चौ.लौटनराम निषाद


देश में आरक्षण (रिजर्वेशन) का मुद्दा सालों से चला आ रहा है। आजादी से पहले ही नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने की शुरुआत कर दी गई थी। इसके लिए अलग-अगल राज्यों में विशेष आरक्षण के लिए आंदोलन होते रहे हैं। राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन, हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन,आन्ध्र प्रदेश में कम्मा व कापू आरक्षण आंदोलन,उत्तर प्रदेश में निषाद आरक्षण आंदोलन और गुजरात में पाटीदारों (पटेल) ने आरक्षण की मांग उठाई है।


कैसे हुई आरक्षण की शुरुआत

आजादी के पहले प्रेसिडेंसी रीजन और रियासतों के एक बड़े हिस्से में पिछड़े वर्गों (बीसी) के लिए आरक्षण की शुरुआत हुई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 26 जुलाई, 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी (नौकरी) देने के लिए आरक्षण शुरू किया था। यह भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश था। 1908 में छत्रपति शाहू जी महाराज की सिफारिश पर अंग्रेजों ने प्रशासन में हिस्सेदारी के लिए आरक्षण शुरू किया। 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी ने सरकारी आदेश जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मण के लिए 44 फीसदी, ब्राह्मण, मुसलमान, भारतीय-एंग्लो/ईसाई के लिए 16-16 फीसदी और अनुसूचित जातियों के लिए 8 फीसदी आरक्षण दिया गया।


1935 में भारत सरकार अधिनियम-1935 में सरकारी आरक्षण को सुनिश्चित किया गया।बताते चले कि गोलमेज सम्मेलन-1932 में आज की हिन्दू पिछड़ी जातियों के साथ धोखाधड़ी कर आरक्षण के लाभ से बंचित कर दिया गया। 1942 में बाबा साहब अम्बेडकर ने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग उठाई।लेकिन उन्होंने आज की पिछड़ी जातियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया।1932 से पूर्व सभी शूद्र जातियों को डिप्रेस्ड माना जाता था,पर अम्बेडकर जी डिप्रेस्ड को टचेबल व अनटचेबल में विभाजित कराकर टचेबल डिप्रेस्ड क्लास यानी अछूत व जंगली/आदिवासी पिछड़ी जातियों,(आज की एससी, एसटी) को समानुपातिक आरक्षण शिक्षा,नौकरी व राजनीति में 1935 व 1937 में दिलवा दिए और टचेबल डिप्रेस्ड क्लास(आज के ओबीसी) को बाहर करा दिए।सच्चाई यह है कि डॉ.अम्बेडकर सम्पूर्ण बहुजन या शूद्र समाज के नेता कत्तई नहीं थे।देखा जाए तो अम्बेडकर शुरू से ही शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन व शेड्यूल्ड कॉस्ट पार्टी की बात करते रहे।सच में मान्यवर कांशीराम ही दलित वर्ग के पहले नेता थे जो 85 प्रतिशत बहुजन की लड़ाई को आगे किये।


क्या था आरक्षण का उद्देश्य और मॉडल

आरक्षण का उद्देश्य केंद्र और राज्य में सरकारी नौकरियों, कल्याणकारी योजनाओं, चुनाव और शिक्षा के क्षेत्र में हर वर्ग की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए की गई। जिससे समाज के हर वर्ग को आगे आने का मौका मिले। सवाल उठा कि आरक्षण किसे मिले, इसके लिए पिछड़े वर्गों को तीन कैटेगरी अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में बांटा गया।
केंद्र के द्वारा दिया गया आरक्षण
वर्ग कितना आरक्षण
अनुसूचित जाति 15 %
अनुसूचित जनजाति 7.5 %
अन्य पिछड़ा वर्ग 27 %
कुल आरक्षण 49.5 %
(नोट- बाकी 50.5 % आरक्षण जनरल कैटेगरी के लिए रखा गया, जो कि ओबीसी,एससी, एसटी के लिए भी खुला है,लेकिन ईडब्ल्यूएस को 10 प्रतिशत कोटा देने के बाद 40.5 प्रतिशत अनारक्षित कोटा है,जिसमें प्रतिभा के आधार पर कोई भी वर्ग प्रतिनिधित्व पा सकता है।)


