गांधी का ग्रामसमाज, चरखा और उद्योगीकरण——

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शिवकुमार

[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”इस समाचार को सुने”] निष्क्रिय प्रतिरोध अथवा सत्याग्रह की धारणा गाँधीजी ने टालस्टोय से प्राप्त की और सुखी, शांत, स्वायत्त भारतीय ग्राम समाजों की धारणा उन्होंने हेनरी मेन नाम के अंग्रेज लेखक से प्राप्त की। उन्होंने हिंद स्वराज्य के अंत में उन पुस्तकों की एक सूची दी है जिनसे वह प्रभावित हुए थे। इस सूची के आरंभ में टोलस्टोय की पुस्तकें हैं और अंत में हेनरी मेन की पुस्तक का नाम है। टोलस्टोय और हेनरी मेन, दोनों के विचारों से गाँधीजी का परिचय 19वीं सदी के अंतिम दशक में हो गया था। जून 1894 में उन्होंने नेटाल विधान-सभा में एक प्रार्थना पत्र दिया था। उसमें भारतीय जनतंत्र का उल्लेख हेनरी मेन की पुस्तक के आधार पर किया था। लिखा था : “जब एंगलो-सैक्सन जातियों को प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों का ज्ञान हुआ, उसके बहुत पहले से भारत-राष्ट्र चुनाव के अधिकारों से परिचित रहा है और उनका प्रयोग करता आ रहा है।

उस महान् कानून-विशारद और लेखक ने बताया है कि ट्यूटानिक मार्क पर जब तक शुद्ध शास्त्रीय रोमन स्वरूप की कलम नहीं लगा दी गई, तब तक वह उतना सुसंगठित या तात्विक रूप से उतना प्रातिनिधिक नहीं था, जितनी कि भारतीय ग्राम पंचायतें थीं।” जर्मनी के ग्राम समाज ‘मार्क’ कहलाते थे। ये आदिम साम्यवादी व्यवस्था के समाज थे। यहां व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी, सामूहिक संपत्ति थी जर्मनी पर रोम ने आक्रमण किया। इस तरह वहां के ग्राम-समाजों पर रोमन स्वरूप की शास्त्रीय मोहर लग गई। इससे पहले, मेन के अनुसार, ये जर्मन ग्राम समाज भी उतने जनतांत्रिक नहीं थे जितने भारतीय ग्राम-समाज थे। इन ग्राम समाजों की दूसरी विशेषता, मेन के अनुसार, यह थी कि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थे। रमेश चंद्र दत्त के लेखन की चर्चा करते हुए गाँधीजी ने लिखा: “श्री दत्त की दिलचस्पी स्वशासन की समस्या में और भारत के महान ग्राम समाजों को जिन्हें स्वर्गीय सर हेनरी मेन ने अपनी वर्णन-शैली में आत्मनिर्भर गणराज्यों के रूप में चित्रित किया है, पुनरुज्जीवित करने या कायम रखने में भी बहुत गहरी है।

