महात्मा गांधी और सत्याग्रह …..

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शिवकुमार शुक्ला

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जिस व्यक्ति की पूरी जिंदगी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद, भारत में ब्रिटिश राज एवं अपने समाज की घिनौनी सामाजिक कुरीतियों जैसे अन्यायों से लड़ाई में बीती, उस गाँधी ने यह जाना कि ऐसे संघर्षों में एक नैतिक व्यक्ति को कैसा आचरण करना चाहिए। परंपरागत रूप से लोग तार्किक संवाद एवं हिंसा पर निर्भर थे जो क्रमशः उनके तर्क एवं ‘दैहिक बल’ पर आधारित था। गाँधी इन दोनों तरीकों से ही अलग-अलग स्तर पर अहमतियाँ रखते थे। वह अभी तक प्रयोग में नहीं लाए गए ‘सत्यबल’/’आत्मबल’ पर आधारित तरीके के बारे में जानने में जुट गए ।

तार्किकता और हिंसा की सीमा

संघर्ष समाधान के लिए गाँधी का सर्वाधिक उपयुक्त तरीका तार्किक संवाद का था। उनकी दृष्टि में तार्किक संवाद दो परिस्थितियों में काम करता था—

1- चूँकि मनुष्य अपने आप में दोषपूर्ण और पक्षपाती है, अतः प्रत्येक व्यक्ति को विवादित विषयों को दूसरे के नज़रिए से देखने का विनम्र प्रयास करना चाहिए। अगर दोनों में से एक भी पक्ष हठधर्मी और आत्मतुष्ट होगा तो विवादित विषय पर अपने नज़रिए को प्रश्नांकित करने या दूसरे पक्ष की दृष्टि से विवादित विषय को जानने की कोशिश नहीं कर सकेगा। साथ ही विवादित विषय को अलग नज़रिए से देखने के विपक्षी के तरीके की सराहना भी नहीं कर सकेगा।

2 – मानवीय तर्क किसी मनोवैज्ञानिक और नैतिक शून्यता – में काम नहीं करता। मनुष्य पूर्वाग्रह, अनुकंपा और दुर्भावना से भरा काफी जटिल प्राणी है और ये सभी उसकी तर्क शक्ति को विकृत एवं सीमित करते हैं। अगर कोई व्यक्ति दूसरों की परवाह नहीं करता, उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखता या उन्हें अमानवीय समझता है, तो वह दूसरों के हितों की चिंता नहीं करेगा और उनके हितों की उपेक्षा करने के कई तर्क गढ़ लेगा। अगर वह उनके हितों के दावों को स्वीकार भी कर लेगा तो भी उसकी मंशा उन दावों के सम्मान और सराहना की नहीं होगी। गाँधी का यह अपना अनुभव था। गाँधी ने श्वेत दक्षिण अफ्रीकियों को यह समझाने का प्रयास किया था कि अश्वेतों और एशियाई लोगों को समान अधिकार मिलने चाहिए; ब्रिटिशों को समझाया कि अपने विषयों में निर्णय लेने के लिए भारतीयों को आज़ाद करें और ऊँची जाति के हिंदुओं को समझाया कि छुआछूत एक घृणित आदत है, लेकिन प्रत्येक परिस्थिति में उनके विपक्षियों ने उनकी तर्क शक्ति की उपेक्षा की; गाँधी के तर्कों को दिखावटी प्रति तर्कों से ख़ारिज किया या उन्हें स्वीकार तो किया, परंतु उन पर कोई कार्रवाई नहीं की। गाँधी के अनुसार ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उनके विपक्षी इतने तंगदिल थे कि वे उनके पीड़ितों के प्रति सहानुभूति नहीं रख सकते थे। गाँधी की पसंदीदा भाषा में कहा जाए तो बुद्धि और हृदय मिलकर ही पूर्ण होते थे। अगर हृदय किसी को अस्वीकृत करता तो बुद्धि भी वैसा ही करती थी। बुद्धिवादियों का यह तर्क कि मनुष्य अपने तर्कों के ‘वजन’ से ही मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन प्राप्त करता था, पूरी तरह झूठे ‘अंधविश्वास’ जैसा था। स्वार्थपरता, नैतिक पतन, घृणा, शत्रुता और गहरे पूर्वाग्रहों के कारण मनुष्य मुक्त बुद्धि या मुक्त हृदय नहीं रखते थे। आदर्श रूप में तार्किक संवाद भले ही वांछनीय हो, परंतु व्यावहारिकता में उसकी भूमिका सीमित थी। ‘जिन लोगों की नस-नस में विद्वेष भरा हुआ है, उनकी विवेक-बुद्धि से अपील बिल्कुल है ‘ |

तार्किक संवाद की सीमाओं को महसूस करने के बाद अनेक लोग हिंसा की ओर मुड़ जाते थे, क्योंकि उनके अनुसार हिंसा न्याय पाने का एकमात्र प्रभावी साधन थी। कुछ इसे मददगार वाली दृष्टि से देखते और सोचते कि अगर यह वांछित परिणाम देती है, तो औचित्यपूर्ण है। कुछ अन्य लोग इससे सहमत थे कि नैतिक रूप से यह अवांछनीय थी, परंतु इससे किसी वृहद
बुराई का नाश होता हो तो इसे स्वीकारा जा सकता था। गाँधी इस बात से ख़ास तौर पर परेशान थे कि कितनी सहजता से हिंसा को तार्किक बनाया गया और इतिहास में इसका उपयोग किया गया। उन्होंने हिंसा को प्राय: कुंठा से उत्पन्न माना। हिंसा का प्रयोग करने वालों ने भी हिंसा से घृणा की और वे इसे अपनाने की ओर तभी प्रवृत्त हुए, जब उन्हें आरोपित अन्याय से लड़ने का कोई दूसरा रास्ता नहीं मिल पाया। उन्होंने इसके लिए नैतिक रूप से अंधे और तंगदिल वर्चस्वशाली समूह को ज्यादा कसूरवार माना। हालाँकि गाँधी असहनीय परिस्थितियों या भारी उकसावे के कारण उत्पन्न तात्कालिक हिंसा को माफ करने का सोच सकते थे, परंतु सामाजिक परिवर्तन की सुविचारित पद्धति के रूप में हिंसा के घोर विरोधी थे |

