जन्मजात विद्रोही थे भगत सिंह

108

 

 

    मधुकर त्रिवेदी


23 मार्च की तिथि इतिहास के एक विलक्षण बलिदान की भी गवाह है। इस दिन क्रांतिकारी भगत सिंह को अंग्रेजों की जुल्मी सरकार ने फांसी की सजा दी थी उन्होंने अपने कर्म और विचारों को युगांतरकारी रूप दिया। भगत सिंह राष्ट्रीय आंदोलन की एक नई चेतना बनकर उभरे थे।भगत सिंह में भारत की आजादी और व्यवस्था परिवर्तन के लिए तड़प थी। वे अन्याय और शोषण के खिलाफ सतत लामबंद रहने वालों में थे। उनकी प्रारम्भिक राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा महात्मा गांधी के स्कूल में हुई यद्यपि बाद में उनके रास्ते अलग हो गए।


जन्मजात विद्रोही भगत सिंह ने 14 वर्ष की आयु में ही सरकारी स्कूलों की पुस्तकों तथा कपड़ों की होली जला दी थी। वे गांधीजी के नेतृत्व में भारतीय नेशनल कांग्रेस के सदस्य बने थे। 1921 में जब चौरी-चौरा काण्ड के बाद गांधी जी ने अचानक सत्याग्रह स्थगित कर दिया था तो उसके विरोध में वे क्रांतिकारियों के दल में शामिल हो गए थे। 1924 की बेलगांव कांग्रेस में, जिसकी अध्यक्षता गांधी जी ने की थी, भगत सिंह उसमें डेलीगेट बने थे। वस्तुतः भगत सिंह का पूरा परिवार राष्ट्रवादी था। पिता सरदार किशन सिंह और उनकी मां के अलावा उनके चाचा स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े थे।
9 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर से लखनऊ जा रही पैसेंजर ट्रैन को काकोरी के छोटे स्टेसन पर रोककर उसमें रखा खजाना लूट लिया गया। 17 दिसम्बर 1928 को सहायक पुलिस अधीक्षक जेजी सांडर्स्ट को गोली का निषाना बनाया गया। जलियावाला बांग काण्ड में बुरी तरह घायल लाला लाजपत राय के प्रति सहानुभूति में यह घटना हुई। दोनों घटनाओं में भगत सिंह की प्रमुख भूमिका थी।


गांधी जी ने देश की आजादी के लिए जिस फौज का निर्माण किया उसकी आधारशिला सत्य और अहिंसा पर आधारित थी। वे साध्य साधन की पवित्रता पर विशेष बल देते थे। गांधी जी की इस अहिंसा और उनके सत्याग्रह की धारणा से भगत सिंह पूर्णतः सहमत नहीं थे। भगत सिंह मानते थे कि साध्य के लिए कभी-कभी साधन में हिंसा की भी छूट दी जा सकती है।


भगत सिंह की यह धारणा थी कि “हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्णशांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके। हम मानव रक्त को बहाने के लिए अपनी विवशता से दुःखी हैं, परन्तु क्रांति द्वारा सबको सम्मान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के पोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति के अवसर पर कुछ न रक्तपात अनिवार्य है।”


भगत सिंह के मन-मस्तिक में फ्रांसीसी क्रांतिकारी बेला के ये शब्द गूंजते रहते थे ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत होती है।‘ 8 अप्रैल 1929 को ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेम्बली के सभागार में दमनकारी कानूनों के विरोध में बम और पर्चे फेंककर उन्होंने अंग्रेज सरकार को कड़ी चेतावनी दी थी।


यह स्मरणीय है कि बम धमाका करने के बाद भगत सिंह और साथी बटुकेष्वरदत्त दोनों अपनी जगह खड़े रहे। वे इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते रहे। कहते हैं कांग्रेस नेता भीमसेन सच्चर ने उनसे पूछा था आप लोगों ने अपना बचाव क्यों नहीं किया? भगत सिंह ने जवाब दिया ‘इंकलाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मजबूत होता है। अदालत में अपील से नहीं।‘ सेशन जज की अदालत में उन्होंने “हमने बम क्यों फेंके” से अपना उद्देष्य स्पष्ट किया। इस दौर में राजनीतिक बहस भी तेज हुई।

