शरीरदान को प्रोत्साहन दिया जाय

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श्याम कुमार

‘अंगदान महादान’ की तरह ‘शरीर दान महादान’ का अभियान भी चलाया जाना चाहिए। ‘अंगदान’ में कई प्रकार की कानूनी अड़चनें विद्यमान हैं, जिन्हें समुचित रूप में दूर किया जाना चाहिए। लेकिन शरीर दान में कोई बाधा नहीं है। रूढ़िवादी परम्परा से मुक्त होकर अपना शरीर किसी मेडिकल काॅलेज को दान दे देने से चिकित्सा की पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों की उनकी पढ़ाई में मदद हो जाती है। अभी भी ऐसी खबरें आती हैं कि अनेक लोगों ने अपने जीवन-काल में अपना शरीर किसी मेडिकल काॅलेज को दान कर दिया और जब उनकी मृत्यु हुई तो उनका मृत शरीर मेडिकल काॅलेज वाले ले गए। शरीर -दान का यह अभियान पुण्य का कार्य है तथा इसे जोरदार ढंग से चलाया जाना चाहिए, ताकि अधिक से अधिक लोगों को इसके लिए प्रेरणा मिल सके। पर्याप्त प्रचार होने पर निष्चित है कि अधिक सख्ंया में लोग शरीर -दान के लिए आगे आएंगे।


स्थिर जल में सड़ांध उत्पन्न हो जाती है। हिन्दू धर्म की विशेषता है कि वह सदैव प्रगतिशील रहा है तथा समयानुसार अपनी परम्पराओं में स्वाभाविक रूप से परिवर्तन कर लिया करता है। हिन्दू धर्म में बुराइयों का समावेश होता है, किन्तु उनकी समाप्ति भी होती रहती है। हिन्दुओं में पहले मृत्यु के बाद शरीर को जमीन में दफना दिया जाता था, जिसके बाद उसमें सुधारकर मृत शरीर को जलाने की प्रथा शुरू हुई। अब शरीर -दान की प्रथा शुरू हुई है, जिसका रूप अभी लघु है, लेकिन भविश्य में निश्चित रूप से उसका बहुत विस्तार होगा। समय-समय पर शरीर दान को बढ़ावा देने वाले विज्ञापन समाचारपत्रों में प्रकाशिटत किए जाने चाहिए। जो लोग शरीर दान का फाॅर्म भरें, उन्हें जीवनभर कुछ विशेष सुविधाएं दी जानी चाहिए।


जनकल्याण हेतु शरीर दान करने का प्रथम उदाहरण महर्षि दधीचि का माना जा सकता है। उन्होंने इंद्र के अनुरोध पर अपना शरीर त्याग दिया था तथा उनकी मजबूत हड्डियों से वज्र तैयार हुआ था, जिससे इन्द्र ने राक्षसों का संहार किया था। संतोष की बात है कि जनकल्याण हेतु शरीर -दान की परम्परा अभी भी किसी न किसी रूप में है। लखनऊ-स्थित किंग जाॅर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय में अब तक काफी लोग शरीर -दान कर चुके हैं तथा काफी लोग शरीर -दान के लिए पंजीकरण करा रहे हैं। शरीर -दान के लिए अनेक युवा भी मरणोपरान्त देहदान का संकल्प कर रहे हैं। मेडिकल की पढ़ाई के लिए चिकित्सा-संस्थानों में छात्रों को अध्ययन हेतु मृत शरीर की आवश्यकता होती है, जिसका उनके पास अभाव रहता है। शरीर -दान के लिए किंग जाॅर्ज चिकित्सा विष्वविद्यालय के एनाॅटमी विभाग में एक फाॅर्म भरकर पंजीकरण कराना पड़ता है। वहां पंजीकरण के लिए सम्पर्क किया जा सकता है।


सुविख्यात वयोवृद्ध हास्यकवि सनकी जी ने भी अपना शरीर मरणोपरान्त दान के लिए पंजीकृत करा दिया था। सनकी जी लखनऊ के कालीचरण विद्यालय में अध्यापक थे और काफी पहले सेवानिवृत्त हो चुके थे। उनका कहना था कि जीवित अवस्था में उन्होंने विद्यार्थियों को पढ़ाया तथा मृत्यु के उपरान्त उनका मृत शरीर विद्यार्थियांे को पढ़ाएगा। सनकी जी का जीवन आदर्षमय था। शरीर -दान के विचार को अधिक से अधिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। योगी सरकार उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में मेडिकल काॅलेज खोलने जा रही है। जिला अस्पतालों को मेडिकल काॅलेजों में परिवर्तित कर दिए जाने का लक्ष्य है। वहां विद्यार्थियों को अध्ययन के लिए अधिक मानव-शरीरों की आवश्यकता होगी। अतः इसके लिए शरीर दान को बहुत बढ़ावा दिया जाना जरूरी है।