हिंसा का प्रयोग इन तत्त्वमीमांसीय तथ्यों को नकारता था कि सभी मनुष्य आत्मावान थे, वे अच्छाई की प्राप्ति एवं सराहना करने में समर्थ थे और कोई भी इतना पतित नहीं था कि उसे सहानुभूति और मानवता के बलबूते जीता न जा सके। सही काम क्या है, इसे लेकर मनुष्यों में सचमुच असहमतियाँ थीं, क्योंकि ‘सत्य को टुकड़ों में और अलग दृष्टि से देखते थे और उनके विश्वास दोषपूर्ण एवं संशोधनीय थे। गाँधी के अनुसार हिंसा का प्रयोग इन बातों को नकारता था। किसी अन्य व्यक्ति को नुकसान पहुँचाने या हत्या करने के चरम प्रयास को औचित्य प्रदान करने के लिए व्यक्ति को यह सोचना था कि वह पूर्णतया सही था, विपक्षी पूर्णतया गलत था और हिंसा से वांछनीय परिणाम निश्चित रूप से मिलने वाले थे। हिंसा के परिणाम इसलिए अपरिवर्तनीय थे कि अगर जिंदगी को ख़त्म कर दिया जाए या चोट पहुँचाई जाए तो उसे पुन: पहली वाली स्थिति में नहीं लाया जा सकता था। इस तरह के अपरिवर्तनीय कामों को औचित्य प्रदान करने के लिए अचूक ज्ञान की आवश्यकता थी जो स्पष्टतः मानवीय पहुँच में नहीं था। गाँधी ने माना कि ‘सापेक्षिक सत्य’ के उनके सिद्धांत की तार्किक परिणति व्यवहार या कर्म के आधार को कमजोर करने के रूप में होगी। भला गलत होने की आशंका के साये में कोई भी कर्म संभव है? तथापि गाँधी ने सोचा कि प्रत्येक को अपने दोषपूर्ण होने को स्वीकारना चाहिए और चिंतन व पुनर्विचार के लिए जगह छोड़नी चाहिए। चूँकि हिंसा अपरिवर्तनीय और आवेशयुक्त होती है, इसलिए वह चिंतन व पुनर्विचार की गुंजाइश नहीं देती।

गाँधी ने नैतिक आधारों पर भी हिंसा को अस्वीकृत किया। नैतिकता सही काम करने में निहित थी, क्योंकि व्यक्ति विश्वास करता था कि यह सही था और ऐसा करते हुए विश्वास और आचरण के एकीकरण की ज़रूरत थी। हिंसा का प्रयोग विपक्षी के सत्य के प्रति नज़रिए को नहीं बदलता था, विपक्षी को उसके विश्वास के विपरीत व्यवहार करने को मजबूर करता था, इसलिए उसकी नैतिक एकता का उल्लंघन करता था। गाँधी ने आगे तर्क दिया कि हिंसा से चिरस्थायी परिणाम दुर्लभ ही थे। हिंसक कृत्य तभी सफल माना जाता था, जब वह तात्कालिक उद्देश्यों को प्राप्त कर ले। अगर हिंसा के दूरगामी परिणामों के आधार पर हिंसा को आँका जाए तो हमारे निष्कर्ष बिल्कुल दूसरे होंगे। ऊपरी तौर पर प्रत्येक सफल हिंसक कृत्य इस विश्वास को प्रोत्साहन देता था कि वांछित लक्ष्यों को पाने का यह एकमात्र प्रभावी था और अपने विरोधी के प्रति हर बार हिंसक होने की प्रवृत्ति का विकास करता था। इस प्रकार समाज इसका आदी हो जाता था और इसके विकल्प खोजने की मजबूरी को महसूस नहीं करता था। हिंसा की प्रवृत्ति अपने दायरे को विस्तृत करने की होती है। हर सफल हिंसक कृत्य समुदाय की नैतिक संवेदना को कुंद करता और हिंसा का नया द्वार खोलता। इससे पहले के समान परिणाम पाने के लिए भी पहले की तुलना में ज़्यादा हिंसा की ज़रूरत अनिवार्य हो जाती है। यह तथ्य कि अभी तक लगभग प्रत्येक क्रांति ने आतंक को जन्म दिया, अपने बच्चों को खा गई और एक बेहतर समाज के निर्माण में असफल रही, गाँधी की निगाह में इस बात का प्रमाण था कि क्रांति के परंपरागत सिद्धांत घातक रूप से दोषपूर्ण थे।

अंततः गाँधी के अनुसार हिंसा के अधिकांश सिद्धांतों में निहित साध्य-साधन विरोधाभास झूठा था। मनुष्य जीवन में साधनों का सीधा तात्पर्य मनुष्य के कर्मों से था और परिभाषिक तौर पर इसे नैतिकता के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं रखा जा सकता था। किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लड़ने का तरीका इसका बाहरी नहीं बल्कि अभिन्न हिस्सा था। वांछित लक्ष्य की प्राप्ति में हर कदम इसके चरित्र को आकार देता, इस कारण इसकी अत्यधिक देखरेख करनी थी कि कहीं यह उद्देश्य को ही विकृत न कर दे। कोई भी लक्ष्य/उद्देश्य उसकी प्राप्ति के लिए सुविचारित कार्यों की श्रृंखला के अंतिम में नहीं होता, बल्कि यह तो प्रारंभ से ही उसके साथ रहता था। वास्तव में साध्य का भ्रूण रूप साधन था और साध्य के बीज रूप का विकसित वृक्ष साध्य था। इसलिए न्यायपूर्ण समाज की स्थापना का संघर्ष अन्यायपूर्ण साधनों के ज़रिए नहीं हो सकता था।

