गांधी एक……

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गांधी जी को मानव मुक्ति के अप्रतिम मसीहा के रूप में याद किया जाता है। उनके जाने के बहत्तर वर्ष बाद भी जीवन की बहुविध समस्याओं के लिए आज भी हमारी नजर उनकी तरफ उठ खड़ी होती है, गोया वही ‘केवल जलती मशाल’ हों । मानव इतिहास के विराट रंगमंच पर गांधी हमारे लिए रचनात्मक ऊर्जा के एक अक्षय स्रोत के रूप में प्रकट होते हैं।

मोहनदास करमचंद गांधी, महात्मा गांधी, बापू एक व्यक्ति, कई जीवन। गांधी शब्द का उल्लेख होते ही रिचर्ड एटनबरो की 1982 की शानदार कृति हमारे जेहन में उभर आती है। इस फिल्म में गांधी (Mahatma Gandhi) का 1893 से 1948 तक का जीवन पर्दे पर उतारा गया है। इसमें दिखाए गए 55 वर्ष कई यादगार लम्हों को संजोए हुए हैं- अपने बदन को ढकने में असमर्थ ठिठुरती महिला के लिए गांधी को अपनी चादर दे देना, दुखद पल जब वह अपनी पत्नी को खो देते हैं।

गांधी पर बनी शुरुआती फिल्मों में पहला नाम ‘महात्मा गांधीः ट्वेंटियथ सेंचुरी प्रोफेट’ है। यह एक  अमेरिकी फीचर डॉक्यूमेंटरी थी, जो 1953 में बनी थी। 1968 की एक अन्य डॉक्यूमेंटरी में उनके जीवन के हर दशक को दर्शाया गया था। लेकिन सबसे बेहतर चित्रण श्याम बेनेगल की ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा/ मोहन से महात्मा तक’ (1966) में किया गया था। यह फातिमा मीर की पुस्तक ‘अप्रेंटिसशिप ऑफ ए महात्मा’ पर आधारित थी, जिसमें दक्षिण अफ्रीका में बिताए उनके 21 वर्षों का ब्योरा था।

काठियावाड़ के मोहनदास का कई नेताओं पर खासा असर था, जो इन फिल्मों में दिखा- केतन मेहता की वल्लभ भाई पटेल पर बनी फिल्म ‘सरदार’ (1993), जमील देहलवी की  ‘जिन्ना’ (1998), जिसमें क्रिस्टोफरली ने पाकिस्तान के संस्थापक का किरदार निभाया था। श्याम बेनेगल की सुभाष चंद्र बोस के आजाद हिन्द को लेकर किए संघर्ष पर बनी ‘नेताजी-द फॉरगॉटन हीरो’ (2005),बीआर आंबेडकर के जीवन पर बाबासाहेब’ (2000) और लॉर्ड माउंटबेटन के अधीन भारत के विभाजन से जुड़े  खास महीनों का लेखा-जोखा पेश करती फिल्म  ‘वाइसराय हाउस’ (2017)।

गांधी के प्रभाव को दर्शाने वाली अन्य फिल्मों में ‘भगत सिंह’ (2002) भी शामिल है, जिसमें राजकुमार संतोषी ने सामाजिक क्रांतिकारी के रूप में अजय देवगन को पेश किया था। इनके अलावा अन्य फिल्में हैं- जर्मनी के नाजी नेता को गांधीजी (Mahatma Gandhi) के लिखे पत्रों पर आधारित ‘डियरफ्रेंड हिटलर (2011), सत्यजीत रेकी ‘रवीन्द्रनाथ’ (1961) व श्याम बेनेगल की भारत-रूस की संस्कृति ‘नेहरू’ (1983)। 1948 के बाद जन्मे लोग गांधी को कैसे देखते हैं। विश्व में उनकी अहिंसा की मुहिम क्या अब भी मायने रखती है या यह सिर्फ राजनेताओं के लिए नारा बन कर रह गई है। इस बात ने मुझे दिल्ली (अक्तूबर) 2018 तथा जनवरी 2019), कोलकाता (अगस्त अक्टूबर 2019) तथा सिंगापुर (यह समारोह 30 सितंबर तक चलेगा) में गांधी पर फिल्म समारोह आयोजित करने के लिए प्रेरित किया।

