भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम

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भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम

—–  अवधीलोरी  ——

चित्र लेखा वर्मा
चित्र लेखा वर्मा   

भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम तो है,यह हमें अपनी संस्कृति रीति रिवाजो और परम्पराओं से जोड़े रखने का काम भी करती हैँ। हम जिस परिवेश में जन्म लेते है,वहाँ की स्थानीय भाषा हमारे रक्त में घुल मिल कर जबान पर चढ़ जाती है। यह एक तरह से हमारी निजी पहचान होती है। उस भाषा में अपने को अभिव्यकत करने के लिए किसी अतिरिक्त श्रम की जरूरत नहीं पड़ती है। मुक्त निरझरिणी की तरह वह हमारे मन की सहज प्रतिक्रिया बन कर  स्वतः फूट पड़ती है , आवश्यकता और उपयोगिता के अनुसार हमारी भाषा भले ही बदल जाए परन्तु उसको अतिरिक्त दबाव से मुक्ति मिलते ही ,जबान चढ़ी भाषा अपना मूल स्थान ले लेती है । लोरी के विषय में हम इस तरह से यह कह सकते हैं कि लोरी उन गीतों को कहते हैं जो नन्हे मुन्नों को सुनाने और सुलाने के लिए गाये जाते हैं। 

  लोरी शब्द संस्कृत के लोल शब्द का अपभ्रंस हैं। इसका अर्थ होता है हिलाना ,डुलाना व थपथपाना। माताएं अपने नन्हे,मुन्ने बच्चों को गोद में लेकर ,कन्धे पर डाल,पालने में लिटा थपकी देकर सुलाती हैं और उनकी आँखों में नींद बुलाने के लिए मुख से मधुर शब्दों में कुछ ऐसे गीत सुनाती हैं कि उनको सुन कर बच्चों को जल्दी नींद आ जाती है। यह गीत पारिवारिक वातारण से प्रेरित होते हैँ । तथा इनमे माँ की ममता और निर्मल वात्सल्य की सरलता अभिव्यक्त होती है। यह प्रायः संध्या के समय ही गाया जाता है । इसलिए इसमें सूरज डूबने से लेकर चाँद निकलने और तारे छिटकने तक के प्राकृतिक दृश्यों का सजीव चित्रण होता है। मातायें बच्चों के भय,आशंका,हर्ष,प्रसन्नता आदि का ध्यान करके उनकी भावनाओं को सुनिश्चित करने और उनको सोने की प्रेरणा देने की कोशिश करती हैं। लोरियाँ कविता की तरह सुनायी नहीं.. गायी जाती हैँ। इस तरह मानवीय संगीत का पहला पाठ या यों कहिये परिचय बच्चों को लोरियों से ही होता है। इन लोरियों के शब्द ज्यादातर मनगढ़न्त ही होते हैं।

लोरियां, मातायें बच्चों को पालने में लिटाते समय इसी लिए गाती हैं जिससे का बच्चा खुशी- खुशी सो जाए। लोरी और पालने के गीतों का इतिहास बहुत पुराना है।  इस की परम्परा प्रचीन काल से चली आ रही है।

दूसरे शब्दो मैं लोरी उन गीतो को कहते हैँ,जोनन्हे मुन्नों को सुनाने और सुलाने के लिए गाए जाते हैँ।लोरी संस्कृत के लोल शब्द का अपभ्रश है जिसका अर्थ होता है हिलाना डुलाना तथा थपथपना।मातायें अपने बच्चों को गोद में लेकर, कन्धे पर डाल कर या पालने पर लिटाकर थपकी देकर ,मुख से कुछ ऐसे मधुर-मधुर कुछ गीत गाती जिन्हें सुन कर बच्चों को जल्दी नींद आ जाती है । यह पारिवारिक वातावरण से प्रेरित होते हैं। इन गीतों में माँ की ममता औऱ निर्मल वात्सल्य की सरल स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है। यह गीत अधिकतर सन्ध्या के समय गाये जाते हैँ ।इसी लिए उसमें सूरज डूबने से लेकर चाँद के निकलने और तारों के छिटकने तक के दृश्यों का सजीव चित्रण रहता है।लोरियां कविता की तरह सुनाई नहीं गायी जाती है ।इस तरह मानवीय संगीत का पहला परिचय बच्चों को लोरियों के माध्यम से होता है। इन लोरियोंके शब्द अधिकतर मनगढ़न्त होते हैं।