———आत्मबल————-

गाँधी ने निष्कर्ष निकाला कि चूँकि अन्याय के प्रति लड़ाई में दोनों तरीके अनुपयुक्त या बेहद दोषपूर्ण थे, इसलिए हमें नए तरीके की ज़रूरत थी। यह नया तरीका था कि आत्मबल को क्रियाशील किया जाए, व्यक्तियों की नैतिक ऊर्जा को गोलबंद किया जाए, दिल और दिमाग के समक्ष अपील की जाए और ऐसा सुखकर वातावरण बनाया जाए, जिसमें संघर्ष का निपटारा शांतिपूर्ण ढंग से हो सके तथा सभी का कल्याण हो। गाँधी ने सोचा कि सत्याग्रह की उनकी पद्धति इस ज़रूरत को पूरा करती थी। गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी मुहिम के दौरान इसे खोजा और लागू किया। अपने समाज की अन्यायपूर्ण कुरीतियों और भारत में ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष ने इस सत्याग्रह को और निखारा।

गाँधी के लिए सत्याग्रह का अर्थ सत्य की तलाश में दृढ़ता या सत्य की तलाश पर विनम्र आग्रह था। इसका उद्देश्य स्वार्थपरता, आत्मदंभ, मतांधता, द्वेष, पूर्वाग्रह की बाधाओं को दूर कर विपक्षी की आत्मा तक पहुँचना और उसे सक्रिय करना था। व्यक्ति चाहे कितना ही मतांध या पतित हो, वह भी आत्मा रखता था और इसलिए उसमें यह क्षमता मौजूद थी कि वह अन्य मनुष्यों की परवाह करे और साझी मानवता को ध्यान में रखे।

यहाँ तक कि हिटलर और मुसोलिनी भी इससे मुक्त नहीं थे। वे अपने माता-पिता, पत्नियों, संतानों, दोस्तों और पालतू जानवरों को प्यार करते थे और इसके ज़रिए सहानुभूति की मूलभूत मानवीय क्षमता को अभिव्यक्त करते थे। उनकी दिक्कत इस क्षमता का न होना नहीं थी, बल्कि दिक्कत यह थी कि उन्होंने यह क्षमता कुछ लोगों तक ही सीमित कर रखी थी। हमारा काम इस क्षमता के दायरे को ज़्यादा विस्तार देने के तरीके ढूँढ़ना था। सत्याग्रह ‘आत्मा की चिकित्सा’, ‘आत्म-बल’ को सक्रिय बनाने का तरीका था। गाँधी के अनुसार ‘प्रेम-प्रसूत पीड़ा’ इसे करने का सबसे बेहतर तरीका था और यही उनकी नई पद्धति को प्रोत्साहन देने वाला सिद्धांत भी था। उन्होंने बताया कि :——

मैं इस आधारभूत निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि अगर हम सचमुच कोई बात मनवाना चाहते हैं तो हमें लोगों को समझा-बुझाकर ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, बल्कि उनके हृदय को प्रभावित करना चाहिए। बुद्धि के धरातल पर कही बात का असर मस्तिष्क पर ज़्यादा होता है, लेकिन किसी के हृदय को तो कष्ट-सहन के द्वारा ही प्रभावित किया जा सकता है। कष्ट-सहन मनुष्य के अंतःचक्षु खोलता है। मानव जाति का श्रृंगार तलवार नहीं, कष्ट-सहन है।

अन्याय से सामना होने पर सत्याग्रही अपने विपक्षी से हमेशा संवाद की तलाश करता था। वह अपनी माँगों पर जोर देकर हठधर्मिता नहीं दिखाता और न ही विपक्षी का विरोध करता । सत्याग्रही जानता था कि वह भी पक्षपाती और पूर्वाग्रही हो सकता था और इसी कारण वह प्रतिपक्षी को आमंत्रित करता कि वे दोनों सहभागी होकर ‘सत्य’ की तलाश करें या संघर्ष के संबंध में सर्वाधिक उपयुक्त कार्यवाही का चयन करें। जैसा गाँधी ने कहा कि, ‘मैं अनिवार्यतः समझौते की तलाश करने वाला हूँ, क्योंकि मैं कभी निश्चित तौर पर नहीं कहता कि मैं ही सही हूँ।’ जब संवाद से इंकार किया जाता या सार्वजनिक संबंधों में कपटपूर्ण व्यवहार किया जाता तो सत्याग्रही एक सैद्धांतिक पक्ष पर खड़ा होता जिससे वह अपनी माँग को औचित्यपूर्ण मानता। बहुत शांत भाव और बिना शिकायत किए अपने प्रति की जाने वाली हिंसा को सहन करता। उसके प्रतिपक्षी उसे समस्या पैदा करने वाला या शत्रु मानते थे, लेकिन वह बदले की भावना नहीं रखता था। वह प्रतिपक्षी को ऐसे साथी के रूप में देखता था जिसकी मानवता की संवेदना मंद हो गई थी और सत्याग्रही का दायित्व था कि प्रतिपक्षी में इसे पुनः जागृत करे। चूँकि सत्याग्रही का एकमात्र प्रयोजन प्रतिपक्षी में नैतिक प्रतिक्रिया को जागृत करना था, इसलिए वह उसे सहज करने की हर संभव कोशिश करता और उसे परेशान, व्याकुल, गुस्सा व डराने जैसे काम कतई नहीं करता, बल्कि वह तो प्रतिपक्षी में आत्म-विश्लेषण की धीमी, गहन वैयक्तिक और काफी जटिल प्रक्रिया को शुरू करने की आशा करता था। जिस क्षण उसका प्रतिपक्षी वास्तविक कल्याण की भावना के साथ संवाद करने की इच्छा जाहिर करता तो वह संघर्ष को स्थगित करता और एक सुखदायी वातावरण में काम करने का अवसर प्रदान करता ।