भारत में कबीलाई समाज वैदिक काल में ही विघटित होने लगे थे। ऋग्वेद में व्यक्तिगत संपत्ति का उल्लेख है। समाज वर्णों में विभाजित होने लगा है। यहां सामूहिक संपत्ति और सामूहिक स्वामित्व का अभाव है। भारत में वर्ण-व्यवस्था और जाति-बिरादरी की प्रथा बहुत पुरानी है। समाज में ऊंच-नीच का भेद बहुत पुराना है। जहां समाज में ऊंच-नीच का भेद हो, वहां कोई आदर्श जनतंत्र हो ही नहीं सकता। जो समाज कबीलाई जीवन बिताते हैं, वे भी आपस में वस्तुओं का आदान-प्रदान करते हैं। जब श्रम का विशेषीकरण होता है. उत्पादन में तरक्की होती है, तब यह विनिमय का काम और भी तेजी से आगे बढ़ता है। भारत के जनपद आपस में निरंतर विनिमय और व्यापार करते रहे हैं। इसके अनेक प्रमाण इतिहास-ग्रंथों में दिए हुए हैं। अंग्रेजों ने यहां के उद्योग और व्यापार को नष्ट किया, उनके लिए यह स्थापना बड़ी मोहक थी कि उद्योग और व्यापार का विकास भारत में कभी हुआ ही नहीं। वह हमेशा स्वायत्त ग्राम समाजों का देश रहा है। गाँधीजी ने अनेक बार कहा है कि अंग्रेजों ने यहां के उद्योग और व्यापार का नाश किया। इस उद्योग और व्यापार को चलाने वाले व्यापारी कहां रहते थे? यहां की जहाजरानी प्रसिद्ध है। जहाज कहां बनाए जाते ये? पूंजी कौन लगाता था? भारत में व्यापार की बड़ी मंडियां थीं या नहीं? हड़प्पा-काल से लेकर गाँधीजी के समय तक भारत में बड़े नगरों का, व्यापार की बड़ी मंडियों का कभी भी अभाव नहीं रहा। ये मड़ियां कैसे कायम हुई? इन शहरों में रहने वालों को भोजन-वस्त्र कहां से प्राप्त होते थे? अंग्रेजों ने यहां के ग्राम समाजों का जो चित्र उपस्थित किया उसमें किसान, खेती के साथ कारीगर का काम भी करता था। साल का काफी समय वह खेती में लगाता था, बाकी समय दूसरे धंधों में खर्च करता था। पर कुछ कबीलाई प्रदेशों को छोड़कर किसानी और कारीगरी का अलगाव भारतीय समाजों की विशेषता रहा है। मेन जैसे लेखकों ने इस अलगाव को मिटाकर कारीगरी और किसानी को मिला दिया था। यदि ऐसा होता तो बुनकरों और व्यापारियों के अलग-अलग वर्ग बनते ही नहीं। प्राचीन भारत में गुजरात, राजस्थान और सिंघ उद्योग और व्यापार में बहुत आगे बढ़े हुए थे। देश के भीतर ही नहीं, बाहर भी उनके व्यापार का तानाबाना फैला हुआ था। इसी परंपरा में भारत के बहुत से व्यापारी दक्षिण अफ्रीका और पूर्वी अफ्रीका पहुंचे थे। उनके बीच गाँधीजी ने काम किया था। वे जो माल बेचते थे, वह अपने घरों में तैयार न करते थे। उसे कुशल कारीगर तैयार करते थे, इसीलिए इंग्लैंड और यूरोप के व्यापारियों को खुली होड़ में ठहरना बहुत कठिन मालूम होता था।

फरवरी 1920 में गांधीजी पंजाब के जलालपुर जट्टा नाम के गांव पहुंचे। वहां केवल बुनकर रहते थे। उन्होंने लिखा है, “उसे केवल बुनकरों का गांव कहा जा सकता है। वहां की स्त्रियां कातती हैं और मर्द बुनते हैं।” यह श्रम विभाजन का पुष्ट प्रमाण है। बुनकर खेती नहीं करते। जो खेती करते हैं, वे कातने और बुनने का काम नहीं करते। श्रम-विभाजन इस हद तक बढ़ गया है कि एक गांव बुनकरों की बस्ती बन गया है।हेनरी मेन से ग्राम-समाजों की धारणा प्राप्त करके उससे चरखे और करघे का संबंध जोड़ना कठिन नहीं था। इस काम में थोड़ा समय लगा। हेनरी मेन की पुस्तक से तो गाँधीजी का परिचय 1894 में ही हो गया था। किंतु ग्राम समाजों से चरखे का संबंध जोड़ने और भारत की गरीबी दूर करने के लिए चरखे को मुख्य साधन बनाने में उन्हें काफी समय लगा। नवंबर 1917 में गुजराती हिंदू स्त्री मंडल को अपने संदेश में गाँधीजी ने लिखा: “विधवाएं अभी मंदिरों में अथवा कथित साधु-संतों की सेवा में अथवा गप्पें हांकने में अपना समय गंवाती हैं। मंदिर जाने में ही धर्म है, मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता। लेकिन सदुद्देश्य को दृष्टि में रखकर मंदिर जाने से कुछ फायदा नहीं होता, मैं यह भी नहीं कहना चाहता। परंतु अन्य कार्यों को छोड़कर मंदिर में बैठना परमार्थ की पराकाष्ठा है, यह विचार तो कोरा भ्रम जान पड़ता है। उसी प्रकार जिन साधु-संतों को किसी प्रकार की सेवा की आवश्यकता नहीं है, उनके पास बैठे रहने से दोनों की ही हानि और व्यर्थ का कालक्षेप है। ऐसी प्रवृत्तियों से विधवाओं को हटाकर हिंदुस्तान का उपकार करने की परमार्थिक प्रवृत्ति में उन्हें फिर लगाना ही उनका शुद्ध पुनर्विवाह है। शिक्षित स्त्रियां ऐसा साहस क्यों नहीं करतीं? ऐसा काम करने की इच्छुक स्त्रियों को पहले तो स्वयं उद्योग की पाठशाला में पहला पाठ पढ़ना होगा, कातना होगा तथा खट्टियों पर कपड़ा बुनना होगा।” विधवाएँ मंदिर में निठल्ली न बैठें, साधुओं और संतों के साथ व्यर्थ समय न गंवाएं। इसके बदले वे सूत कातें, यह एक प्रगतिशील विचार था लेकिन वह उनके पुनर्विवाह का स्थान न ले सकता था। यदि पुरुष को पुनर्विवाह का अधिकार है तो वह अधिकार नारी को भी होना चाहिए। यहां अभी एक सामयिक समस्या हल करने के लिए कताई के सीमित उपयोग की बात कही गई है। शीघ्र ही भारत की गरीबी दूर करने से उसका संबंध भी जोड़ा गया।