                 कुछ लोरियों में मातायें बच्चों की कोमल भावनाओं के अनुरुप उनके भविष्य के विषय में तरह-तरह की कल्पनायें( लोरियो )के माध्यम सै करती

    ‘मदलसा का उपाख्यान‘ में मदलसा अपने बच्चों को सुलाने के लिए लोरियां गाती हैं। मदलसा विश्वासु गंधर्व की कन्या है। इसे पाता केतु असुर पाताल से भगा ले गया था। शत्रुजित के पुत्र ऋतु ध्वज ने इसे मुक्त कर पाणिग्रहण किया। पाताल केतु के भाई ताल केतु ने मदालसा से असत्य कहा कि ऋतुध्वज का देहांत हो गया है। इस पर मदालसा सती हो गयी। बाद में अवश्तर नाग ने शंकर भगवान को प्रसन्न कर उनसे योगी व पहले जैसी मदालसा कन्या को पराप्त कर उसे पुनह रितुध्वज को दे दिया। इसको विक्रान्त,सुबाहु,शत्रुमर्दन व अलक ये चार पुत्र.हुये।जिन्हे मदालसा (द्वितीय) ने योग मार्ग का उपदेश दिया । (मार्कन्डे पुराण ) मदालसा अपने पुत्र (अलका ) को सुलाते समय लोरी गाती है। 

            तत्वमसि तात. शुद्ध ,बुद्ध ,निरंजन ।

                भव माया वर्जित ज्ञाता ।

                  मव त्वपनं च मोह निद्रा त्यज मदालसह सुत माता ।

अर्थात माता कहती है तुम शुद्व , बुद्व और निरंजन हो । तुम संसार की माया से रहित हो । तुम मोह निद्रा को छोड़ो ।

 बालक फिर रोता है तब वह उसको चुप कराते हुए कहती है…… 

नाम विमुक्त शुद्वो —सिरे सूत मया कल्पित तब नाम न ते शरीर न चस्य त्वमसि कि रोदिषि त्वं सुखधाम. ।

 अर्थात हे पुत्र तुम नाम से रहित हो ।

 न तो यह शरीर तुम्हारा है न. तुम इसके हो ।

 अतः तुम क्यों रो रहे हो ।

इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय लोरियों का स्तर बहुत ऊंचा था ।उसमें तत्व ज्ञान का गहरा पुट था। लोरी और पालने के गीतों की परम्परा को ढूंढना बहुत ही कठिन कार्य है। मानव की सृष्टि के विकास में हर माता ने अपने बच्चे को प्यार से थपकियां देकर,गाकर सुलाया होगा।यही नहीं खेतों में काम करने वाली कितनी माताओं ने अपनी धोती व चादर का झूला या कहिए पालना बना कर अपने पुतुवा, ललना व बच्चवा को थपकी दे -देकर अस्फुट अर्थ हीन पर लय युक्त स्वरों में गीत गा-गा कर सुलाया होगा। गांवों की अशिक्षित महिलाएं जिन लोरियों को गाया करती हैं उसमें अधिकतर मात्र शब्द योजना होती है , इसमें अर्थ का अभाव रहता है जैसे ……

 आउरे चिरैया वन मा झोझियां लगाओ ,

तोरी झोंझियाँ मा आग लागै मैया को सोवाव रे ।

 सूरदास व तुलसीदास ने भी कुछ लोरियाँ लिखी है 

 तुलसी दास ने गीतावली में राम को सुलाने के लिए माता से लोरियां गवाई है …….

पौढ़िए लालन ,पालने हों , झुलावौं

कर पद मुख चख कमल लसत लखि लोचन भंवर झुलावौ ।

 इसी प्रकार सूरदास ने भी कृष्ण के लोरी पदों में जोई ,सोई शब्दों का प्रयोग किया है ।