कांट और जॉन रॉल्स की तरह गाँधी ने तर्क दिया कि समुदाय को एकजुट बनाए रखने में एक व्यापक न्यायबोध का होना आवश्यक था। लेकिन उनसे अलग गाँधी ने तर्क दिया कि न्यायबोध एक उच्च बौद्धिक विचार था और इसे साझी मानवीयता के एक गहरे व संवेदनायुक्त भाव की ज़रूरत थी जो इस विचार को गहराई और ऊर्जा दे सके। मानवीयता का भाव इस मूलभूत तत्त्वमीमांसीय तथ्य को समझने में था कि सभी मनुष्य अविभाज्य थे। दूसरों की मानवीयता का पतन और उनके प्रति क्रूरता का अर्थ स्वयं की मानवीयता का पतन एवं अपने प्रति क्रूरता था। पारस्परिक सरोकार की भावना के बिना साझी सामूहिक जिंदगी नहीं बिताई जा सकती थी। मानवीयता का भाव समुदाय की महत्त्वपूर्ण नैतिक पूँजी को बनाता था, जिसके बिना दमन, शोषण, अन्याय जैसी ताक़तों से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती थी। मानवीयता के भाव को उपजाना और बनाए रखना एक धीमा और कठिन काम था, इसलिए एक सच्चे नैतिक समुदाय की नींव रखना सभी की ज़िम्मेदारी थी। सत्याग्रही इसी कर्त्तव्य का पालन करता था। वे मानते थे कि बुराई से लड़ने वाला भी उससे प्रभावित होता है। इसलिए उन्होंने ख़ुद के साथ-साथ विरोधी को भी बुराई के चंगुल से मुक्त करने की कोशिश की। उन्होंने अमानवीयता के स्तर को कम करने में योगदान दिया। जैसा कि गाँधी ने दिखाया कि पुराने संत ‘बुराई का बदला अच्छाई से देकर इसे ख़त्म करते थे।’ सत्याग्रही इसी ‘मूलभूत नैतिक सत्य’ पर खड़ा था।

अपने सभी सत्याग्रहों में गाँधी ने कुछ निश्चित मूलभूत नियम पहचाने। इनमें पहले स्थिति की सावधानीपूर्वक जाँच-पड़ताल की गई, धैयपूर्वक तथ्य जुटाए गए, उद्देश्यों का तर्कपूर्ण बचाव किया गया, सत्याग्रही की भावना की गहराई का प्रतिपक्षी को विश्वास कराने हेतु लोकप्रिय आंदोलन तथा वार्ता का अंतिम अवसर देने का अल्टीमेटम दिया गया। सत्याग्रह के दौरान प्रतिपक्षी के साथ संप्रेषण/संवाद के माध्यम खुले रखे गए, एक-दूसरे के प्रति कठोर रुख़ से बचा गया और मध्यस्थों को प्रोत्साहन दिया गया। सत्याग्रही को यह शपथ लेनी थी कि वह गिरफ्तार होने या सम्पत्ति के ज़ब्त होने की दशा में न तो हिंसा करेगा और न ही इसका विरोध करेगा। इसी तरह के नियम सत्याग्रही क़ैदियों के लिए भी लागू किए गए, उन्हें शिष्ट होना था, किसी विशेष अधिकार की माँग नहीं करनी थी, आदेशानुसार काम करना था और सहूलियतों के लिए आंदोलन नहीं करना था, सिवाय उस स्थिति को छोड़कर जिससे उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती हो ।

गाँधी ने सत्याग्रह के प्रभाव को प्रेमप्रसूत पीड़ा के आध्यात्मिक प्रभाव के संदर्भ में समझाया। सत्याग्रही का प्रतिपक्षी और उसकी नैतिक उच्चता से प्रेम प्रतिपक्षी को शस्त्रहीन करता था, उसके गुस्से और घृणा की भावना को तिरोहित करता था तथा उसके नैसर्गिक स्वभाव को सक्रिय करता था। सत्याग्रही का बिना शिकायत पीड़ा सहन करना प्रतिपक्षी को विजयी भाव का आनंद उठाने से रोकता, तटस्थ जनमत को गोलबंद करता, साथ ही प्रतिपक्षी में आत्मविश्लेषण का रुख़ पैदा करता। दोनों साथ मिलकर कठिन आत्म-विश्लेषण की जटिल प्रक्रिया की शुरुआत करते, जिस पर सत्याग्रह अपनी पूर्ण सफलता के लिए निर्भर था। प्रेम अपने आप में पर्याप्त नहीं था अन्यथा सत्याग्रही बिना किसी आंदोलन के अपने प्रतिपक्षी को शांति से मना लेता। पीड़ा सहन करना भी अपने आप में पर्याप्त नहीं था, क्योंकि एक तो स्वयं अकेले इसका महत्त्व नहीं था और दूसरे अगर पीड़ा घृणा और गुस्से के साथ मिल जाती तो परिणाम प्रतिकूल भी हो सकते थे। प्रेम के कारण पीड़ा आध्यात्मिक स्वरूप लेती थी जिसका मनोवैज्ञानिक महत्त्व था। पीड़ा प्रेम को इसकी मनोवैज्ञानिक ऊर्जा और नैतिक शक्ति प्रदान करती थी। गाँधी की निगाह में हम मानवीय आत्मा के संचालन के बारे में बहुत कम जानते थे, इसलिए अहिंसा कैसे काम करती थी, इसकी तार्किक व्याख्या कठिन थी। ‘हिंसा में कुछ अदृश्य नहीं है, जबकि दूसरी ओर अहिंसा में तीन-चौथाई भाग अदृश्य है।’ यह ऐसे ‘शांत एवं साधारण’ तरीके से काम करती थी कि यह एक रहस्य लगता था।

