क्या जहाँ निर्धनों का सम्मान नहीं वहाँ “लक्ष्मीजी”नहीं

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उमेश कुमार शुक्ला

एक निर्धन व्यक्ति था। वह नित्य भगवान विष्णु और लक्ष्मी की पूजा करता। एक बार दीपावली के दिन भगवती लक्ष्मी की श्रद्धा-भक्ति से पूजा-अर्चना की। कहते हैं उसकी आराधना से लक्ष्मी प्रसन्न हुईं। वह उसके सामने प्रकट हुईं और उसे एक अंगूठी भेंट देकर अदृश्य हो गईं। अंगूठी सामान्य नहीं थी। उसे पहनकर जैसे ही अगले दिन उसने धन पाने की कामना की, उसके सामने धन का ढेर लग गया। वह खुशी के मारे झूम उठा। इसी बीच उसे भूख लगी, तो मन में अच्छे पकवान खाने की इच्छा हुई। कुछ ही पल में उसके सामने पकवान आ गए। अंगूठी का चमत्कार मालूम पड़ते ही उसने अपने लिए आलीशान बंगला, नौकर-चाकर आदि तमाम सुविधाएं प्राप्त कर लीं। वह भगवती लक्ष्मी की कृपा से प्राप्त उस अंगूठी के कारण सुख से रहने लगा।

देवी लक्ष्मी पूरे विधि विधान से की गयी पूजा से प्रसन्न होती हैं और अपने भक्तों पर विशेष कृपा करती हैं। लक्ष्मी जी के पूजन के समय सबसे जरूरी है कि पूजा की थाली शास्त्रों के अनुसार सजाई जाए। शास्त्रों में उल्लेख है कि लक्ष्मी पूजन के लिए तीन थालियां होनी चाहिएं। इनमें पहली थाली में 11 दीपक समान दूरी पर रखें कर सजाएं। दूसरी थाली में धानी (खील), बताशे, मिठाई, वस्त्र, आभूषण, चंदन का लेप, सिंदूर कुमकुम, सुपारी और थाली के बीच में पान रखें और तीसरी थाली में फूल, दूर्वा, चावल, लौंग, इलाइची, केसर−कपूर, हल्दी चूने का लेप, सुगंधित पदार्थ, धूप, अगरबत्ती और एक दीपक रखें।

अब उसे किसी प्रकार का कोई दु:ख, कष्ट या चिंता नहीं थी। नगर में उसका बहुत नाम हो गया। एक दिन उस नगर में जोरदार तूफान के साथ बारिश होने लगी। कई निर्धन लोगों के मकानों के छप्पर उड़ गए। लोग इधर-उधर भागने लगे। एक बुढ़िया उसके बंगले में आ गई। उसे देख वह व्यक्ति गरजकर बोला- ‘ऐ बुढ़िया कहाँ चली आ रही है बिना पूछे।’ बुढ़िया ने कहा, ‘कुछ देर के लिए तुम्हारे यहां रहना चाहती हूँ।’ लेकिन उसने उसे बुरी तरह डांट-डपट दिया। उस बुढ़िया ने कहा, ‘मेरा कोई आसरा नहीं है। इतनी तेज बारिश में कहाँ जाऊँगी ?

दीपावली पूजन के अलावा इस पर्व के बारे में कुछ मान्यताएं भी प्रचलित हैं जैसे कि हिन्दू धर्म में यह मान्यता है कि त्रेता युग में इस दिन भगवान राम 14 वर्ष के वनवास और रावण का वध करने के बाद अयोध्या लौटे थे। इसी खुशी में अयोध्यावासियों ने समूची नगरी को दीपों के प्रकाश से जगमग कर जश्न मनाया था और इस तरह तभी से दीपावली का पर्व मनाया जाने लगा। इसके अलावा बौद्धों के प्राकृत जातक में दिवाली जैसे त्योहार का जिक्र है जिसका आयोजन कार्तिक महीने में किया जाता है। जैन लोग इसे महावीर स्वामी के निर्वाण से जोड़ते हैं। कहा जाता है कि करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात में पावा नगरी में भगवान महावीर का निर्वाण हुआ। महावीर के निर्वाण की खबर सुनते ही सुर असुर मनुष्य नाग गंधर्व आदि बड़ी संख्या में एकत्र हुए। रात अंधेरी थी इसलिए देवों ने दीपकों से प्रकाश कर उत्सव मनाया और उसी दिन कार्तिक अमावस्या को प्रातरू काल उनके शिष्य इंद्रमूर्ति गौतम को ज्ञान लक्ष्मी की प्राप्ति हुई। तभी से इस दिन दीपावली मनाई जाने लगी। दीपावली के बारे में एक मान्यता यह भी है कि जब राजा बलि ने देवताओं के साथ लक्ष्मी जी को भी बंधक बना लिया तब भगवान विष्णु ने वामन रूप में इसी दिन उन्हें मुक्त कराया था। पुराणों में कहा गया है कि दीपावली लक्ष्मी के उचित उपार्जन और उचित उपयोग का संदेश लेकर आती है।

थोड़ी देर की ही तो बात है।’ लेकिन उसकी किसी भी बात का असर उस व्यक्ति पर नहीं पड़ा। जैसे ही सेवकों ने उसे द्वार से बाहर किया, वैसे ही जोरदार बिजली कौंधी। देखते ही देखते उस व्यक्ति का मकान जलकर राख हो गया। उसके हाथों की अंगूठी भी गायब हो गई। सारा वैभव पलभर में राख के ढेर में बदल गया। उसने आँख खोलकर जब देखा, तो सामने लक्ष्मीजी थीं, जो बुढ़िया कुछ देर पहले उसके सामने दीन-हीन होकर गिड़गिड़ा रही थीं, वही अब लक्ष्मीजी के रूप में उसके सामने मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं। वह समझ गया उसने बुढ़िया को नहीं, साक्षात लक्ष्मीजी को घर से निकाल दिया था। वह भगवती के चरणों में गिर पड़ा। देवी बोलीं, ‘तुम इस योग्य नहीं हो। जहाँ निर्धनों का सम्मान नहीं होता, मैं वहाँ निवास नहीं कर सकती। यह कहकर लक्ष्मीजी उसकी आँखों से ओझल हो गईं।