गांधी जी ने अपने साप्ताहिक पत्र ‘यंग इण्डिया में ‘कल्ट ऑफ दि बम (बम संस्कृति) शीर्षक लेख लिखा जिसका जवाब क्रांतिकारियों ने “बमका दर्शन” पर्चे द्वारा दिया। क्रांतिकारियों को आतंकवादी बताए जाने के विरोध में उक्त पर्चें में साफ कहा गया था कि आतंकवाद संपूर्णक्रांति नहीं और क्रांति भी आतंकवाद के बिना पूर्ण नहीं। इतिहास की किसी भी क्रांति केविश्लेषण से इसकी पुष्टि होती है।


अंग्रेज मजिस्ट्रेट की अदालत में पूछा गया कि उक्त क्रांतिकारियों के नारे इंकलाब से उनका क्या तात्पर्य है। इसके जवाब में जो ऐतिहासिक बयान दिया गया वह उल्लेखनीय है। भगत सिंह ने कहा क्रांति बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा प्रयोजन है कि अन्याय पर टिकी वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए। उत्पादक अर्थात मजदूर को शोषक उसके श्रम और फल के मौलिक अधिकारों से वंचित कर देते है। दूसरी ओर सबके लिए अन्न उगाने वाला किसान अपने परिवार समेत भूखों मरता है। बुनकर जो सारे संसार की मंडियों के लिए कपड़ा बुनता है, अपने और अपने बच्चों के तन तक नहीं ढक सकता है।

राजगीर, लोहार एवं तरखान जो शानदार भवनों का निर्माण करते हैं, गंदी झोपड़ियों में रहते हैं और वहीं दम तोड़ देते है। दूसरी ओर समाज का खून चूसने वाले पूंजीपति करोड़ो रूपया अपनी सनक पूरी करने में उड़ा देते हैं। इस भयंकर ना बराबरी और जबरदस्ती ठूंसे गए भेदभाव का परिणाम अफरातफरी होगा, यह स्थिति बहुत दिनों तक नहीं रह सकती। यह स्पष्ट है कि वर्तमान समाज व्यवस्था, जो दूसरों की मजबूरियों पर रंग रेलियां मना रही है, एक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठी है।

भगत सिंह का मानना था कि जब तक ईष्वर का बोलबाला रहेगा, तब तक इंसानों में कभी भाईचारा नहीं बढ़ेगा। यदि मनुष्य को एकता और भाईचारे के सूत्र में बांधना है तो मानव समाज को पहले ईष्वर के अस्तित्व से मुक्ति दिलानी होगी। ‘मैं नास्तिक क्यों हूॅं‘ निबन्ध में भगत सिंह ने लिखा था सिर्फ विश्वास और अंधविश्वास दोनों खतरनाक है, ये दिमाग को कुंद बना देते हैं।


भगत सिंह और उनके दूसरे कई साथियों का मत था कि धार्मिक कट्टरता सांप्रदायिकता की जड़ है। मार्च 1926 में लाहौर में उन्होंने नौजवान भारत सभा का गठन किया जिसे 1930 में गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसका सदस्य बनने से पहले हर युवक को शपथ लेनी पड़ती थी कि वह देश के हितों को अपनी जाति तथा धर्म के हितों से बढ़कर मानेगा।

भगत सिंह इस मत के थे कि समाजवाद से ही देश की समस्याओं का समाधान हो सकता है। भगत सिंह और सुखदेव ने अपने क्रांतिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ‘ के साथ इसीलिए “समाजवादी” शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा था। मार्क्स, लेनिन के अलावा रूसी क्रांति पर 23 वर्ष की उम्र में ही कई किताबें उन्होंने पढ़ रखी थी। और उससे वे काफी प्रभावित भी थे। 6 जून 1927 को उन्होेंने असेम्बली बमकाण्ड की सुनवाई के दौरान दिए गए अपने बयान में साफ कहा था ।”हमारा उद्देष्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना है जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुता को मान्यता दी जाए। इसका परिणाम यह होगा कि विश्व संघ मानव जाति को पूंजीवाद के बंधन तथा युद्ध से उत्पन्न होने वाली बर्बादी और मुसीबतों से बचा सकेगा।”