यद्यपि गाँधी ने अपने विश्वास को बनाए रखा कि प्रेमप्रसूत पीड़ा सर्वशक्तिमान थी। जब यह शुद्ध होती तो ‘पत्थर हृदय को भी पिघलाने’ में समर्थ थी। गाँधी जानते थे कि हक्क़ीक़त इससे बिल्कुल अलग थी। अधिकांश सत्याग्रही सामान्य लोग थे जिनके धैर्य, प्रेम, दृढ़ता और पीड़ा सहन कर पाने की एक सीमा थी। कभी-कभार उनके प्रतिपक्षी भी इतने पूर्वाग्रहयुक्त और बेदर्द होते थे कि उनकी पीड़ा से पसीजते न थे। यह आश्चर्यजनक नहीं था कि गाँधी ने दबाव के अन्य तरीकों को ईजाद किया, मसलन- आर्थिक बहिष्कार कर चुकाने से मना करना, असहयोग, हड़ताल। इनमें से कोई भी केवल प्रेमप्रसूत पीड़ा की आध्यात्मिक शक्ति पर निर्भर नहीं था। गाँधी की शब्दावली भी आक्रामक होने लगी थी। वह ‘अहिंसक युद्ध’, ‘शांतिपूर्ण विद्रोह’, ‘युद्ध का सभ्य तरीका’, ‘हिंसा के हर कदम से युद्धरत’ और सत्याग्रही के ‘शस्त्रागार’ के ‘शस्त्र’ इत्यादि शब्दों का प्रयोग करने लगे। इनका मक़सद प्रतिपक्षी को संवाद के लिए ‘प्रवृत्त करना’ व ‘दबाव’ डालना था और जैसी उम्मीद थी, गाँधी के राजनीतिक यथार्थवाद ने उनके नैतिक यथार्थवाद पर जीत हासिल कर ली। उनके दावों के बावजूद उनके सत्याग्रह अपनी प्रकृति में हमेशा पूर्णतः आध्यात्मिक नहीं थे।

इन पद्धतियों के साथ गाँधी ने अत्यधिक विवादित पद्धति ‘उपवास’ को प्रस्तुत किया। वह जानते कि उनके उपवास उनके आलोचकों और समर्थकों में बैचेनी पैदा करेंगे और वे उनकी रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक प्रयास करेंगे। उन्होंने तर्क दिया कि उनका उपवास प्रेमप्रसूत पीड़ा का रूप था और इसके चार उद्देश्य थे—

1- यह उनके गहन दुःख और पीड़ा को अभिव्यक्त करने का तरीका था क्योंकि वह जिन लोगों को प्यार करते थे, उन लोगों ने ख़ुद का पतन किया और उन्हें निराश किया।

2 – लोगों का नेता होने के कारण उनकी गलतियों के लिए गाँधी ज़िम्मेदार थे और इसकी क्षतिपूर्ति उपवास के माध्यम से कर रहे थे।

3- यह उनका अंतिम जोख़िम भरा प्रयास होता था- एक – ‘गहन आध्यात्मिक प्रयास’, जिससे वह दूसरों की ‘निस्तेज चेतना’ को हिला सकें; ‘उन्हें कर्म करने हेतु प्रेरित कर’ सकें और उनकी नैतिक ऊर्जा को लामबंद कर सकें। अनेक कारणों से देशवासी अपनी संवेदनाओं को तात्कालिक तौर पर भुला चुके थे। जैसे- सांप्रदायिक हिंसा, अन्याय और पीड़ा, अस्पृश्यता के समय वे संवेदनहीन हो जाते थे। सत्याग्रह के हिंसक हो जाने पर वे आत्मानुशासन की कमी को दिखाते थे। ख़ुद पीड़ा सहन कर और दूसरों में सहानुभूतिपूर्ण पीड़ा को जागृत कर गाँधी का कहना था कि वह लोगों को अपने किए गए कामों के पुनर्मूल्यांकन हेतु प्रवृत्त करते थे।

4 – उपवास का मक़सद संघर्षरत पक्षों को साथ में लाना और उनके बीच के मतभेद सुलझाना था। इससे दोनों में सामुदायिकता का भाव गहराता, ताकि दोनों आत्मनिर्णय एवं संघर्ष-निवारण की उनकी शक्तियों को ख़ुद विकसित कर सकें।

गाँधी सहमत थे कि यह दूसरे पक्ष पर एक विचारणीय दबाव डालता था, लेकिन संभालने पर यह पूर्णतः औचित्यपूर्ण था। समाज में बुराइयाँ अवश्यम्भावी थीं और इनसे संघर्ष आवश्यक था। नैतिक प्रार्थनाएँ व्यर्थ हो चुकी थीं। व्यक्ति या तो बुराई के प्रति मौन रहे, जो कि अपने आप में अनैतिक होना था, या अहिंसक होने के नाते उपलब्ध साधनों का प्रयोग करे। उपवास नैतिक दबाव नहीं डालता, इसमें कुछ अनुचित नहीं था। इसमें जबर्दस्ती या भयादोहन (ब्लेकमेलिंग) नहीं था, क्योंकि यह दूसरों को व्यक्तिगत क्षति की धमकी नहीं देता था। साफ है कि दूसरे लोग उपवास करने वाले को मरने नहीं देना चाहते थे, लेकिन ऐसा इसलिए था क्योंकि वे उसे प्रेम करते थे। इसमें कुछ अनैतिक नहीं था कि उपवास करनेवाला उन लोगों के मन में उपवास के ज़रिए प्रेम जागृत करे, विशेष तौर पर तब, जब उपवास का उद्देश्य उन्हें बेहतर मनुष्य बनाना था।