 यशोदा हरि पालने झुलावैं ,हलरावैं दुलरावैं

मल्हावै जोई ,सोई कछु गावैं । मेरे लाल को आव रे निदरिया काहे न आनि सुआवै ।

            इस तरह से हम देखते हैं कि बच्चों को सुलाने के लिये गाया जाने वाला लघु गीत ही लोरी कहा जाता है । लोरियाँ लोक गीतों का ही अंग है। प्रचीन साहित्य के अतिरिक्त अंग्रेजी साहित्य में भी लोरी का स्थान है। अंग्रेजी में लोरी को ललेबीज कहते हैं। इनमें इतनी स्वाभाविकता नहीं है जितना हिंदी लोरियों में है। भारत वर्ष के सभी प्रान्तों की मातायें अपने- अपने बच्चों को सुलाने के लिये उस क्षेत्र की प्रचलित लोरियां गातीं है ,तथा उसमें अपने बच्चों के सुख , स्मृद्वि की कामना करतीं हैं।उन गीतों में अपने बच्चों के सुख स्मृद्वि की कामना के अलावा वे देवी ,देवताओं से उनके लिए मनौती मानती है और नींद में बच्चों की रक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं। इन लोरियों का मनोवैज्ञानिक भाव यह है कि वे गीतों द्वारा बच्चों का ध्यान,एक जगह से हटा कर उन्हें सोने के लिए प्रेरित करतीं हैं । ताल. युक्त थपथपाहट एवं ध्वनि से बालक के मन और शरीर को सुख मिलता है और उसे शीघ्र ही नींद आ जाती है तथा माँ भी बच्चे को सुला कर निश्चित हो जातीं है। हिन्दी खड़ी बोली में लोरी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है।बाल रचनाकारों में सबसे पहले अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने अपनी रुचि दिखायी थी। उनकी लिखी एक लोरी देखिए ………

    आरी नींद लाल को आजा ।

उसको करके प्यार सुला जा ॥

तुझे लाल हैं ललक बुलाते।

अपनी आँखों पर बिठलाते ॥

तेरे लिए बिछाई पलकें ।

बढ़ती ही जाती हैँ ललकें ॥

क्यों तू है इतना इठलाती ।

आ आ मैं तुझे बुलाती ॥

गोद, नींद की है अति प्यारी । 

फूलों से है सजी सँवारी ॥

उसमें बहुत परम मन भायी ।

रुई की है पहल जमाई ॥

 बिछे बिछौने हैं मल मल के ।

बड़े मुलायम सुन्दर हलके॥

जो तू चाहे लाल उसको कर ।

जो तू सोजा आँख मूंद कर ॥

मीठी नींदों प्यारे तू सोना ।

सोने की पुतली तुम मत खोना ॥

उसकी करतूतों के ही बल पर ।

ठीक ठीक है चलती तन कर ॥

लोरियां लिखना वास्तव में पुरुषों का काम भी नही है।माताओं के ही मनोभाव उसमें व्यक्त होते है और वे ही उसे गाती हैं। हिंदी साहित्य की आधुनिक कवियत्रियो में बहुत कम ने लोरियां लिखने की ओर कुछ ध्यान दिया है । जिन कवियत्रियों ने बाल गीत लिखे हैं उन्होंने ने भी लोरियां लिखने में कोई विशेष रुचि नही दिखायी है । श्रीमती विद्यावती कोकिल ने कुछ सुन्दर लोरियां लिखी हैं। उदाहरणार्थ ………  

             निदिया ललन को बहुत प्यारी,

अपने प्राणों को दीपक कर ,

 जीवन को कर बाती ,

 सिरहाने बैठी हूँ , 

कब से उसे जगाती ।

भभक उठी है छाती ,

मेरी आँखें हैं कुछ भारी ।

निंदिया ललन को बहुत प्यारी ……

 मेरठ की सुप्रसिद्ध समाजसेवी महिला कवियत्री और लेखिका कमला चौधरी ने भी कुछ लोरियां लिखी है।’ चित्रों में लोरियाँ`’नाम से उनकी एक सुन्दर पुस्तिका भी छपी थी ।लोरियाँ लिख कर जिसने सबसे ज्यादा यश अर्जित किया है वह हैं शकुन्तला सिरौठिया । उनकी लोरियों का क्षेत्र बहुत व्यापक है । उनकी एक बहुत प्रसिद्ध लोरी प्रस्तुत है……..

            चाँदनी की चादर उढ़ाऊँ तुझे मोहना ।

सोजा मोरे लालना ।

      सूरज भी सो गया , पंछी भी सो गये,

डालो की गोदी में फूल भी सभी खो गये ।

तू भी चुप सोजा ,झुलाऊँतुझे पालना 

                उनकी दूसरी लोरी …….

