऐतिहासिक कहकर संबोधित करने वाले इस सरकार के दौर में 40 साल में पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था में इतनी बड़ी गिरावट देखने को मिली है। NSO की ओर से जारी आंकड़े के मुताबिक 2020-21 की पहली तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में ग्रॉस वैल्यू एडिशन (GVA) – 39.3 फीसदी रहा। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में यह -50.3 फीसदी रहा है। इलेक्ट्रिसिटी में यह -7 फीसदी है। उद्योग में GVA -38.1 फीसदी और सर्विस सेक्टर में -20.6 फीसदी रहा। खनन क्षेत्र में GVA -23.3 फीसदी, ट्रेड एवं होटल में -47 फीसदी, पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में -10.3 फीसदी और फाइनेंस, रियल एस्टेट में -5.3 फीसदी रहा है।

केवल कृषि क्षेत्र में 3.4 फ़ीसदी की बढ़ोतरी देखी गई। दूसरे क्षेत्र से तुलना करने पर यह बढ़ोतरी ठीक लगती है। लेकिन कृषि क्षेत्र को ही देखने पर यह बढ़ोतरी कृषि क्षेत्र में हमेशा की तरह होने वाली बढ़ोतरी की तरह ही है। इसमें कुछ नया नहीं है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारतीय कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक मानव संसाधन लगा हुआ है और इसकी बढ़ोतरी 2.5 से लेकर 3.5 तक ही बनी रहती है। फिर भी अगर कृषि क्षेत्र में भी सिकुड़न होती तो भारत की अर्थव्यवस्था के जीडीपी में गिरावट तकरीबन 30 फ़ीसदी तक पहुंच सकती थे।

केंद्र सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय के अनुसार 2020-21 वित्त वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रैल से जून के बीच विकास दर में 23.9 फ़ीसद की गिरावट दर्ज की गई है। ऐसा अनुमान लगाया गया था कि कोरोना वायरस महामारी और देशव्यापी लॉकडाउन के कारण भारत की जीडीपी की दर पहली तिमाही में 18 फ़ीसद तक गिर सकती है। जनवरी-मार्च तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में 3.1 फ़ीसद की वृद्धि देखी गई थी जो आठ साल में सबसे कम थी। जीडीपी के आँकड़े बताते हैं कि जनवरी-मार्च तिमाही में उपभोक्ता ख़र्च धीमा हुआ, निजी निवेश और निर्यात कम हुआ, वहीं, बीते साल इसी अप्रैल-जून तिमाही की दर 5.2 फ़ीसद थी।

वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अनिंदो चक्रवर्ती कहते हैं कि कृषि क्षेत्र की स्थिति भी हमेशा की तरह उदास करने वाले ही है। इसी तिमाही में खाद्य पदार्थों की महंगाई दर में 9 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। और कृषि क्षेत्र का ग्रॉस वैल्यू एडिशन करंट और कांस्टेंट प्राइस पर केवल 2.3 फ़ीसदी ही है। इसका साफ मतलब है कि किसानों के पास अपनी पैदावार का असल कीमत नहीं पहुंचा है। महंगाई बढ़ी है लेकिन महंगाई से मिलने वाला पैसा किसानों के जीवन का हिस्सा नहीं बना है।

अर्थशास्त्री और संख्याकिविद प्रनोब सेन ने ब्लूमबर्ग क्विंट से बात करते हुए कहा कि यह डाटा भी केवल लिस्टेड कंपनियों के आकलन करने से जुड़ा हुआ है। छोटी छोटी कंपनियां छोटे छोटे व्यापार इस डाटा में शामिल नहीं हो पाते हैं। इसलिए हो सकता है की स्थिति और भयानक हो। जब अनौपचारिक क्षेत्र का डाटा आएगा और इन्हीं आंकड़ों को आगे की तिमाही में और वार्षिक स्टेटमेंट में फिर से परखा जाएगा तो स्थिति और साफ होगी।

प्रनोब सेन आगे अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ। अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में सिकुड़न हुई। फिर भी पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन एंड डिफेंस में 10 फ़ीसदी की गिरावट उम्मीद से परे है। जब सरकारी तंत्र की इतनी बुरी हालत है तो इसका मतलब है कि स्थिति बहुत खराब होगी। माइनिंग जैसे क्षेत्र में भी 23 फ़ीसदी की गिरावट आंकी गई है। यह भी उम्मीद से परे है क्योंकि माइनिंग को एसेंशियल सर्विस में रखा गया था। हो सकता है मजदूरों की कमी की वजह से इस क्षेत्र में गिरावट आई हो।

अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि आर्थिक शब्दावली में कहा जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था कांट्रेक्शन के दौर में पहुंच चुकी है। आसान शब्दों में समझा जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह से सिकुड़ चुकी है और जहां से इसकी शुरुआत होती है उससे भी गहरी खाई में गिर चुकी है। यानी
नकारात्मक स्थिति में पहुंच चुकी है। पिछले साल के अप्रैल से जून महीने की तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था 35 .35 लाख करोड़ रुपए की थी। और यही अर्थव्यवस्था अब तकरीबन 24 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच चुकी है। दुनिया की किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए कॉन्ट्रक्शन की यह स्थिति बहुत खराब होती है।

भारत की जीडीपी वित्त वर्ष की पहली तिमाही में माइनस में आ गई है। भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर माइनस 23.9 फीसदी पर पहुंच गई है। भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की विकास दर माइनस 39 हो चुकी है। यह वो सेक्टर था, जिसे ‘मेक इन इंडिया’ का झंडा बुलंद करना था। जीडीपी में इस ऐतिहासिक गिरावट को लेकर विपक्षी दल केंद्र सरकार पर हमलावर हैं।

तकरीबन 24 फ़ीसदी के गिरावट का साफ मतलब है कि पहले अगर भारत में 100 रुपये का सामान उत्पादित होता था तो अब केवल 76 रुपये का सामान उत्पादित हो रहा है। इसलिए सबसे पहले तो 100 रुपये के उत्पादन पर आना होगा उसके बाद आगे बढ़ने की बात होगी। इसलिए यह स्थिति बहुत खराब है।

पिछले 40 साल में देश ने यह स्थिति कभी नहीं देखी है। अर्थव्यवस्था में 1 से 2 फ़ीसदी की बढ़ोतरी लाने के लिए निवेश की कितनी योजनाएं सामने आती हैं, निवेश को लेकर कितनी चर्चाएं होती हैं तो जरा सोचिए कि अगर अर्थव्यवस्था अपनी शुरुआती बिंदु से 24 फ़ीसदी नीचे गिर चुकी हो तब कितने निवेश की जरूरत होगी। इसलिए मंदी की तरह नहीं है। डूबने की तरह भी नहीं है। यह ज़मीन में धंस जाने की तरह है।

कोविड-19 से पहले भारत की विकास दर तकरीबन 3 फ़ीसदी के आसपास थी। यहां तक पहुंचने के लिए इस साल की हर तिमाही में तकरीबन 29 से 30 फ़ीसदी के विकास दर की जरूरत होगी। जो की पूरी तरह से असंभव दिख रहा है। जो संभव दिख रहा है और जिसे होना तय है वह यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था आने वाले दिनों में भी नकारात्मक स्थिति में ही रहने वाली है।

अब सवाल यह भी उठता है की 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज का अर्थव्यवस्था को
कुछ फायदा हुआ या नहीं। आंकड़ों से साफ है की 20 लाख करोड़ के नाम पर लोगों को देने के लिए प्रावधान किए गए दो से तीन लाख करोड़ रुपए का भारतीय अर्थव्यवस्था को कोई फायदा नहीं पहुंचा है। एमएसएमई, लोन मेला और कॉर्पोरेट छूट देकर अर्थव्यवस्था के इंजन को चलाने में कोई कामयाबी नहीं मिली है।

उल्टे बड़ी जटिल सवाल पैदा हो गया है कि आखिर भारत की अर्थव्यवस्था उबरेगी कैसे? उबरने का एक तरीका है कि खूब निवेश हो, खूब मांग हो, खर्च हो, और उत्पादन कर्ता को मुनाफा दिखे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है। लोगों को अपनी नौकरियां जाने का डर है। खर्चे पहले से भी कम किए जा रहे हैं। पैसे नहीं हैं तो निवेश भी नहीं हो रहा है। और इस तरह की स्थिति में उत्पादक को अपना मुनाफा भी नहीं दिख रहा है। इसलिए सब कुछ गड़बड़ दिख रहाहै।

अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि सरकार वहां पैसा डाले जहां पैसा मिलते ही वह बाजार में जाकर खर्च में तब्दील हो जाता है। ऐसे जगहों में सरकार को पैसे डालने चाहिए। सबसे आम आदमी की जेब में जब पैसा पहुंचेगा। वही पैसा बाजार को चलाएगा।और सरकार की हालत यह है कि सरकार ने इस साल के बजट के हिसाब से निर्धारित फिसकल डिफिसिट यानी राजकोषीय घाटे से अधिक जुलाई महीने में ही खर्च कर दिया है। सरकार का फिस्कल डेफिसिट अभी 8.21 लाख करोड़ हो गया है। जो इस साल के पूरे फिस्कल डेफिसिट का तकरीबन 103 फ़ीसदी है। जबकि अभी इस वित्तीय वर्ष के केवल 3 महीने ही खत्म हुए हैं।