उपवास का दुरुपयोग स्वार्थपूर्ति के लिए या भयादोहन के लिए भी किया जा सकता था। गाँधी ने इस पर कठोर सीमाएँ लादी थीं

1- इसका प्रयोग केवल उन्हीं लोगों के विरुद्ध किया जा सकता था जिसके साथ आप प्रेम से बँधे हुए हों। इसका प्रयोग अजनबियों के विरुद्ध नहीं किया जा सकता। इसलिए गाँधी के उपवास उनके साथी देशवासियों के विरुद्ध थे और बहुत ही दुर्लभ क्षणों में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़।

2- उपवास का एक ठोस एवं स्पष्ट विशिष्ट उद्देश्य हो, जिसे प्रतिपक्षी आसानी से समझ सके व प्रतिक्रिया दे सके।

3- जिनके विरुद्ध उपवास किया जा रहा है, उनकी नज़रों में भी उपवास का उद्देश्य नैतिक रूप से रक्षायोग्य हो ।

4 – इससे किसी भी तरह व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति नहीं होनी चाहिए।

5- इसके ज़रिए लोगों को बहुत त्याग या अकरणीय कार्य को करने के लिए नहीं कहा जा सकता।
6-उपवास ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए जो लोगों का नैतिक नेता हो, जिसका लोगों के कल्याण के लिए कार्य करने का इतिहास हो तथा जो बेदाग़ नैतिक चरित्र का हो।

सत्याग्रह की सीमाएँ –

गाँधी का सत्याग्रह सिद्धांत मानवीय प्रकृति के उनके सिद्धांत का पूरक था। सत्याग्रह का सिद्धांत राजनीतिक क्रियाकलाप एवं सामाजिक बदलाव के सिद्धांतों में एक महत्त्वपूर्ण मौलिक एवं सृजनात्मक योगदान था। तार्किक संवाद की सीमा और हिंसा के खतरों पर जोर देते समय वह बिल्कुल सही थे और उन्होंने राजनीतिक आचरण के नए रूपों को खोजा जिन्होंने तर्क-हिंसा के द्वैध के तंग नज़रिए को तोड़ने का काम किया। सत्याग्रह ने मनुष्य के तार्किक एवं नैतिक स्वभाव को ध्यान में रखा और तार्किक संवाद व नैतिक आग्रह के मूल्य पर जोर दिया। यह हठधर्मिता व नैतिक अंधत्व की मानवीय क्षमता के प्रति सचेत था और इनसे उबरने के लिए दोनों पक्षों की साझी मानवीयता को जागृत एवं उनके पारस्परिक रिश्तों और समझ को रूपांतरित करता था। सत्याग्रह का मक़सद उपस्थित असहमति का ही निवारण करना नहीं था, बल्कि एक गहरा नैतिक एवं संवेदनात्मक बंधन जोड़ना भी था। इस प्रकार दोनों पक्ष समझौते को मजबूती देते, ताकि भविष्य में संघर्ष से बचा जा सके।

हालाँकि गाँधी के सत्याग्रह का नैतिक एवं राजनीतिक महत्त्व संदेह से परे है, फिर भी यह रामबाण नहीं है, जैसा कि गाँधी सोचते थे। यद्यपि वह तर्क व नैतिकता की एकता पर जोर देते समय सही थे, लेकिन उनकी यह सोच गलत थी कि सभी या अधिकांश सामाजिक संघर्ष विपक्षी के हृदय को छूने से निपट जाएँगे। संघर्ष कभी-कभार पैदा ही इस कारण होते हैं कि अच्छी भावना वाले लोग जन-कल्याण के बारे में बहुत अलग-अलग नज़रिए अपनाते हैं। मानवीय जीवन की पवित्रता के नियम के आधार पर कुछ लोग गर्भपात, इच्छामृत्यु या युद्ध को अनैतिक बता सकते हैं परंतु अन्य शायद विपरीत निष्कर्ष पर पहुँचे। यह देखना काफी जटिल है कि गाँधी की पद्धति इन विभिन्नताओं और परिणामस्वरूप उत्पन्न संघर्षों का समाधान कैसे कर पाती है।

गाँधी यह तर्क देते समय संभवत: सही थे कि मनुष्य दूसरों की पीड़ा से प्रभावित होता है और उस पीड़ा के प्रति अफ़सोस प्रकट करता है, फिर चाहे वह उसके बारे में कुछ कर पाए या नहीं। तथापि उन्होंने इस तथ्य को नज़रअंदाज़ किया कि अगर लोग यह सोचें कि अमुक व्यक्ति को पीड़ा मिलनी ही चाहिए तो उनकी प्रतिक्रिया बिल्कुल अलग होगी। दरअसल पीड़ा नहीं, बल्कि व्यक्ति का इसके प्रति निर्णय ही पीड़ा के बारे में उस व्यक्ति की प्रतिक्रिया निर्धारित करता है। परिणामस्वरूप यह व्यक्ति के विश्वास पर निर्भर करता है जिससे अन्य लोग असहमत हो सकते थे। शार्पविल जनसंहार से अनेक श्वेत दक्षिण अफ्रीकी अप्रभावित बने रहे, वियतनाम में अमेरिकी नेपाम बमों के कारण वियतनामी पीड़ितों की दर्दनाक तस्वीरों ने अनेक अमेरिकियों की चेतना को नहीं झकझोरा और यहूदियों के प्रति नाज़ियों की क्रूरता ने जर्मनों को प्रभावित नहीं किया।