चंदा प्यारे आ जाओ ,नींद रंगीली ले आओ ।

चाँ द लोक की परियाँ भेजो ,भेजो मृग का छौना ।

मुन्ना मेरा सोने जाता ,लगे न इसको टोना ।

पलना सोने का लाओ , चंदा प्यारेआ जाओ ।

शकुन्तला जीने केवल लाल या मुन्ने के लिए ही नहीं

मुन्नी यानी बेटियों को सुलाने के लिए भी लोरी लिखीं      

है जैसे……

  आँख बन्द कर राज दुलारी ,तुझे सुनाऊँ लोरी ,

लाल मुन्नैया चिड़िया पालूं ,

आम डाल पर पलना डालूं,

रेश्म की दे डोरी,

तुझे सुनाऊँ लोरी ।

 लहंगा तुझे मंगाऊँ,

सोजा मुन्नी मेरी ,

तुझे सुनाऊँ लोरी ।

     हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध बालगीत कार अशोक एम.ए.की धर्म पत्नि लक्ष्मी देवी चन्द्रिका ने भी कुछ सुन्दर लोरियाँ लिखी है —— । उनकी एक लोरी यहाँ प्रस्तुत है ………

सोजा ललना ,सोजा ललना ,माँ की गोदी तेरा घर है

तेरा घर है ,तेरा घर है, फिर कयों तेरे मन में डर है ।

सोने चांदी का है पलना, सोजा ललना,सोजा ललना ।

मीठी -मीठी नींद बुला दूं, थपकी देकर तुझे सुला दूं।

कभी न सोना और मचलना, सोजा ललनन, सोजा ललना ।

चंदा आया ,चंदा आया, साथ बहुत से तारे लाया

मीठा दूध कटोरा लाया, अच्छे पथ पर ही तुम चलना 

सोजा ललना ,सोजा ललना …..

राजस्थान के श्री शंम्भू दयाल सक्सेना की ‘शिशु लोरी’, ‘मधु लोरी’ , ‘चन्द्र लोरी’, तथा ‘आरी निंदिया’आदि बहुत से नामों से लिखी लोरियों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।एक लोरी के कुछ अंश देखिए ……..

आरी निंदिया ,आरी निदिया, सपने भर -भर ला रे निंदिया

सोता है भैया पलने में, तारो को दे जा निंदिया

प्यारी निंदिया ,प्यारी निंदिया….

हिंदी साहित्य में लोरियों का क्षेत्र बहुत ही उपेक्षित रहा है ।बड़े कवियों और बाल गीत कारों ने लोरियाँ नहीं ही लिखी। केवल डा०श्रीनाथ सिंह और राम सिंहासन सहाय मधुर ने इस ओर ध्यान दिया है ।

राष्ट्र बन्धु ने इस ओर अवश्य ध्यान दिया ।उनकी ‘कन्त कथैया धुनु मनैया’नामक प्रसिद्ध लोरी का एक अंश द्रष्टव्य है।

कन्तक थैया धुनूँ मनैयाँ,चन्दा मामा पइयाँ-पइयाँ । यह चन्दा हलवाहा है ,नीले- नीले खेतों में, बिल्कुल सेंत -मेंत में रत्नो भरे खेत में।

किधर भागता पंइयाँ-पंइयाँ , कन्तक थैया धुनुँ मनैयाँ ।

बिहार के ब्रज किशोर नरायण के‘आरी निंदिया’ संग्रह से दो लोरियाँ पेश है ………

मे री बिटिया सोजा -सोजा ,

कुत्ता तबला बजा रहा है ,

नाच रही है बिल्ली,

कुत्ता जायेगा कलकत्ता,

बिल्ली जावे दिल्ली ,

घोड़ा बाबू ढ़ोल बजावें ,

बछड़ाजी सारगी

                दूसरी लोरी द्रष्टव्य है……….

सोवोगे पैसा दूंगी,

सोजा मेरे लाल ॥

बूढ़ा मेंढ़क बोले   

,टर, टर , टर , टर ,

बाघ राम हैं पानी पीछे ,

सर,सर,सर सर,

 बड़ी मेढ़की रोटी खाती ,

छोटी ,खाती भात,

बूढ़े मेढ़क ने छोटी को कस कर मारी लात ,

छोटी गिर गयी छप्प ,

सोवो मेरे लाल ॥

यह रही हिन्दी साहित्य में लोरी के स्थान की बात ।अवध क्षेत्र के ग्राम गीतों में लोक जीवन चरितार्थ होता है ,चाहे वे तीज त्योहारों या मांगलिक आयोजनों में गाये जाने वाले प्रौढ़ गीत हों,चाहे बाल मन और मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर रचे गये गीत या बाल गीत हों ।

