पत्रकारिता अब नौकरी होकर रह गई

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श्याम कुमार

सही पत्रकारिता का नमूना पुस्तक…

पत्रकारिता अब पत्रकारिता नहीं, नौकरी होकर रह गई है। ‘तीन मरे, चौदह घायल’ को ही पत्रकारिता की इति माना जाने लगा है, जबकि यह पत्रकारिता का मात्र एक लघु अंश है। पत्रकारिता तो ज्ञान का ऐसा महासागर है, जिसका कोई ओरछोर नहीं हैं। वास्तविक पत्रकार उस महासागर में से मोती निकाल लाता है। लेकिन इसके लिए यह चरितार्थ करना होता है-‘इक आग का दरिया है और डूबके जाना है।’ यहां ‘आग का दरिया’ का अर्थ कठोर परिश्रम है। जो सही पत्रकार होता है, उसे इस कठोर परिश्रम में सुख की अनुभूति होती है। मात्र नौकरी मानेजाने से पत्रकारिता आत्माविहीन-सी होती जा रही है। लेकिन नई पीढ़ी में जो पत्रकार वास्तविक पत्रकारिता का ध्वज उठाए हुए हैं, उनमें एक पत्रकार सचिन त्रिपाठी हैं।

एक बार हिंदुत्व को शत्रु मानने वाले कम्युनिस्टों के जाल में फंसे एक महाशय ने ‘महाभारत’ के महानायक श्रीकृष्ण को कुटिल लिख दिया था, जिसके उत्तर में सचिन त्रिपाठी ने लिखा था कि श्रीकृष्ण कुटिल नहीं, अपितु महान कूटनीतिज्ञ थे और उनका वह चमत्कारिक गुण बाद में आचार्य चाणक्य में परिलक्षित हुआ। सचिन की उस प्रतिक्रिया से मैंने समझ लिया था कि इस युवक में श्रेष्ठ पत्रकारिता का बीज है। यदि योग्य पत्रकार श्रेष्ठ मानव व राष्ट्रवादी हो तो सोने में सुहागा हो जाता है। सचिन राष्ट्रवादी तो हैं ही, मानवतावादी भी हैं। सचिन त्रिपाठी ने ‘शून्य से सौ तक’ शीर्षक पुस्तक की रचना की है, जिसने उन्हें श्रेष्ठ पत्रकार की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। इसके साथ यह पुस्तक उन्हें इतिहासज्ञ भी निरूपित करती है।


सचिन की ‘शून्य से सौ तक’ पुस्तक जब मैंने पढ़ी तो मुझे इतनी अच्छी लगी कि अनेक जगह मैंने उसकी विशेषताएं चिन्हित कीं। लेकिन उसके बाद जब मैंने पुस्तक के आरंभ में प्रकांड विद्वान एवं उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित की ‘प्रस्तावना’ और सचिन त्रिपाठी की लिखी ‘भूमिका’ पढ़ी तो मुझे महसूस हुआ कि इन दोनों की लेखनी से जो सारगर्भित अभिव्यक्ति हुई है, वह पुस्तक का महत्व सिद्ध करने के लिए स्वयं में पर्याप्त है।
पुस्तक में सचिन त्रिपाठी की भूमिका का यह अंश यहां उद्धृत है-‘‘लखनऊ विश्वविद्यालय की शुरुआत कैनिंग काॅलेज के रूप में हुई थी। …..इस पुस्तक में कुल पंद्रह अध्याय हैं। पहले अध्याय में कैनिंग काॅलेज और दूसरे में लखनऊ विश्वविद्यालय का इतिहास एवं सम्बंधित दस्तावेज व फोटोग्राफ हैं। तीसरे अध्याय में विश्वविद्यालय की शुरुआती व्यवस्था का ब्योरा है, जबकि चौथे अध्याय में कैनिंग काॅलेज से लेकर लखनऊ विश्वविद्यालय के सभी भवनों के साथ मूर्तियों का ब्योरा भी दिया गया है। पांचवां अध्याय विश्वविद्यालय के सामाजिक सरोकार और आजादी की लड़ाई में इसके योगदान से सम्बंधित है तो छठा अध्याय यहां के छात्रसंघ पर आधारित है। सातवें अध्याय में लखनऊ विश्वविद्यालय के अब तक के सभी कुलपतियों और उनकी फोटो का विशेष संग्रह है। आठवां अध्याय विश्वविद्यालय के विश्वप्रसिद्ध शिक्षकों से सम्बंधित है। विश्वविद्यालय से काफी विश्वप्रसिद्ध शिक्षक निकले हैं, लेकिन उन सबका ब्योरा एक साथ देना संभव नहीं है। …..दसवें अध्याय में कुछ पूर्व- विद्यार्थियों के विश्वविद्यालय से सम्बंधित विचार हैं तो ग्यारहवें अध्याय में विश्वविद्यालय के सौ साल के इतिहास के दौरान दिए गए प्रमुख दीक्षांत भाषणों का सार देने का प्रयास किया गया है। बारहवें अध्याय में विश्वविद्यालय की प्रमुख घटनाओं तथा इसकी गरिमा की गिरावट के कारणों पर चर्चा की गई है। तेरहवें अध्याय में लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्बंधित सहयुक्त काॅलेजों का परिचय दिया गया है। चौदहवां अध्याय विश्वविद्यालय के सौ साल के दौरान हुए बड़े आयोजनों पर आधारित है। जबकि अंतिम अध्याय लखनऊ विश्वविद्यालय के वर्तमान को बता रहा है।