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि भगत सिंह भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं के प्रचार में रूचि लेते थे। श्रीमद् भागवत गीता से वे बहुत प्रभावित थे। उनकी दृश्टि में मानवता ही सबसे बड़ा धर्म था। आजाद भारत की एक कल्पना भी उनके मन में थी। लाहौर में बने प्रारम्भिक संगठन ‘नौजवान भारत सभा‘ के घोषणा पत्र में कहा गया था।

“भविष्य में देश को संघर्ष के लिए तैयार करने का प्रोग्राम इस नारे के साथ शुरू होगा जनता का इंकलाब और जनता के लिए इंकलाब। दूसरे शब्दों में स्वराज जो 98 प्रतिषत जनता के लिए हो”लोगों को यह बात महसूस कराने की जरूरत है कि भावी क्रांति का अर्थ सिर्फ शासकों की तब्दीली ही नहीं होगी। सबसे बढ़कर इसका अर्थ होगा, एक बिल्कुल नए ढांचे पर एक नए राजतंत्र की स्थापना करना।‘ उन्होंने यह भी लिखा था कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहे एक भारतीय ही क्यों न हो, उनका वह शत्रु है।

भगत सिंह इतिहास के इस और उस ओर खड़े ऐसे महानायक हैं जिनकी वैचारिकी और कर्म ने लाखों-करोड़ों लोगों को प्रेरणा दी। उनकी दृश्टि में एक नए भारत का सपना था। वह अधूरा रह गया पर भगत सिंह का विश्वास था कि नौजवान ही उसे पूरा कर सकते हैं। भगत सिंह ने तो ठान लिया था कि क्रांति की वेदी पर हम अपना यौवन की भांति जलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।


सच्चाई यह भी है कि-चिरविदा के अंतिम क्षण लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च 1931 को सुबह चार बजे ही वार्डेन चरत सिंह ने सभी कैदियों को अपनी-अपनी कोठरियों में चले जाने को कहा। जेल के नाई बरकत ने हर कमरे के सामने फुसफसा कर इतना बताया कि आज भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है। जेल में भगत सिंह कोठरी नं0 14 के कैदी थे जिसका फर्ष कच्चा था और बमुश्किल वे वहां लेट पाते थे।

फांसी से दो घंटे पहले भगत सिंह के वकील प्राणनाथ ने उनसे भेंट की थी क्योंकि भगत सिंह उनसे रिवोल्यूषनरी लेनिन पुस्तक मंगाई थी। उनके जाने के बाद ही तीनों क्रांतिकारियों को कहा गया कि उन्हें उसी दिन सायं 7 बजे फांसी दी जाएगी। भगत सिंह ने किताब का एक अध्याय खत्म करने तक जेल अफसरों से रूकने को कहा क्योंकि अभी एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल रहा है। जब तीनों क्रांतिकारियों को उनकी कोठरियों से बाहर निकाला गया, तीनों का वजन लिया गया तो सबके वजन बढ़े हुए थे। उन्होंने स्नान किया, काले कपड़े पहने।

जैसे ही जेल की घड़ी ने 6 बजे तीनों क्रांतिकारियों ने गाया- ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुएं कातिल में हैं।‘ उन्होंने जोर से नारा लगाया ‘इंकलाब जिंदाबाद, हिन्दुस्तान आजाद हो।‘ भगत सिंह ने अपनी मां को वचन दिया था कि वे मौत से पहले ये नारे लगाएंगे। तभी दूसरे कैदी भी नारे लगाने लगे। तभी मसीह जल्लाद ने एक-एक कर तीनों को फांसी लगा दी।इन वीर सपूतों को भयभीत अंग्रेज सरकार ने वक्त से 12 घंटे पहले फांसी दी। अगले दिन सुबह छह बजे के बजाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया गया। फांसी के तख्त पर भगत सिंह बीच में खड़े थे। जबकि दाएं-बाएं सुखदेव और राजगुरू थे।