एक कंठ से दूसरे कंठ तक, एक स्थान से दूसरे स्थान तक आते -आतेइनमे कुछ निखार ,सुधार भले ही आ जावे पर मूल स्वर वही रहता है। अवधी लोरियों का क्या कहना उनकी ध्वन्यात्मकता,नाद सौन्द्रय,प्रकृति प्रेम और बाल मनोविज्ञान से मेल. खाते रोजमर्रा के तरल ,सरस ,शब्द विन्यास किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का ध्यान खींच सकते हैं । अपनी दादी ,नानी और माँ के मुख से जिन लोरियों को सुन कर हम बड़े हुये हैं,उनको जब हम अपने बच्चों को सुनाते हैं तब हम भाव विभोर हो जाते हैं ।

      रही नन्हें मुन्ने की बात ……. जब एक विशेष तरंगित आवृति में कण्ठ प्रिय शब्द कानों से टकराते हैं , तब बच्चा नींद के आगोश में आ जाता है । निश्छल और सरल हृदय का होने के कारण बच्चों का सीधा जुड़ाव प्रकृति से होता है । वे फल,फूल ,पशु, पक्षी को देख कर बहुत खुश होते हैं ।उनकी सहज जिज्ञासु प्रकृति उनको इन चीजों से गहराई से जोड़े रखती हैं । इनकी पसन्दीदा चीजें बार -बार लोरियों में आती हैँ ……..जैसे……

आओ रे चिरैया वन वसिया बजाओ ,

मुन्ना ,मन्नी के टोपिया माँ,

फुलरा लगाव ,

भोली भाली अँखियन माँ ,

निंदिया ले आव ,

सोने के कटोरवा माँ दूध 

भात खवाव ,

     किन्ही लोरियों (अवधी)में माँ की तीव्र उत्कण्ठा रहती है कि

कब बच्चा बड़ा होगा और अपने बाबा के साथ घूमने जायेगा ——–

‘।कब लाल बड़के होहिंहे 

कब बाबा के बगिया जहिंहे,

कब आम घबद लै अहिंहै,

आजी कै अगवा डरिहैं।

तबआजी के जियरा जुड़हिंहै । 

          दूसरे लोरी में माँ बच्चे को खिचड़ी में घी खिला कर बड़े होते बच्चे की  

शादी की कल्पना कर खुश होती है ———

        मोर भैया, मोरभैया,

खिचड़ी चलाय देव , 

घिव डारि देव,

घिव खाय मोर भैया,

जुड़ाय मोर जीव।,

    लबर ,लबर दुलहिन दुवारे खड़ी ।

 मोर मन चाहे लिवाय चली ,

मोर भैया, मोर भैयां ,

टाड से ,घिव गुड़ काढ़ै ,

 फान्दे से ननवा , मां दहिव. यिकहरे से टाठी,

मीनि गोहराइत थै,

 कहै चलो आइत थै,

खटिया गोनांरी बिछाइत थै ।

भैया सोवे ,

निनियां सोवे बडेरिया ।

मोर भैया मोर भैया कोठिया पै जाव,

कोठिया पै बैंठ घिव रोटी खाव,

कोठियां कै मालिक ,बाबू तोहार, 

 श्याम. सुन्नर , महतारी तोहार,

॒लंका कै दूतिन बहिनिया तोहार,

            अब देखिये माँ अपनेबच्चे के लिये क्या कहती है ।

आव रे चिरैया भोले से ,

तू का भूजी तेले से ,

गुल गुल मसवा भैया खाय,

हड़वा, गोड़वा बिलरिया खाय ।

इस लोरी में मां की ममता देखने लायक है।

       आउ. रे चिरैया ,

चन्ना भाई,धाय जाव , धुपाय जाव ,

          चिउ कै लोना लेत आव ,

 कुकरा बुलाय लाव , टा ठी , बेड़ा लेत आव,

भैया ,कै मुइयां मां घुटुक देव,—–

      मां बच्चे को सुलाने के लिये , खिलौना का लालच देती हुये कहती है ।

              लाल के खातिर झुनझुनवा खेलौना लैआइबै।

लाल सोहियें सुघर खटोलवा ।

 झुन झुन घुघुना बजइबै 

  खेलौना लै आइब

जब बच्चा पैंया – पैंया चलने लगता तब मां की ममता और खुशी किस तरह शब्दो में दिखती है ।