गाँधी गलत थे जब वह यह कह रहे थे कि सत्याग्रह कभी असफल नहीं होता और यह सभी परिस्थितियों में प्रभावी था। अगर वह यह कहते कि यह विश्व में व्यक्ति का स्व-निर्णय था और व्यक्ति किसी को मारने के बजाय मरना पसंद करेगा, परिणाम चाहे कुछ भी हो तो उनकी दृष्टि नैतिक भाव लिए होती, न कि राजनीतिक । गाँधी ने जोर दिया कि सत्याग्रह का अर्थ सफलता था और यह व्यावहारिक परिणाम प्राप्त करता था। उनके दावों की पड़ताल ज़रूरी थी। गाँधी का यह विश्वास था कि सभी मनुष्य आत्मा रखते थे जिसे ‘छुआ’ या ‘सक्रिय’ किया जा सकता था। परिणामतः वह इस ओर ध्यान नहीं दे सके कि कुछ मनुष्य गंभीर रूप से दूषित और आशा से परे हो सकते थे। सत्याग्रह प्रतिपक्षी में शिष्टता की उम्मीद करता है। इसके अलावा वह एक ऐसे मुक्त समाज की उम्मीद करता है, जहाँ उक्त प्रतिपक्षी की क्रूरता का पर्दाफाश किया जा सके। साथ ही वह एक ऐसे तटस्थ जनमत की उम्मीद करता है, जिसे इस प्रतिपक्षी और क्रूरता के ख़िलाफ़ लामबंद किया जा सकता हो। सत्याग्रह यह पूर्वकल्पना करता है कि शामिल दोनों पक्ष अंतर्निर्भर हैं, वरना पीड़ितों के असहयोग से प्रतिपक्षियों के हितों को प्रभावित नहीं किया जा सकता था। साथ ही वह यह भी मानता है कि पीड़ित पर्याप्त रूप से आत्मनिर्भर व प्रभावशाली संगठन रखते हैं ताकि अन्याय से लड़ा जा सके। नाज़ी यातना गृहों में हड्डियों के ढाँचे जैसे बन चुके इंसानों का सत्याग्रह शुरु कर सकना एक असंभव सी बात थी। अगर ऐसा हो भी जाता, तो भी एक बंद और क्रूर तानाशाही व्यवस्था में यह सफल नहीं हो सकता था। जैसा कि मार्टिन बूबर ने गाँधी को लिखा कि जहाँ कोई गवाह नहीं होता, वहाँ शहादत नहीं हो सकती और शहादत के बग़ैर सत्याग्रह अपना नैतिक बल खो देता है। द ज्यूइश फ्रंटियर के संपादक और गाँधी प्रशंसक हईम ग्रीनवर्ग ने गाँधी को लिखा ‘जर्मनी में अगर यहूदी गाँधी पैदा होगा तो पाँच मिनट से अधिक काम नहीं कर पाएगा और उसे गिलोटिन पर ले जाकर मार दिया जाएगा।’ गाँधी ने प्रत्युत्तर दिया कि हिटलर भी इंसान था और जिन यहूदियों को यहाँ-वहाँ मारा जा रहा था, उन्हें अपनी गरिमा रखनी चाहिए और मौत के रास्ते का चुनाव करना चाहिए। यह निर्णय आम जर्मन नागरिक पर प्रभाव डालेगा, अगर तात्कालिक तौर पर नहीं तो बाद में ही सही । गाँधी के उत्तर में दम था परंतु यह अहिंसा की शक्ति के अटूट विश्वास पर निर्भर था और उसमें इन जटिल तरीकों को समझने की कम समझ थी कि एक तानाशाही व्यवस्था कैसे समुदाय के प्रति क्रूरता कर रही थी, पीड़ितों को ख़त्म कर रही थी और जन संवाद को तोड़ते-मरोड़ते हुए सत्याग्रह के लिए आवश्यक पूर्व स्थितियों को दुर्बल करती थी।

गाँधी के सत्याग्रह के पास इस बारे में कहने को काफी कुछ है, लेकिन यह रामबाण नहीं हो सकता है। यद्यपि गाँधी ने जोर दिया कि ज़रूरी नहीं कि हिंसा घृणा और द्वेष के साथ ही हो या अनियंत्रित हो। अहिंसा की तरह यह भी संयमित, सुविचारित, अन्याय करने वालों और उसके भुक्तभोगियों दोनों के प्रति प्रेम से उपजी हुई हो सकती है और उसका उपयोग मानवता पतन को रोकने के लिए किया जा सकता है। गाँधी इतने समझदार थे कि उन्होंने किसी एक ‘सर्वोच्च’ कार्यनीति पर जोर न देकर परिस्थितियों की ज़रूरत मुताबिक एक से अधिक कार्यनीतियों के प्रयोग की बात कही। चूँकि विभिन्न परिस्थितियों में अलग अलग प्रतिक्रियाओं की ज़रूरत होती है, अत: हो सकता है कि कभी-कभार हिंसा अहिंसा की तुलना में परिणाम हासिल कर ले। अहिंसा ऐसी परिस्थितियों में या तो परिणाम प्राप्त नहीं कर सकती या मानवीय पीड़ा की बहुत बड़ी कीमत चुका कर ही वह ऐसा कर सकती है।