अगस्त 1919 में गाँधीजी ने गोधरा की सार्वजनिक सभा में जो कुछ कहा, उसमें चरखे और गांवों से संबंधित उनकी अनेक स्थापनाएँ आ गई हैं। भारत गरीब क्यों है? इसलिए कि “हमने सन् 1917-18 में भारत से बाहर के उत्पादकों को साठ करोड़ रुपयों की भारी रकम दी और अपने हजारों कातने-चुनने वालों के लिए कोई उल्लेखनीय दूसरा धंधा भी नहीं जुटाया। इस प्रकार श्रम का यह समूचा स्रोत जैसे एक वेगपूर्ण जलप्रवाह की तरह व्यर्थ ही बहने के लिए खोल दिया गया है।” गरीबी दूर करने के लिए किसानों को क्या करना चाहिए? गाँधीजी कहते हैं, “देश में 21 करोड़ किसान हैं। मेरे अपने अनुभव और अधिकारी लेखकों के अनुभव से यह स्पष्ट है कि साल में लगभग चार महीने इनके पास कोई काम नहीं रहता। फिर ताज्जुब क्या कि वे गरीब हैं? शक्ति का यह बहुत बड़ा अपव्यय है। इसीलिए स्वदेशी की समस्या किसानों को कातने-चुनने का एक अनुपूरक धंधा अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने की समस्या है।” किसान खेती करें, यह उनका मुख्य धंधा होगा। लेकिन अपना खाली समय वे कातने-चुनने में लगाएँ, यह उनका अनुपूरक धंधा होगा। इस तरह वे किसानी करेंगे और कारीगरों का काम भी करेंगे। किसानी और कारीगरी के अलगाव से जो श्रम का विशेषीकरण हुआ था, वह गांधीजी की योजना में समाप्त हो रहा था। लेकिन भारत में विलायती कपड़ों की खपत गरीबी का एकमात्र कारण नहीं थी। अंग्रेजों की फौज और उनका पूरा शासन तंत्र यहां किसानों के शोषण पर निर्भर था। किसानों के ऊपर राजा और जमींदार थे और उनके ऊपर राजकर्मचारी और अंग्रेज थे। इस दोहरे उत्पीड़न से किसान पिसा जा रहा था इसीलिए आए दिन भारत में अकाल पड़ते थे और लाखों किसान जान से हाथ धो बैठते थे। भारत में अंग्रेजों की हिंसा के तीन
रूप देखने में आए। एक तो वे युद्ध करते थे वहा प्रत्यक्ष बहुत से लोग मारे जाते थे। दूसरे, हिंदू-मुस्लिम तनाव पैदा करके वे जगह-जगह दंगे आयोजित करते थे और वहां रक्त बहता था। इसके सिवा आए दिन भुखमरी फैली रहती थी और इस भुखमरी में लाखों किसान मरते थे। इस हिंसा के लिए भी अंग्रेज जिम्मेदार थे। विलायती कपड़े की बिक्री से जो धन विलायत जाता था उसमें किसानों का हिस्सा बहुत थोड़ा था। वे देहाती गंजी गाड़ा पहनते थे या लंगोटी बांधकर रहते थे। उनके लिए मूल समस्या कपड़े की नहीं अन्न की थी। अन्न उन्हें कैसे मिले? यह अन्न चरखे के द्वारा उन तक न पहुंचाया जा सकता था। जनवरी 1946 में रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन में गांधीजी से पूछा गया जब गरीब आदमी अपनी आय का 80 प्रतिशत से अधिक भाग खाने के ऊपर और केवल 12 प्रतिशत ही कपड़े के ऊपर खर्च करता है, तब खादी उत्पादन से गरीबों को किस तरह मदद पहुंचेगी ?