क्या है आरक्षण की वर्तमान स्थिति

महाराष्ट्र में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मराठा समुदाय को 16% और मुसलमानों को 5% अतिरिक्त आरक्षण दिया गया।तमिलनाडु में सबसे अधिक 69 फीसदी आरक्षण लागू किया गया है।कर्नाटक में 62 फीसदी आरक्षण कोटा है। इसके बाद महाराष्ट्र में 52 और मध्यप्रदेश में कुल 50 फीसदी आरक्षण लागू है। 2019 में सवर्ण जातियों को आर्थिक आधार पर ईडब्ल्यूएस के नाम से 10 प्रतिशत कोटा दे दिया गया।


आरक्षण से जुड़े कुछ अहम ऐक्ट

15(4) और 16(4) के तहत अगर साबित हो जाता है कि किसी समाज या वर्ग का शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो आरक्षण दिया जा सकता है। 1930 में एच. वी. स्टोर कमेटी ने पिछड़ी जातियों को ‘दलित वर्ग’, ‘आदिवासी और पर्वतीय जनजाति’ और ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ में बांटा था।


भारतीय अधिनियम 1935 के तहत ‘दलित वर्ग’ को अछूत पिछड़ी जाति और ‘आदिम जनजाति’ को पिछड़ी जनजाति नाम दिया गया।भारतीय संविधान के तहत अछूत पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति(एससी) व पिछड़ी जनजातियों को अनुसूचित जनजाति(एसटी) नाम दिया है।एससी व एसटी को भारत सरकार अधिनियम-1935 के तहत शिक्षा व नौकरियों में व भारत सरकार अधिनियम-1937 के तहत राजीनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए समानुपातिक आरक्षण कोटा दे दिया गया।वहीं सछूत पिछड़ी जातियों यानी आज की अन्य पिछड़ावर्ग की जातियाँ(ओबीसी) धोखाधड़ी की शिकार हो गईं।जिन्हें लंबे अंतराल के बाद वीपी सिंह की सरकार ने मण्डल कमीशन की सिफारिश के तहत नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण कोटा की अधिसूचना 13 अगस्त,1990 को जारी की गई।जिसे 16 नवम्बर,1992 को शीर्ष अदालत से वैधता मिली और नरसिम्हाराव की सरकार ने 10 सितम्बर,1993 को ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की अधिसूचना जारी की गई।उच्च शिक्षण संस्थानों में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह जी के 3 मार्च,2006 को ओबीसी के कोटा के लिए निर्णय लिया गया।उच्चतम न्यायालय ने 10 अप्रैल,2008 को इसे संवैधानिक वैधता प्रदान किया।


ओबीसी की जनगणना व समानुपातिक प्रतिनिधित्व क्यों नहीं….?


ब्रिटिश हुकूमत द्वारा 1871 में जातिगत जनगणना की शुरुआत हुई और अंतिम बार 1931 मे जातिगत जनगणना हुई। देश की आज़ादी के बाद 1951 से जो जनगणना शुरू हुई उसमें एससी, एसटी की जनगणना कराई गई और हर सेन्सस में कराई जाती है,लेकिन ओबीसी की जनगणना से पल्ला झाड़ लिया गया।यूपीए-2 की सरकार ने 2011 में सोसिओ-इको-कास्ट सेन्सस(एसइसीसी) कराया लेकिन मोदी सरकार ने ओबीसी के आँकड़े जारी नहीं किये। 2011 के सेन्सस के आधार पर एससी, एसटी,धार्मिक अल्पसंख्यक(मुस्लिम, सिक्ख,ईसाई,बौद्ध,जैन,पारसी,रेसलर आदि),दिव्यांग व ट्रांसजेंडर के आँकड़े उजागर किये गए,पर ओबीसी का छुपा लिया गया।जब ओबीसी आरक्षण से सम्बंधित कोई मामला न्यायालय में जाता है तो यही टिप्पणी न्यायाधीशों द्वारा की जाती है कि ओबीसी की संख्या का कोई वैज्ञानिक आँकड़ा नहीं है।अब सवाल यह है कि जब एससी, एसटी,धार्मिक अल्पसंख्यक की जनगणना कराई जाती है तो ओबीसी की जनगणना कराने से सरकार पल्ला क्यों झाड़ लेती है?जब एससी, एसटी को जनसंख्या अनुपात में शिक्षा,सेवायोजन व राजनीतिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई है तो अनुच्छेद-15(4) व 16(4) के अनुसार ओबीसी को समानुपातिक प्रतिनिधित्व क्यों नहीं और अनुच्छेद-14 के अनुसार समानता का व्यवहार क्यों नहीं……?


(लेखक- सामाजिक न्याय चिन्तक व भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)