यद्यपि गाँधी के सत्याग्रह की सीमाएँ थी और इसे ‘सर्वोच्च बल’ कहते हुए वह गलत थे। फिर भी सत्याग्रह सामाजिक बदलाव की एक सशक्त, सभ्य एवं प्रमुख नैतिक पद्धति थी। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बदलाव लाकर विभिन्न देशों में इसे अपनाया गया। अमेरिका इसका सबसे शानदार उदाहरण है। 1930 के दशक के प्रारंभ से ही अनेक अश्वेत अमेरिकी नेता भारत आए और गाँधी से सलाह ली व उनकी पद्धति का अध्ययन किया। गाँधी उनकी प्रतिबन से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने कहा कि ‘विश्व को का विशुद्ध संदेश नीग्रो लोगों के द्वारा प्राप्त होगा’ । 1950 व 60 के दशक का मार्टिन
जूनियर के नेतृत्व में अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन गाँधी की इस आशा को पूरा करता था। ‘सामाजिक बुराइयों को ख़त्म करने के तरीकों की एक गंभीर बौद्धिक तलाश’ की शुरुआत करते हुए किंग मार्क्स सहित अनेक लेखकों की ओर मुड़े परंतु उनसे कोई मदद नहीं मिली। 1950 में हॉवर्ड विश्वविद्यालय के तत्कालीन प्रेसिडेंट एम. जॉनसन के एक प्रवचन ने उन्हें गाँधी के सत्याग्रह की महत्ता की ओर मोड़ा। किंग ने गाँधी को गहराई से पढ़ा और उनके लेखन में ‘बौद्धिक एवं नैतिक संतुष्टि प्राप्त की। उन्होंने लिखा——-

“मैं जितना पढ़ता गया, उतना ही (गाँधी के) अहिंसक प्रतिरोध के पाश में बँधता गया… सत्याग्रह का पूरा विचार…… मेरे लिए बहुत महत्त्व का था। मैं गाँधी के दर्शन में जितना डूबता गया, प्रेम के बल के प्रति मेरे संदेह तिरोहित होते गए और पहली बार मैं सामाजिक सुधार के क्षेत्र में इसके सामर्थ्य से परिचित हुआ। गाँधी को पढ़ने से पहले मैंने यह विचार पक्का कर लिया था कि ईसा की नीति केवल वैयक्तिक रिश्तों में ही असरकारी थी…… लेकिन गाँधी को पढ़ने के बाद मैंने देखा कि मैं सरासर गलत था। गाँधी इतिहास में पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने ईसा की प्रेम नीति को व्यक्तिगत संपर्कों से ऊपर उठा कर व्यापक स्तर पर एक सशक्त एवं प्रभावी सामाजिक बल बना दिया…. प्रेम और अहिंसा पर गाँधी के जोर देने से ही मैं सामाजिक सुधार की उस पद्धति की खोज कर सका जिसकी तलाश मुझे कई महीनों से थी।”

प्रेमप्रसूत पीड़ा की ताक़त, हिंसा से विरक्ति, हृदय बुद्धि पर समान जोर देना, चेतना जागृत करना, अन्याय से पीड़ितों में आत्मविश्वास जगाना तथा एक प्रेरणाशाली नेता एवं प्रभावी संगठन की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर गाँधी के विश्वास को किंग ने भी माना। फिर भी किंग ने अमेरिकी परिस्थितियों के अनुसार बदलाव कर गाँधी के सिद्धांत को लागू किया। किंग ईसाई थे और इसलिए गाँधी की तत्त्वमीमांसा का प्रभाव उनके लिए काफी सीमित था। जैसा कि उन्होंने लिखा कि ‘ईसा ने (अहिंसक प्रतिरोध के लिए) चेतना को तैयार किया एवं प्रेरणा दी, जबकि गाँधी ने पद्धति प्रदान की।’ । गाँधी के उपवास, वैयक्तिक शुद्धता की आध्यात्मिक शक्ति में उनका विश्वास, सादे जीवन पर जोर एवं इंद्रियों पर नियंत्रण जैसे विचार किंग को आकर्षित नहीं कर सके। यह अजीब लगता है। कारण ईसा को सूली पर चढ़ाना ईसाइयत का मूल भाव है। ऐसे में किंग इसका अपने राजनीतिक व्यवहार में उपयोग करने के रास्ते तलाश सकते थे, जैसा कि गाँधी ने उपवास के साथ किया। तथ्य यह था कि किंग एक व्यापक लोकतांत्रिक संदर्भ में अपना काम कर रहे थे और यह चाहते थे कि अश्वेत लोग अमेरिकी समुदाय में शामिल हों। विद्यमान क़ानूनी, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों के साथ गाँधी का असहयोग का तरीका उनके लिए ज़्यादा महत्त्व का नहीं था। कुछ पहलुओं में गाँधी की तुलना में किंग बुराई की ताक़त के प्रति व्यावहारिक रूप से सचेत प्रतीत होते हैं। इसके पीछे अमेरिकी प्रोटेंस्टेंट धर्मशास्त्री रेनहोल्ड नीबर का बौद्धिक प्रभाव देखा जा सकता था जो गाँधी की अहिंसा के प्रशंसक भी थे और सीमाओं को भी बतलाते थे। इसी कारण किंग स्वयं और उनके समर्थक ‘मानवीय प्रकृति के प्रति सतही आशावाद के भ्रम और झूठे आदर्शवाद के खतरे के’ प्रति सचेत थे । किंग के नागरिक अधिकार आंदोलन ने गाँधी के सत्याग्रह की वैश्विक प्रासंगिकता और इसके सृजनात्मक रूपांतरण व विकास की ज़रूरत को दर्शाया। [/Responsivevoice]

श्रोत- 1-गांधी वाड्मय खण्ड 4 ,पृ0 237
2-गांधी वाड्मय खण्ड 26, पृ0 486-492
3-गांधी वाड्मय खण्ड 48, पृ0 489
4-गांधी वाड्मय खण्ड 25 पृ0 199-202
5- गांधी वाड्मय खण्ड 68 पृ0 137-141
6-गांधी वाड्मय खण्ड 62 प्0 202