अतीत में शरीर का दाह-संस्कार करने की प्रथा जब आरम्भ हुई होगी तो संभवतः उसका मूल उद्देश्य यह रहा होगा कि जमीन में शव गाड़ने से धीरे-धीरे जमीन कम पड़ने लगेगी, अतः चिता बनाकर शरीर का दाह-संस्कार कर देना उचित है। अनेक लोगों का मत है कि वर्तमान समय में यह प्रथा औचित्य की कसौटी पर खरी नहीं रह गई है, क्योंकि उससे बहुत अधिक प्रदूषण फैलता है। इसके बजाय विद्युत-शवदाहगृहों अथवा गैस-शवदाहगृहों का अधिक से अधिक उपयोग होना चाहिए। मृत शरीर को बहा देने के बजाय आज के समय में विद्युत-शवदाह या गैस-शवदाह का उपयोग ही सर्वाधिक उपयुक्त एवं उचित है। जो धार्मिक कर्मकाण्ड लकड़ी की चिता बनाकर किए जाते हैं, वे वहां भी सम्पन्न हो सकते हैं।


रुढ़िवादी लोग तर्क देते हैं कि परम्परा चिता बनाकर अन्तिम संस्कार करने की है। वास्तविकता यह है कि जब व्यक्ति संसार से विदा हो जाता है तो उसके लिए इक्का-दुक्का लोगों के ही मन में सचमुच शोक होता है। अंत्येष्टि-स्थलों पर जो लोग शवयात्रा में आते हैं, उनमें अधिकांश लोग दिखावे के लिए आते हैं और वहां परस्पर गप्प लड़ाते देखे जा सकते हैं। हास्यकवि प्रदीप चैबे की प्रसिद्ध कविता ‘शवयात्रा’ में इसका चित्रण किया गया है। ऐसे लोगों की संवेदना पाने से अच्छा है कि व्यक्ति चुपचाप संसार से विदा हो जाय। उसके लिए बेमन से जो कर्मकाण्ड किए जाते हैं, उनसे क्या फायदा! जिस प्रकार मंदिरों में दर्शनार्थियों के आर्थिक शोषण की घटनाएं चर्चित हैं, उसी प्रकार अंत्येष्टि-स्थलों पर लकड़ी बेचने वालों से लेकर कर्मकाण्ड कराने वाले तक शोषण व लूट करते हैं।

 

गत वर्ष उन्नाव में लगभग दो सौ लाशें नदी में पाई गई थीं। रायबरेली में भी इसी प्रकार लाशें पाई गई थीं। उन लाषों के बारे में पता नहीं लग पाया कि वे कहां से आई थीं। तरह-तरह की बातें सुनने में आईं। कुछ लोगों का कहना था कि उत्तराखण्ड में जो त्रासदी हुई थी, वे लाषें वहां की थीं। अन्य सम्भावनाएं भी व्यक्त की गईं। वैसे भी नदियों में अकसर लावारिस लाशें पाई जाती हैं। ऐसे भी उदाहरण हैं कि लोग षव को जलाने के बजाय नदी में फेंक देते हैं। ऐसी समस्त लाशें नदी में बहाने के बजाय चिकित्सा-विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को अध्ययन के लिए दे दी जानी चाहिए।


सरकारी एवं सामाजिक, सभी स्तरों पर शरीर का दान किए जाने के विचार को अधिक से अधिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। मृत्यु के उपरान्त शरीर चिकित्साशास्त्र के विद्यार्थियों के अध्ययन के काम आ सके, इससे बढ़कर पुण्यकार्य क्या हो सकता है! शरीर -दान के साथ नेत्र आदि अंगों का भी दान कर दिया जाना चाहिए। नेत्रदान के लिए अलग से लिखाना पड़ता है। आंख के काॅर्निया के दान से किसी नेत्रहीन को ज्योति मिल सकती है। इस प्रकार व्यक्ति मरने के बाद भी किसी अन्य की आंखों के माध्यम से संसार को देख सकता है। जिस व्यक्ति को उसके काॅर्निया से ज्योति मिलेगी, उस व्यक्ति का आशीर्वाद दानकर्ता को सदैव प्राप्त होता रहेगा।