गांधी ने लाखों लोगों को दमनकारी शासन के खिलाफ खड़ा किया। उन्होंने लोगों के बीच धर्म व जाति की दीवार को गिराया, उन्होंने मानवता के लिए आवाज उठाई। इसी वजह से वे एक जटिल चरित्र बन गए। यह हमने ‘गांधी माई फादर’ (2007) में देखा, जो उनके पुत्र हरिलाल के साथ उनके बिगड़ते संबंधों पर आधारित है। फिल्म की स्क्रीनिंग के समय डायरेक्टर नोट में फिरोज अब्बास खान ने लिखा है, ‘चूंकि ज्यादातर फिल्म देखने वाले युवा हैं, इसलिए हमने युवा और पुरानी पीढ़ी के बीच के टकराव को दिखाना तय किया।’

गिरीश कसरावल्ली की ‘कूर्मावतार (2012) में गांधी जी जैसे मिलते-जुलते एक क्लर्क को एक टीवी धारावाहिक में काम करने का मौका दिया जाता है। उनकी श्रेष्ठता स्थापित की गई है। उत्तम चौधरी की ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ एक ऐसे प्रोफेसर की कहानी है, जिसके माध्यम से समाज के बदलते स्वरूप को दर्शाया गया है। जानू बरुआ ने अपने डायरेक्टर नोट में लिखा है कि हमारी आधी से ज्यादा समस्याओं की वजह यही है कि हम उनके सिद्धांतों को भूलते जा रहे हैं और हर दिन हम गांधी की हत्या कर रहे हैं।राजकुमार हिरानी की ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ (2006) ने गांधीगीरी के एक नए ही फॉर्मूले को पेश किया। ‘रोड टू संगम'(2009) में गांधी (Mahatma Gandhi) की अस्थियों को संगम में प्रवाहित करने के लिए इस्तेमाल फोर्ड कार के मैकेनिक हसमत उल्लाह के जीवन में बदलाव को दर्शाया गया है। सत्याग्रह, सर्वोदय और अहिंसा, ये तीन सिद्धांत बार-बार फिल्मों में दिखाए जाते रहे हैं।

1930 के दशक में बनी ‘अछूत कन्या’, ‘बालयोगिनी’ जैसी फिल्में समाज की कुरीतियों पर सवाल उठाने के लिए बनीं। इनकी प्रेरणा गांधीजी ही थे। यही नहीं, तेलुगू की ‘माल पिल्ला’ (1938) भी इसी कड़ी की कहानी है। ‘त्याग भूमि’ (1939) एसएस वासन की बेहतरीन कृति है,जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। 70-80 के दशक के नए भारत के सिनेमा ने भी इन मुद्दों पर ‘संस्कार (1970) व ‘सद्गति’ (1988) जैसी फिल्में बनाई। ‘संस्कार’, स्वतंत्र भारत की पहली कन्नड़ फिल्म थी, जिसे मद्रास हाईकोर्ट ने प्रतिबंधित किया था।

यहां नाथू राम गोडसे की चर्चा भी लाजिमी है। मार्क राबसन ने स्टेनले वोल्पर्स की 1962 की किताब के आधार पर ‘नाइन ऑवर्स टू रामा’ (1963) बनाई। वहीं कमल हासन ने ‘हे राम’ (2000) बनाई। इसमें हत्यारे की अंदरूनी जद्दोजहद को दिखाया गया है। वहीं ‘द गांधी मर्डर’ एक ऐसी फिल्म है, जिसमें तीन पुलिस वाले जानते हैं कि गांधी की हत्या होने वाली है। गांधी फिल्म समारोह में चर्चा करते हुए एक नामी सर्जन कुणाल सरकार ने कहा, ‘दूसरे विश्व युद्ध के बाद गांधी का सत्याग्रह अपनी धार खोने लगा था और यही 20वीं सदी की सबसे बड़ी त्रासदी थी।