विद्यार्थियों की सभा महात्मा गांधी का भाषण

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आगरा में विद्यार्थियों की सभा महात्मा गांधी का भाषण।

शिवकुमार

[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”इस समाचार को सुने”] 23 नवम्बर, 1920,मुझे यहां आकर जितना दुःख हुआ है उतना किसी अन्य स्थान पर नहीं हुआ था। मैं जो काम करने आया हूं इस गड़बड़ी के बीच वह नहीं किया जा सकता। जहां की व्यवस्था इतनी बुरी है वहां मै विद्यार्थियों से कालेज छोड़ने के लिए कैसे कह सकता हूं? गुलामी की जंजीर की चमक से हमारी आंखें चौधिंया रही है। हम उसे अपनी स्वतन्त्रता की निशानी मान बैठे हैं। यह हमारी अत्यन्त हीन गुलाम अवस्था का सूचक है।हमारे मन में तिलक महाराज के प्रति चाहे कितनी ही भक्ति क्यों न हो लेकिन उस भक्ति-भावना को क्या कोई विद्यार्थी खुलकर अभिव्यक्त कर सकता है ? हमारा जीवन ही कायरता का पर्याय बन गया है। जो तालीम हमें भयहीन नहीं बना पाती, बल्कि जो भय को पुष्ट करती है वह तालीम किस काम की ?जिस शिक्षा में सचाई से चलने का अवकाश नहीं, देश भक्ति को अवकाश नहीं,वह कैसी शिक्षा है ?लेकिन मेरा यह कहना नहीं है कि तालीम बुरी है, केवल इसलिए उसका त्याग कर देना चाहिए। मेरा कहना यह है कि चूंकि यह तालीम हमें गुलामी में रखनेवाले लोगों द्वारा मिलती है, इसलिए हम उसे ग्रहण नहीं कर सकते। गुलामों का मालिक हमें स्वतन्त्रता का पाठ नहीं पढ़ा सकता। इस साम्राज्य में मलिनता आ गई है और यह राक्षसी साम्राज्य अगर मुझे स्वतन्त्रता की तालीम देना चाहता हो तो भी मैं उसे नहीं ले सकता।यह शिक्षा चाहे कैसी भी क्यों न हो, लेकिन देखिए कि उसके मूल में क्या है? मोटी-मोटी पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं, इससे आप क्षुब्ध क्यों होते हैं?

वे पुस्तकें आपको स्वतन्त्रता की सच्ची तालीम नहीं दे सकतीं, केवल भरमाती हैं। वस्तुतः देखा जाय तो राष्ट्र का पैसा चुराकर हमें उससे ऐसी भुलावे में डालनेवाली शिक्षा दी जाती है, जो चोरी करके उसमें से थोड़े से पैसे देकर नशाखोरी सिखाने के समान है।(बचपन में) मैं माता-पिता के प्रति भक्ति रखनेवाला, श्रवण जैसी भक्ति रखनेवाला लड़का था। मुझे ईश्वर में भी विश्वास था। यह सच है कि माता पिता के प्रति भक्ति रखनेवाला मै आज माता-पिता की अवज्ञा करने को कहता हूँ। लेकिन माता-पिता को जन्म देनेवाला भी भगवान है और जह ईश्वर और माता-पिता की आज्ञा मानने में चुनाव करना पड़े, वहाँ मैं आपसे ईश्वर की आज्ञा मानने के लिए कहता हूं।जिनके दिल से यह आवाज आये कि जैसा मैंने बताया है वैसे साम्राज्य-द्वारा संचालित स्कूलों में आजादी की शिक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती, जिन्हें यह ईश्वरीय निर्देश प्राप्त हो कि आजादी पाने के लिए इस गुलामी से छूटना चाहिए, उन्हें माता-पिता को विनयपूर्वक समझाना चाहिए। यदि आपको यह जान पड़े कि यह घर जल रहा है और इसे तत्काल छोड़ने में ही छुटकारा है तो उसे छोड़ देना चाहिए। मैं तो इस साम्राज्य में पल-भर भी नहीं रह सकता, ऐसा मुझे चौबीस घण्टे महसूस होता रहता है और अगर आपको भी ऐसा महसूस हो तो आपको यह पूछने की जरूरत ही नहीं रह जायगी कि हमारे लिए दूसरे स्कूलों की व्यवस्था है या नहीं। बिना शर्त के स्कूलों का त्याग करना स्वतन्त्रता का पहला पाठ है। लेकिन अगर आप में धीरज का अभाव हो, आपमें स्कूलों का त्याग करके नई राष्ट्रीय पाठशाला के स्थापित होने तक उसके लिए पैसे इकट्ठे करने का भिक्षा मांगकर लाने का धीरज न हो तो आप हर्गिज शाला न छोड़ें।आपको शारीरिक श्रम करने की शिक्षा मिलनी चाहिए। अंग्रेज लड़के जब स्कूलों-कालेजों से निकलते हैं तब उनमें शारीरिक श्रम करने की शक्ति तो होती ही है। लेकिन अगर आप पढ-लिखकर सरकारी नौकर होने की आकांक्षा रखते हों तो आपके लिए यही पाठशालाएं ठीक है। दक्षिण में मधुकरी की जो प्राचीन प्रथा आज भी मौजूद है उसके गौरव को आप समझ सकते हो तो आप भिक्षा मांग कर भी शिक्षा प्राप्त करें।