बाहर खब़़र जाने पर जनाक्रोश से भयभीत अंग्रेज अफसरों ने जेल की पिछली दीवार तोड़कर एक ट्रक में तीन शव रखे और सतलज के किनारे जलाने का फैसला किया गया। तब तक रात के 10 बज चुके थे। अभी क्रांतिकारियों की चिताओं को आग लगी ही थी कि तमाम भीड़ को आते देख ब्रिटानी सैनिक भाग खड़े हुए। सारी रात गांव वालों ने वहां पहरा दिया। यह स्थान तीर्थ स्थल बन गया था। वहां की मिट्टी, धूल, खून से सने पत्थर या हड्डियों के टुकड़ों को लोगों ने हाथो हाथ उठा लिया। 23 वर्ष 5 माह की जिंदगी में ही शाहादत भगत सिंह ने हासिल कर ली थी। तीनों शहीद क्रांतिकारियों के सम्मान में तीन मील लम्बा शोक जुलूस निकला जो हाथों में काले झंडे लिए थे। लाहौर के माल से गुजरता हुआ जुलूस अनारकली बाजार के बीच पहुंचा। वहां एक मौलाना ने नज्म पढ़कर श्रद्धांजलि दी।

पूरे देश में भगत सिंह को फांसी की कड़ी प्रतिक्रिया हुई। 24 मार्च को पूरे देश में शोक मनाया गया। लाहौर के उर्दू दैनिक ‘पयाम‘ने लिखा कि “अंग्रेज खुश हैं कि उन्होंने खून कर दिया पर वो गलती पर है। उन्होंने अपने भविष्य में छूरा घोपा है। तुम जिंदा हो ओर हमेसा जिंदा रहोगे।”तीनों क्रांतिकारी नवयुवकों की फांसी की सजा रद्द करने की अपील प्रिवी कौंसल और तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन से की गई। गांधी जी फरवरी-मार्च में वायसराय से मिल। 16 दिन वार्ता चली। गांधी-इरविन समझौते में राजनीतिक बंदियों की रिहाई की बात थी वह सत्याग्रहियों के लिए थी। भगत सिंह की रिहाई की बात गांधी जी ने नहीं उठाई थी। वे इस मांग का औचित्य भी नहीं मानते थे। गांधी जी ने शहीदों के स्मारक निर्माण में सहयोग से भी इंकार कर दिया था। गांधी जी के रवैये की तब समाचार पत्रों में भी आलोचना हुई थी।

फ्रीप्रेस जर्नल ने तो गांधी-इरविन समझौते को देश की जनता के साथ गद्दारी करार दिया था। कराची में कांग्रेस अधिवेशन 1931 में हुआ जिसमें नौजवानों ने गांधी को माले झण्डे दिखाए और उनके खिलाफ नारे लगाए। सम्मेलन में भगत सिंह पर एक नरम प्रस्ताव भी पेश हुआ था।लेनिन ने कहा था-‘मनुष्य को एक ही जीवन रहने को मिलता है। वह इस प्रकार जिए कि मरते समय मन में यह खेद न उत्पन्न हो कि मैंने व्यर्थ खो दिया।‘ भगत सिंह की षहादत पर डॉ0 लोहिया ने कहा था ‘व्यक्तिगत रूप से कायर किसी देष की स्वतंत्रता के लिए उतने खतरनाक नहीं होते हैं, जितने सामाजिक और आर्थिक विशमता की समझ न रखने वाले वीर योद्धा और बढ़-चढ़कर बोलने वाले राजनीतिज्ञ होते हैं। अपने समकालीनों से कहीं ऊंचा भगत सिंह अपने समय से आगे थे। उन्होंने भारत के भविश्य की परिकल्पना आधी शताब्दी से पूर्व ही कर ली थी।


भगत सिंह की भविष्यवाणी थी ‘अंग्रेज की जड़े हिल चुकी हैं, वे पंद्रह साल में चले जाएंगे, समझौता हो जाएगा। पर उससे जनता को कोई लाभ नहीं होगा। काफी साल अफरातफरी में बीतेंगे। उसके बाद लोगों को मेरी याद आएगी‘‘ कहना न होगा कि भगत सिंह की बातें अक्षरश: सत्य साबित हो रही है। 16 साल बाद भगत सिंह की शहादत रंग लाई और ब्रिटिश साम्राज्य का अंत हो गया। वे लोगों की यादों में आज भी अमर हैं।


                 (लेखकः यशभारती सम्मान प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार हैं)