पैंया – पैंया बकवा ,बाबू डोलै ,

  ,सूरज डोलै ,डोलै चांद. तलैया,

,-बंकवा बाबू , डोलै ,खेलैं अंगनइया,।

वैसे तो अनेकों लोरियां हैं ,पर अन्तिम कुछ लोरियों का आन्नद लीजिये ———

मइया झुलावै सुख पलना ,

 लालन हमार जैइसै अंखियन कै पुतरी ,

  सगुनी चिरैया मोर अंगनइया उतरीं , 

 सुखुवा हिलौरा मारै ,जस कोवू डोरा डारै ,

उमंगै लहरिया मन कै तालना ,

 ए हो मैया झुलावैं ,सुख पलना,

दुअरा के पिपरा कै डोलै पत्तिवा ,

छिन-छिन जो लालन जी कै लै-लै बलइया,

पड़िहैं झुलवा ,मोरी डालना ,

मैया झुलावैं सुख. पालना ,।

        अन्तिम लोरी ——–

आजा रे निनिया ,आजा रे निदरिया ,

बस जा नयनवन बीच,

पलकन की छंहियां,

आजा-रे, आ जा -रे , आजा-रे , आ निंदियां,

लाल मोरे ,बाबू मोरे, हमरे परनवां,

असरे की जोत मारै , सुखकै सपनवां,

सपना कै बाट जोहै,कब से पुतरिया ,

बस जा सपनवन कै बीच,

पलकन कै छंहियां ,

आजा-रे आजा-रे आजा-रे आ———–

आजा-रे निनिया आजा-रे निंदरिया,

घुघुवा खेलत बाबू , मारै किलकरियां ,

डुग-डुग करत, हेरै सरगै कै परियां,

परियन कै नाच,बाजै फुलवा कै बगिया ,

बस जा नयनवन कै बीच ,पलकन की छंहियां ।

          मुन्ने ,मुन्नियों कोजगाने के लिये भीकवियों ने बहुत से गीत लिखें हैं ।इसमें सूरदास , सोहन लाल दिव्बेदी, अब्दुल-रहमान, सागरी ,शम्भू दयाल सक्सेना, जगदल पुरी आदि हैं , पर इन पर॒भात फेरियों और लोरियों का हमारे सामाजिक जीवन में महत्व धीरे -धीरे कम होता जा रहा है । आज के इस मशीनी युग में माताऔ को इतना अवकाश कह कि वे अपनी मानवीय भावनाऔं से परेरित होकर उनका उपयोग अपने बच्चों को सुलाने और जगाने के लिये कर सकें । फिर भी जब तक बालक की जननी उसकी मां है हैं ,और मां का सहज स्वाभाविक स्नेह अपनी सन्तान के Prati

है ,बालगीत साहित्य में लोरियों और परभात फेरियों का सर्वथा लोप हो गया है ।

 चित्र लेखा वर्मा   

दि इन्डियन बुकडिपो 

आदित्य भवन प्रथम तल

अमीना बाद पोस्ट आफिस के सामने

 बी, एन , वर्मा रोड 

भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम तो है ,यह हमें अपनी संस्कृति रीति रिवाजो और परम्पराओं से जोड़े रखने का काम भी करती हैँ । हम जिस परिवेश में जन्म लेते है ,वहाँ की स्थानीय भाषा हमारे रक्त में घुल मिल कर जबान पर चढ़ जाती है । यह एक तरह से हमारी निजी पहचान होती है । उस भाषा में अपने को अभिव्यकत करने के लिए किसी अतिरिक्त श्रम की जरूरत नहीं पड़ती है । मुक्त निरझरिणी की तरह वह हमारे मन की सहज प्रतिक्रिया बन कर 

 स्वतः फूट पड़ती है , आवश्यकता और उपयोगिता के अनुसार हमारी भाषा भले ही बदल जाए परन्तु उसको अतिरिक्त दबाव से मुक्ति मिलते ही ,जबान चढ़ी भाषा अपना मूल स्थान ले लेती है । लोरी के विषय में हम इस तरह से यह कह सकते हैं कि लोरी उन गीतों को कहते हैं जो नन्हे मुन्नों को सुनाने और सुलाने के लिए गाये जाते हैं। 