गाँधीजी ने उत्तर दिया कि “अगर खद्दर की मदद से आम लोगों की आमदनी में कुछ आनों की भी वृद्धि हो सके तो सार्थक होगा। आज तो खादी केवल भारत तक ही सीमित है, लेकिन मैं उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूं जब खादी संसार में सर्वत्र फैल जाएगी। पहला कदम मेरी दृष्टि में यह है कि खादी भारत के सभी चालीस करोड़ लोगों में फैल जाए।” सारी दुनिया में खादी के फैलने की बात बहुत दूर थी, भारत में खादी का प्रसार तभी हो सकता था, जब मिलों में बना हुआ कपड़ा बिकना बंद हो जाए। मिलें तो चालू थीं और स्वदेशी आंदोलन से, विलायती माल के बहिष्कार से, मिल-मालिक मुनाफा भी कमा रहे थे। किंतु यदि भारत के सभी लोग खादी पहनने लगे और सभी किसान कताई-बुनाई करने लगे, तब भी भारत की गरीबी की समस्या हल होने वाली नहीं थी। इसलिए कि किसान जो कमाते थे, उसका बहुत बड़ा भाग अंग्रेजों के पास पहुंच जाता था। जब तक उस शोषण को बंद न किया जाए, तब तक खादी के प्रसार से समस्या हल होने वाली नहीं थी। खादी और चरखे का प्रसार यह भ्रम पैदा करता था कि जमींदारों और अंग्रेजों से लड़े बिना भारत की गरीबी दूर की जा सकती है।

इस समस्या का एक पक्ष यह भी था कि अंग्रेज भारत के उद्योगिकीरण के विरुद्ध थे। वे यहां के औद्योगिक विकास में भरसक अड़ंगे लगा रहे थे। वे चाहते थे यहां केवल उनके देश का बना हुआ माल दिके, कपड़े ही नहीं, अन्य वस्तुएँ भी जो विलायत में बनती थीं, भारत में बिकें भारत का उद्योगिकीकरण न होना चाहिए, यहां लोग चरखा चलाकर ही सतयुग ला सकते हैं, इस तरह की स्थापना अंग्रेजों की नीति के अनुकूल थी। यदि बड़े पैमाने पर खादी तैयार की जाती, तो उसे वितरित करने गांवों के जुलाहे या किसान न जा सकते थे। व्यापारियों की जरूरत फिर भी होती और समाज वर्गों में विभाजित होता। सारी दुनिया में खादी फैलाने का विचार या तो उसके लिए जहाज भी आवश्यक थे जहाज बनाना उद्योगीकरण के बिना संभव नहीं था। इंग्लैंड में जिस तरह औद्योगिक क्रांति हुई, उससे विकट वर्ग-उत्पीड़न शुरू हुआ अनेक अंग्रेज लेखकों ने औद्योगिक क्रांति के हानिकारक परिणाम देखकर उसका विरोध किया। गांधीजी भी उद्योगिकीकरण का विरोध कर रहे थे। उसमें पूंजीवादी वर्ग-संबंधों का विरोध भी शामिल था। परंतु भारत में उद्योगिकीकरण तो हुआ, स्वदेशी आंदोलन के फलस्वरूप भारतीय उद्योग-धंधों का सीमित विकास भी हुआ। इस विकास से कांग्रेस को लाभ हुआ और एक सीमा तक गाँधीजी को भी उससे कुछ सुविधाएँ प्राप्त हुई। रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन में उन्होंने कहा यदि मेरे पास 50 मोटरें हों, या दस बीघा जमीन भी हो तो मैं अपनी कल्पना की आर्थिक समानता स्थापित नहीं कर सकता। इसके लिए मुझे अपने को गरीब-से-गरीब आदमी के स्तर पर लाना होगा। पिछले पचास साल या उससे भी ज्यादा से में यही करने की कोशिश कर रहा हूं और इसीलिए मैं सबसे बड़ा कम्युनिस्ट होने का दावा करता हूं, हालांकि में अमीरों द्वारा प्रदान की गई मोटरों या अन्य सुविधाओं का उपयोग करता हूं। मेरे ऊपर उनका कोई दबाव नहीं है, और अगर जन-साधारण के हितों के लिए आवश्यक होगा, तो मैं उन्हें एक मिनट के नोटिस पर छोड़ सकता हूं।” पूंजीपतियों की मोटरें तो गाँधीजी छोड़ सकते थे परंतु रेलगाड़ी के बिना वे देश में यात्रा कैसे करते? कांग्रेसी नेताओं में सबसे ज्यादा यात्राएं गांधीजी ने की थी।