‘‘इस पुस्तक द्वारा आजादी की लड़ाई के दौरान शिक्षा-व्यवस्था की स्थिति को समझाने का प्रयास किया गया है। विश्वविद्यालय किस तरह से समाज की अगुआई करते थे, यह पाठ भी इस पुस्तक के माध्यम से पढ़ा जा सकता है। सबसे अहम, अवध के लोग और लखनऊ विश्वविद्यालय से शिक्षा पाने वाले हर विद्यार्थी को अपने समृद्ध इतिहास को जानने का मौका मिलेगा।’’
हृदयनारायण दीक्षित ने प्रस्तावना में लिखा है-‘‘भारत में सौ वर्ष की यात्रा पूरी करने वाले सिर्फ नौ विश्वविद्यालय हैं तथा लखनऊ विश्वविद्यालय इस कड़ी में दसवां है। पुस्तक में लेखक ने परिश्रमपूर्वक तमाम तथ्य जुटाए हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना वाले अधिनियम पर २५ नवम्बर, १९२० को भारत के गवर्नरजनरल के हस्ताक्षर हुए थे। जुलाई, १९२१ से यहां पढ़ाई शुरू हुई थी। विश्वविद्यालय की स्थापना से पहले कैनिंग काॅलेज के नाम से इसका संचालन होता था। उस समय यह इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। कैनिंग काॅलेज की स्थापना १ मई, १८६४ को हुई थी। ….पुस्तक में स्वाधीनता-संग्राम के प्रभाव के भी तत्व हैं। प्रतिष्ठित पूर्व-छात्रों के संस्मरण हैं। प्रमुख दीक्षांत-भाषण हैं। विश्वविद्यालय के सहयुक्त सभी महाविद्यालयों का विवरण भी है। लेखक ने दुर्लभ चित्रों और महत्वपूर्ण अभिलेखों का भी संग्रह किया है। पुस्तक हर तरह से समृद्ध है। लखनऊ विश्वविद्यालय के पास भी संभवतः इस पुस्तक में उपलब्ध संकलित तथ्यों से ज्यादा जानकारी नहीं होगी।’’


अपनी इस अतिसराहनीय पुस्तक के लिए सचिन त्रिपाठी बधाई के पात्र हैं। किन्तु इतना पर्याप्त नहीं है। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा उन्हें इस पुस्तक हेतु पुरस्कृत किया जाना चाहिए। आजकल देखा जा रहा है कि अनेक लोग कोई शोध-कार्य किए बिना अपने नाम के पहले ‘डाॅक्टर’ लिखने लगे हैं। लेकिन सचिन त्रिपाठी की ‘शून्य से सौ तक’ पुस्तक उनके बहुत कड़े परिश्रम एवं शोधकार्य का प्रतिफल है तथा सही शोध-कार्य कैसा होना चाहिए, इसका ज्वलंत उदाहरण है। अपने महत्व और उपयोगिता के कारण यह पुस्तक वस्तुतः लखनऊ विश्वविद्यालय पर सचिन त्रिपाठी का ऋण हो गई है। लखनऊ विश्वविद्यालय को चाहिए कि सचिन त्रिपाठी का यह ऋण उन्हें ‘डाॅक्टर’ की मानद उपाधि देकर चुकता करे। भारत में सौ वर्ष की यात्रा पूर्ण करने वाले केवल नौ विश्वविद्यालय हैं। ‘शून्य से सौ तक’ पुस्तक की भांति उन विश्वविद्यालयों का भी सम्यक इतिहास लिखा जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान को उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों का विस्तृत इतिहास लिपिबद्ध कराना चाहिए।