  लोरी शब्द संस्कृत के लोल शब्द का अपभ्रंस हैं । इसका अर्थ होता है हिलाना ,डुलाना व थपथपाना । माताएं अपने नन्हे ,मुन्ने बच्चों को गोद में लेकर ,कन्धे पर डाल ,पालने में लिटा थपकी देकर सुलाती हैं और उनकी आँखों में नींद बुलाने के लिए मुख से मधुर शब्दों में कुछ ऐसे गीत सुनाती हैं कि उनको सुन कर बच्चों को जल्दी नींद आ जाती है । यह गीत पारिवारिक वातारण से प्रेरित होते हैँ । तथा इनमे माँ की ममता और निर्मल वात्सल्य की सरलता अभिव्यक्त होती है । यह प्रायः संध्या के समय ही गाया जाता है । इसलिए इसमें सूरज डूबने से लेकर चाँद निकलने और तारे छिटकने तक के प्राकृतिक दृश्यों का सजीव चित्रण होता है । मातायें बच्चों के भय ,आशंका ,हर्ष,प्रसन्नता आदि का ध्यान करके उनकी भावनाओं को सुनिश्चित करने और उनको सोने की प्रेरणा देने की कोशिश करती हैं । लोरियाँ कविता की तरह सुनायी नहीं.. गायी जाती हैँ । इस तरह मानवीय संगीत का पहला पाठ या यों कहिये परिचय बच्चों को लोरियों से ही होता है। इन लोरियों के शब्द ज्यादातर मनगढ़न्त ही होते हैं ।

          लोरियां , मातायें बच्चों को पालने में लिटाते समय इसी लिए गाती हैं जिससे का बच्चा खुशी- खुशी सो जाए । लोरी और पालने के गीतों का इतिहास बहुत पुराना है । 

इस की परम्परा प्रचीन काल से चली आ रही है ।

दूसरे शब्दो मैं लोरी उन गीतो को कहते हैँ,जोनन्हे मुन्नों को सुनाने और सुलाने के लिए गाए जाते हैँ ।लोरी संस्कृत के लोल शब्द का अपभ्रश है जिसका अर्थ होता है हिलाना डुलाना तथा थपथपना ।मातायें अपने बच्चों को गोद में लेकर , कन्धे पर डाल कर या पालने पर लिटाकर थपकी देकर ,मुख से कुछ ऐसे मधुर -मधुर कुछ गीत गाती जिन्हें सुन कर बच्चों को जल्दी नींद आ जाती है । यह पारिवारिक वातावरण से प्रेरित होते हैं । इन गीतों में माँ की ममता औऱ निर्मल वात्सल्य की सरल स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है । यह गीत अधिकतर सन्ध्या के समय गाये जाते हैँ ।इसी लिए उसमें सूरज डूबने से लेकर चाँद के निकलने और तारों के छिटकने तक के दृश्यों का सजीव चित्रण रहता है ।लोरियां कविता की तरह सुनाई नहीं गायी जाती है ।इस तरह मानवीय संगीत का पहला परिचय बच्चों को लोरियों के माध्यम से होता है । इन लोरियोंके शब्द अधिकतर मनगढ़न्त होते हैं ।

                 कुछ लोरियों में मातायें बच्चों की कोमल भावनाओं के अनुरुप उनके भविष्य के विषय में तरह -तरह की कल्पनायें( लोरियो )के माध्यम सै करती

    ‘मदलसा का उपाख्यान ‘ में मदलसा अपने बच्चों को सुलाने के लिए लोरियां गाती हैं । मदलसा विश्वासु गंधर्व की कन्या है । इसे पाता केतु असुर पाताल से भगा ले गया था । शत्रुजित के पुत्र ऋतु ध्वज ने इसे मुक्त कर पाणिग्रहण किया । पाताल केतु के भाई ताल केतु ने मदालसा से असत्य कहा कि ऋतुध्वज का देहांत हो गया है । इस पर मदालसा सती हो गयी । बाद में अवश्तर नाग ने शंकर भगवान को प्रसन्न कर उनसे योगी व पहले जैसी मदालसा कन्या को पराप्त कर उसे पुनह रितुध्वज को दे दिया । इसको विक्रान्त,सुबाहु ,शत्रुमर्दन व अलक ये चार पुत्र.हुये । जिन्हे मदालसा (द्वितीय) ने योग मार्ग का उपदेश दिया । (मार्कन्डे पुराण ) मदालसा अपने पुत्र (अलका ) को सुलाते समय लोरी गाती है । 

            तत्वमसि तात. शुद्ध ,बुद्ध ,निरंजन ।

                भव माया वर्जित ज्ञाता ।

                  मव त्वपनं च मोह निद्रा त्यज मदालसह सुत माता ।

अर्थात माता कहती है तुम शुद्व , बुद्व और निरंजन हो । तुम संसार की माया से रहित हो । तुम 6मोह निद्रा को छोड़ो ।

 बालक फिर रोता है तब वह उसको चुप कराते हुए कहतीहै…… 

नाम विमुक्त शुद्वो —सिरे सूत मया कल्पित तब नाम न ते शरीर न चस्य त्वमसि कि रोदिषि त्वं सुखधाम. ।