मई 1927 में गाँधीजी ने उद्योगिकीकरण के बारे में कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। पहली यह कि पश्चिम के जिन देशों में ग्रामीण उद्योग-धंधों का नाश किया गया, वहां कारखाने भी लगाए गए और बहुत से लोगों को काम मिला। “पश्चिम में तो जिन ग्रामीणों के गृह उद्योग नष्ट किए गए, उन्हें तुरंत ही दूसरा धंधा मिल गया और इसलिए उनको कुछ तो काम जुटा दिया गया, लेकिन यहां उन लोगों में बहुत थोड़े से लोगों को ही कोई दूसरा काम मिला है, जिनकी रोजी धान कुटाई की मिलों ने छीन ली है और उनमें से अधिकांश तो बेकार और दरिद्र ही हो गए हैं।” भारत में औद्योगीकरण अंग्रेजों की छत्रछाया में हो रहा था। यहां के और पश्चिम के उद्योगीकरण में बुनियादी अंतर था। गाँधीजी जिस उद्योगीकरण का विरोध कर रहे थे, उसमें साम्राज्यवाद का विरोध भी शामिल था। 26 जनवरी के घोषणा पत्र में भी उन्होंने कहा था, “गांव के उद्योग धंधे जैसे कि हाथ कताई नष्ट कर दिए गए हैं…जो हुनर इस तरह नष्ट हो गए हैं, उनके बदले में और देशों की भाँति कोई नया धंधा भी नहीं मिल सका है।”सन् 27 वाली टिप्पणी में उद्योगीकरण का सीमित उद्देश्य उन्होंने इस तरह या पाठक जल्दबाजी में यह नतीजा भी न निकाल लें कि हाथ-कताई का यह आंदोलन सभी प्रकार की मशीनों पर अविवेकपूर्वक चोट करता है। इस आंदोलन का उद्देश्य तो केवल ऐसी शक्तिचालित मशीनों का स्थान लेना है, जो भूखों मरने वाले करोड़ों लोगों के नैतिक और आर्थिक हितों को हानि पहुंचाती हैं।” पिछड़े हुए देशों के औद्योगिक विकास के लिए संरक्षण की नीति जरूरी हो सकती है। इस प्रसंग में गाँधीजी ने जर्मनी का उदाहरण दिया। कर-मुक्त व्यापार की नीति, इंग्लैंड के लिए भले ही फायदेमंद साबित हुई हो पर उसी नीति पर यदि जर्मनी में अमल किया जाता तो वह निस्सदेह जर्मनी को तबाह कर देती। इस समय भूमंडलीकर और उदारीकरण की जो नीति चलाई जा रही है, वह भारत को तबाह ही कर रही है। “जर्मनी की समृद्धि तो इसलिए हुई कि उसके विचारकों ने गुलामों की तरह इंग्लैंड का अनुकरण करने की बजाय अपने देश की खास परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपनी अर्थ नीति ऐसी बनाई जो उनके देश के लिए अनुकूल थी।” गाँधीजी ने इस टिप्पणी में यह भी कहा कि “इंग्लैंड और जर्मनी जसे देशों द्वारा औद्योगिक शोषण भारत के लिए संभव नहीं है और न उसे उसकी ओर बढ़ना चाहिए और ज्यों ही इंग्लैंड और जर्मनी द्वारा शोषित देश संभल जाएंगे और अपना शोषण नहीं होने देंगे, त्यों ही इन दोनों देशों को अपनी अर्थ-नीति बदलनी पड़ेगी क्योंकि इन दोनों देशों की सभ्यता दूसरे देशों के शोषण पर आधारित है। हमें याद रखना चाहिए कि यदि हम इस तरह किसी देश का शोषण करना भी चाहें तो आज हममें वैसा करने की शक्ति नहीं है। इसीलिए यदि हमें एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जीना है तो हमें अपनी अर्थ-नीति और स्थिति ऐसी बना लेनी चाहिए जो हमारे विकास के अनुकूल हो।” यहां उद्योगीकरण का सापेक्ष विरोध है, निरपेक्ष विरोध नहीं है।

