दलित भोजनमाता की नियुक्ति रद्द..!

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राकेश सिंह यादव

दलित भोजनमाता की नियुक्ति रद्द करने के सम्बन्ध में!सवर्णों का तर्क है कि गरीब तो राजपूत और ब्राह्मण भी हो सकते हैं फिर उनको आरक्षण क्यों नहीं? जिनकी नज़र में आरक्षण का अर्थ गरीबी,अमीरी से है उन्हें हिन्दू व्यवस्था को ऐसे उदाहरणों के माध्यम से ठीक ढंग से समझना चाहिये।वाकई सवर्ण भी गरीब होते हैं तभी तो वह अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ा रहे हैं और वहां का सरकारी भोजन खा रहे हैं लेकिन जिस प्रकार जातिवाद का गरीबी,अमीरी से कोई सम्बंध नहीं उसी प्रकार आरक्षण का भी गरीबी अमीरी से कोई सम्बन्ध नहीं।

हिन्दू धर्म की मान्यताओं में जहां जहां अनुसूचित जाति के लोगों हेतु प्रतिबंध लगाया गया था केवल उनमें प्रवेश हेतु ही आरक्षण की व्यवस्था थी और यदि कोई दलित प्रवेश पाकर भी सवर्ण व्यक्ति उसके साथ भेदभाव करे उसके लिए एससी, एसटी एक्ट है।साधारण भाषा अथवा उदाहरण में बात यह थी कि शिक्षा ही समाज की कुरीतियों में बदलाव ला सकती है ऐसा कई बुद्धिजीवियों का दावा था इसलिए मिड-डे मील योजना शुरू की गई जिससे बच्चों में जातिवाद को खत्म करने की पहल शुरू हो सके।

इसी कड़ी में भोजनमाता अमूमन दलित,वंचित समुदाय से होनी जरूरी बताया गया था। इस विचार के साथ, साथ सरकारी और संवैधानिक हस्तक्षेप से सामाजिक माहौल भी बदलता और बच्चों के जेहन से जातिवाद, छुआछूत नामक बीमारी काफी हदतक खत्म होती।दलित भोजनमाता का यदि कोई विरोध करते उनपर एससी,एसटी एक्ट लगाकर जेल भेजा जाता और हर विवादित जगहों पर एससी भोजनमाता को अनिवार्यतः तैनात किया जाता लेकिन हिंदुत्ववादी, सवर्णवादी, मनुवादी, ब्राह्मणवादी सरकार ने ऐसा नहीं किया। क्यों?

एक महिला को नौकरी जाति की वजह से नहीं जातिगत भेदभाव से परिपूर्ण व्यवस्था में आरक्षण की अनिवार्यता से हासिल हुई और उसी महिला की नौकरी जातिगत भेदभाव, ऊंच नीच, असमानता और वर्चस्ववादियों के कारण गयी। जिनपर कार्यवाही भी न हो सकी।मनुस्मृति दहन दिवस के उपलक्ष्य में यह समझना जरूरी है कि जातिवाद तबतक समाप्त नहीं हो सकता है जबतक भेदभाव को पोषित शास्त्रों,मान्यताओं को नेस्तनाबूद नहीं किया जाता और आसमान व्यवस्था को तिलांजलि नहीं दी जाती क्योंकि जब इस व्यवस्था को बड़े, बड़े महापुरुष नहीं बदल सके तो हम किस खेत की मूली?