आप में भिक्षा मांगकर शिक्षा लेने की सामर्थ्य न हो तो मैं आपको मार्फत देश की स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं करना चाहता।यह शिक्षा नास्तिकता की शिक्षा है। ऐसी शिक्षा के बावजूद जिसे ईश्वर में श्रद्धा हो, जिसे इन्द्रियों पर काबू हो, जिसने अहिंसा और अस्तेय का पालन किया हो, अन्तर की आवाज तो वही सुन सकता है। मैं केवल संयम का पालन करने वाले विद्यार्थियों से कहता हूं कि अगर आपको ईश्वरीय निर्देश मिले तो आप बेधड़क कालेज छोड़ दें।मुझे ऐसे ही विद्यार्थियों की आवश्यकता है जिनमें समय आने पर बलिदान देने की, फांसी पर चढ़ने की, भिक्षा मांगने की शक्ति हो। यदि देश तथा मुसलमानो पर हुए अत्याचारों से आपके हृदय में अग्नि धधक रही हो तो आप कालेज छोड़ सकते हैं।” श्रोत- पुलिस विभाग Box No. 59 File No- 38 ,उत्तर प्रदेश राज्य अभिलेखागार पुस्तकालय लखनऊ1. 26/11/1920 के ‘लीडर’ में इस सभा का जो विवरण प्रकाशित हुआ था, उसके अन्त में विद्यार्थियों से गांधीजी ने कहा है- “मेरा भाषण सोलह साल से अधिक अवस्था बाल विद्यार्थियों के लिए है। किसी भी हालत में हिंसा का प्रयोग नहीं होना चाहिए। मेरे कुछ मुसलमान मित्रों ने बताया है कि वे असहयोग को, तर्क मवालात को आजमायेंगे किन्तु यदि वह सफल न हुआ तब वे तलवार को अपनायेंगे। मैं तलवार का प्रयोग करने के खिलाफ़ हूँ। जो विद्यार्थी स्कूलों का त्याग करें, उनके अभिभावक यदि उन्हें आर्थिक सहायता देने से इनकार करते हैं तो उन्हें अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए, पत्थर तोड़कर या भीख मांगकर भी अपना और अपने गुरु का पेट भरना चाहिए। केवल उन्हीं विद्यार्थियों को बिना किसी शर्त स्कूलों और कालेजों को छोड़ना चाहिए जो कष्ट सहने को तैयार हों। उत्तेजना में आकर उन्हें ऐसा हर्गिज न करना चाहिए।”‘लीडर’ की उक्त रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भाषण समाप्त हो जाने के बाद गांधीजी ने विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने का समय दिया। एक विद्यार्थी ने पूछा कि कोई विद्यार्थी तकनीकी या किसी और तरह की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड या किसी दूसरे यूरोपीय देश में जा सकता है या नहीं। गांधीजी ने जवाब दिया कि वह तो इसे पसन्द नहीं करते किन्तु कोई जाना ही चाहे तो जा सकता है। तब विद्यार्थी ने पूछा कि क्या वह जपान या अमेरिका जा सकता है, जो स्वतन्त्र देश हैं। गांधीजी ने कहा कि उनको दृष्टि में सब एक-से हैं; वे भारत नहीं हैं। [/Responsivevoice]