गाँधीजी ने हेनरी की पुस्तक के आधार पर भारत को अपरिवर्तनशील ग्राम समाजों का देश माना। भारत में उद्योग धंधों का विकास हुआ। बड़ी-बड़ी मंडियों के रूप में नगर आबाद हुए। इनमें परस्पर व्यापारिक संबंध स्थापित हुए और इस देश के व्यापारियों ने दूसरे देशों से भी व्यापार किया गुजरात इस क्षेत्र में सबसे आगे था और आश्चर्य की बात है कि वहीं जन्म लेने वाले गाँधीजी ने नगरों के अस्तित्व को लगभग नकार दिया। अंग्रेजी राज में जब बहुत से गुजराती व्यापारी अफ्रीका पहुंचे, तो वे एक पुरानी परंपरा का ही अनुसरण कर रहे थे। स्वायत्त ग्राम समाजों के अस्तित्व को अटल सत्य मानकर गांधीजी ने उनका संबंध चरखे से जोड़ा चरखा चलाकर, करघे पर कपड़ा बुनकर भारत अपनी गरीबी मिटा सकता है, यह मंत्र उन्होंने सिद्ध करना चाहा। परंतु भारत दिन-पर-दिन गरीब होता जा रहा था। यहां मुख्य समस्या अन्न की थी। कपड़े के बिना भी काम चल सकता था। स्वदेशी आंदोलन का एक फल यह हुआ कि भारतीय व्यवसायियों को मशीनों के जरिए उद्योग-धंधे कायम करने का रास्ता दिखाई दिया। व्यापारियों से और उद्योगपतियों से गाँधीजी का घनिष्ठ संबंध था। साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध भारतीय उद्योग धंधों का विकास यहां की जनता के हित में या हिंदी प्रचार के लिए, हरिजन उद्धार के लिए बहुत सा पैसा गांधीजी ने व्यवसायियों से प्राप्त किया। उद्योगपतियों में गाँधीजी के सबसे बड़े सहायक घनश्याम दास बिड़ला थे। गाँधीजी को अपने राजनीतिक कार्यक्रम के लिए आवश्यक धन गांवों के गरीब किसानों से न मिलता था। वह व्यवसायियों से और शहर के धनी लोगों से मिलता था। इसमें अनुचित कुछ भी नहीं था। परंतु यदि कांग्रेस में मजदूर वर्ग प्रमुख होता तो उस तरह सहायता मिलती, इसमें संदेह है। “गरीब आदमी अपनी आय का 80 प्रतिशत से अधिक भाग खाने के ऊपर और केवल 12 प्रतिशत भाग ही कपड़े के ऊपर खर्च करता है।

इसलिए चरखा चलाने से, खद्दर पहनने से अन्न की समस्या हल न की जा सकती थी। • सत्याग्रह की बात तो गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सोच ली थी। परंतु चरखा चलाने की बात उन्हें उस समय वहां न सूझी थी। उन्होंने कुछ भेंट करने वालों से कहा: “जब में दक्षिण अफ्रीका में था, यदि उस समय मैंने चरखे की खोज कर ली होती तो मैंने अफ्रीकियों के बीच जो फीनिक्स में मेरे पड़ोसी थे, उसका प्रचार कर दिया होता।”

दूसरे महायुद्ध के दौरान और उसके बाद देश में दुर्भिक्ष की हालत पैदा हुई। इस हालत में समस्या का समाधान चरखा चलाने से न हो सकता था। किसी भी तरह अन्न उपजाना जरूरी था। गांधीजी ने कहा “यह निश्चित मानकर चलना चाहिए कि हमें अनाज के संकट का सामना करना पड़ेगा।” संकट आने पर क्या करेंगे? “हरेक आदमी जिसे पानी की सहूलियत मिल सकती हो, अपने लिए या आम लोगों के लिए कुछ-न-कुछ खाने की चीजें पैदा करे। इसका सबसे आसान तरीका यह है कि थोड़ी साफ मिट्टी इकट्ठा कर ली जाए, जहां मुमकिन हो वहां उसमें खाद मिला ली जाए-थोड़ा सूखा गोबर भी अच्छी खाद का काम देता है और उसे मिट्टी के या टीन के गमले में डाल दिया जाए। फिर उसमें साग-सब्जी के कुछ बीज जैसे राई, सरसों, धनिया, मेथी, पालक, बथुआ वगैरह वो दिए जाए और उन्हें रोज पानी दिया जाए। इसके अलावा “फूलों के तमाम बगीचों में खाने की चीजें उगा दी जानी चाहिए। इस बारे में में यह कहना चाहूंगा कि वायसराय, गवर्नर और दूसरे ऊंचे अफसर इसमें पहल करेंगे।”

जून 1945 में एक सज्जन ने गांधीजी से पूछा था “आपने हाल में उन बड़े-बड़े उद्योगपतियों के खिलाफ एक जोरदार वक्तव्य दिया है जो सरकार के बाहर भाषण तो देते हैं पर थोड़े से टुकड़ों की खातिर सरकार का समर्थन करके अपने ही कथन को झूठा साबित कर देते हैं… क्या आप यह प्रबंध नहीं कर सकते कि कांग्रेस से इस तरह अनुचित नाभ न उठाया जाए?” गाँधीजी ने उत्तर दिया “कांग्रेस बड़े उद्योगपतियों के विरुद्ध कभी नहीं रही और मेरा ख्याल है कि वह तब तक उनके विरुद्ध होगी भी नहीं जब तक कि उसे आशा हो कि वह उनके द्वारा अपने मतलब के लिए प्रयुक्त होने के बजाय राष्ट्र हित में उनका प्रयोग कर सकेगी।” ये उद्योगपति चरखा चलाकर नहीं, कारखानों में मशीने चलवाकर धनी बने थे। गांव के लोग खुशी से अपना घरवार छोड़कर शहरों में काम करने नहीं आते। जब उनकी रोटी-रोजी के जरिए वहां बंद हो जाते हैं तब मजबूरी में वे कारखानों में काम करते हैं। रस्किन मानते हैं व्यापारी का धंधा भी लोगों के लिए जरूरी होता है। क्यों जरूरी होता है? इसलिए जरूरी होता है कि एक जगह का माल दूसरी जगह पहुंचाना होता है। लोग छोटे से मोहल्ले या गांव में रहें तो एक-दूसरे को अपना माल ले-दे सकते हैं। तब विनिमय के लिए अलग आदमी की जरूरत न होगी। लेकिन गांवों के बीच, गांवों और शहरों के बीच, दूर-दूर के शहरों के बीच, माल पहुंचाने के लिए ऐसे आदमी की जरूरत होती है जो स्वयं उत्पादक न हो।

उत्पादकों से माल लेकर वह दूसरी जगह माल पहुंचाता है, वहां से माल लेकर तीसरी जगह पहुंचाता है। इसी जरूरत से घरेलू बाजार कायम होता है। मनुष्य की आवश्यकताएं बढ़ती हैं। बाजार का दायरा बढ़ता है। तब पुराने धंधे में जो चीजें बनाई जाती हैं, उनसे काम नहीं चलता। पुराने शिल्पी कारखानों में एकत्र होते हैं, यहां मिलकर माल तैयार करते हैं। फिर इन कारखानों में मशीनें लगाई जाती हैं और उनसे माल तैयार किया जाता है। इस सारे विकास की जड़ में विनिमय या व्यापार है। बाजार में मांग न हो तो मशीनों से कारखाने चलाने की जरूरत भी न पड़े। इंग्लैंड में बड़े-बड़े जमीदारों ने किसानों को बेदखल कर दिया। उनकी जमीन छीन ली। उस पर खेती कराने के बदले वे भेड़ें चरवाने लगे। भेड़ों की ऊन बेचने से ज्यादा मुनाफा होता था। बेयर किसान दर-दर मारे-मारे फिरते थे। उनके खिलाफ बहुत से कानून बनाए गए इन लोगों की दशा का चित्रण शेक्सपियर ने किंग लियर के तीसरे अंक में और मार्क्स ने पूंजी के प्रथम खड़ में किया है। बेजमीन किसान कारखानों में काम न करते तो भूखों मरते। इसलिए कारखाने लगाने वाले पूंजीपति और उनमें काम करने वाले मजदूर किसी भावना के वश होकर अपना काम न कर रहे थे। वे वस्तुगत नियमों से परिचालित होकर यह सब कर रहे थे। उनके काम का परिणाम क्या होगा, यह वे स्वयं न जानते थे।

गाँधीजी सोचते थे, भारत में उद्योगीकरण हुआ तो इंग्लैंड की तरह यहां भी तबाही होगी। क्रांतिकारियों और उद्योगपतियों को एक ही तराजू में तोलते हुए उन्होंने कहा “जिस प्रकार पाप कर्म द्वारा-अंग्रेजों को मारकर-सच्चा स्वराज्य नहीं मिल सकता, उसी प्रकार भारत में कारखाने खोल देने से भी स्वराज्य मिलने का नहीं। सोना-चांदी इकट्ठा होने से कोई स्वराज्य नहीं मिल जाएगा। इस बात को रस्किन ने बड़ी स्पष्टता के साथ सिद्ध किया है।” ब्रिटेन और भारत की स्थिति में एक बुनियादी अंतर था। भारत का सोना-चांदी लूटकर अंग्रेज अपने देश लिये जा रहे थे। इसे वह पूंजीवादी विकास के लिए इस्तेमाल कर रहे थे। वे चाहते थे कि भारत में उद्योग-धंधों का विस्तार न हो जिससे वह कच्चा माल देने वाला महादेश बना रहे और उनका तैयार माल खरीदने वाला बाजार रहे। भारतीय धन की लूट को रोकने और भारत के स्वाधीनता संग्राम की प्रगति के लिए यहां उद्योग-धंथों का विकास आवश्यक था। भारत में अंग्रेजी राज्य न होता तो यहां भी अन्य देशों की तरह गांव के उद्योग-धंधों का नाश होने पर नए धंये शुरू किए जाते। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि इंग्लैंड में किसानों की दशा अर्धदासों जैसी थी। ये बड़े-बड़े सामतों के गुलाम थे। गरीब किसानों ने जहां-तहां विद्रोह किया। उनके विद्रोह आसानी से दबा दिए गए। हड़तालों में गरीब किसान जब मजदूर बने तो कम से कम पूंजीपतियों से टक्कर लेने के लिए उनको अधिक सुविधा हुई। भारत जाति प्रथा का चलन था, ऊंच-नीच का भेदभाव था, अछूतों की दशा शोचनीय थी। कारखानों में काम करने से मजदूरों में नया भाईचारा कायम हुआ, जाति प्रथा के बंधन में ढीले हुए, अछूतों की दशा में कुछ सुधार हुआ लेकिन पूंजीवाद सामंती व्यवस्था से समझौता करता है। वह ऊंच-नीच का भेदभाव मिटा नहीं पाता। वरन् नए तरह के भेदभाव पैदा करता है। गाँधीजी जब इंग्लैंड गए तब वहां गरीब मजदूरों की बस्ती में ठहरने पर उन्हें ऐसा लगा कि वह भारतीय अछूतों की बस्ती में रह रहे हैं। 11 मार्च, 1946 को उन्होंने अमृतलाल ठक्कर को लिखा: “तुम्हें मालूम है कि गोलमेज परिषद् के दौरान भी मैं इस ईस्ट एंड में ठहरा था। ईस्ट एंड को लंदन की हरिजन बस्ती कहा जा सकता है। जिस कमरे में में रहता था, उसमें मुश्किल से दो व्यक्तियों के लिए जगह थी। फर्नीचर के नाम पर बस दराजों वाली एक अलमारी थी-न कुर्सी, न मेज। फर्श पर सोना पड़ता था। चारों ओर गंदी बस्तियां थीं।” इस सामाजिक विषमता को समाजवाद ही निरस्त कर सकता है। रस्किन के आधार पर गाँधीजी ने पूंजीवाद की जो आलोचना की, वह उनके परवर्ती लेखन में पुष्ट होती दिखाई देती है: मिलें, वे तो चंद उद्योगपतियों के हाथों में ही धन और श्रम को केंद्रित कर देंगी।” यह पूंजीवाद की विशेषता हुई कि वह उद्योगपतियों के हाथ में धन और श्रम को केंद्रित करता है। “मिल-मालिक शोषक हैं। मिल मालिक जो शोषण कर रहे हैं वह बहुत अनुचित है। जब रूई का दाम नौ रुपए है तब सूत का दाम 34 रुपए क्यों हो?” [/Responsivevoice]

श्रोत- राज्य अभिलेखागार पुस्तकालय, लखनऊ