 अर्थात हे पुत्र तुम नाम से रहित हो ।

 न तो यह शरीर तुम्हारा है न. तुम इसके हो ।

 अतः तुम क्यों रो रहे हो ।

इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय लोरियों का स्तर बहुत ऊंचा था ।उसमें तत्व ज्ञान का गहरा पुट था ।

लोरी और पालने के गीतों की परम्परा को ढूंढना बहुत ही कठिन कार्य है । मानव की सृष्टि के विकास में हर माता ने अपने बच्चे को प्यार से थपकियां देकर ,गाकर सुलाया होगा ।यही नहीं खेतों में काम करने वाली कितनी माताओं ने अपनी धोती व चादर का झूला या कहिए पालना बना कर अपने पुतुवा , ललना व बच्चवा को थपकी दे -देकर अस्फुट अर्थ हीन पर लय युक्त स्वरों में गीत गा-गा कर सुलाया होगा ।

 गांवों की अशिक्षित महिलाएं जिन लोरियों को गाया करती हैं उसमें अधिकतर मात्र शब्द योजना होती है , इसमें अर्थ का अभाव रहता है जैसे ……

 आउरे चिरैया वन मा झोझियां लगाओ ,

तोरी झोंझियाँ मा आग लागै मैया को सोवाव रे ।

 सूरदास व तुलसीदास ने भी कुछ लोरियाँ लिखी है 

 तुलसी दास ने गीतावली में राम को सुलाने के लिए माता से लोरियां गवाई है …….

पौढ़िए लालन ,पालने हों , झुलावौं

कर पद मुख चख कमल लसत लखि लोचन भंवर झुलावौ ।

 इसी प्रकार सूरदास ने भी कृष्ण के लोरी पदों में जोई ,सोई शब्दों का प्रयोग किया है ।

 यशोदा हरि पालने झुलावैं ,हलरावैं दुलरावैं

मल्हावै जोई ,सोई कछु गावैं । मेरे लाल को आव रे निदरिया काहे न आनि सुआवै ।

            इस तरह से हम देखते हैं कि बच्चों को सुलाने के लिये गाया जाने वाला लघु गीत ही लोरी कहा जाता है । लोरियाँ लोक गीतों का ही अंग है । प्रचीन साहित्य के अतिरिक्त अंग्रेजी साहित्य में भी लोरी का स्थान है । अंग्रेजी में लोरी को ललेबीज कहते हैं । इनमें इतनी स्वाभाविकता नहीं है जितना हिंदी लोरियों में है । भारत वर्ष के सभी प्रान्तों की मातायें अपने- अपने बच्चों को सुलाने के लिये उस क्षेत्र की प्रचलित लोरियां गातीं है ,तथा उसमें अपने बच्चों के सुख , स्मृद्वि की कामना करतीं हैं ।उन गीतों में अपने बच्चों के सुख स्मृद्वि की कामना के अलावा वे देवी ,देवताओं से उनके लिए मनौती मानती है और नींद में बच्चों की रक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं । इन लोरियों का मनोवैज्ञानिक भाव यह है कि वे गीतों द्वारा बच्चों का ध्यान ,एक जगह से हटा कर उन्हें सोने के लिए प्रेरित करतीं हैं । ताल. युक्त थपथपाहट एवं ध्वनि से बालक के मन और शरीर को सुख मिलता है और उसे शीघ्र ही नींद आ जाती है तथा माँ भी बच्चे को सुला कर निश्चित हो जातीं है ।

 हिन्दी खड़ी बोली में लोरी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है ।बाल रचनाकारों में सबसे पहले अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने अपनी रुचि दिखायी थी । उनकी लिखी एक लोरी देखिए ………

    आरी नींद लाल को आजा ।

उसको करके प्यार सुला जा ॥

तुझे लाल हैं ललक बुलाते।

अपनी आँखों पर बिठलाते ॥

तेरे लिए बिछाई पलकें ।

बढ़ती ही जाती हैँ ललकें ॥

क्यों तू है इतना इठलाती ।

आ आ मैं तुझे बुलाती ॥

गोद, नींद की है अति प्यारी । 

फूलों से है सजी सँवारी ॥

उसमें बहुत परम मन भायी ।

रुई की है पहल जमाई ॥

 बिछे बिछौने हैं मल मल के ।

बड़े मुलायम सुन्दर हलके॥

जो तू चाहे लाल उसको कर ।

जो तू सोजा आँख मूंद कर ॥

मीठी नींदों प्यारे तू सोना ।

सोने की पुतली तुम मत खोना ॥

उसकी करतूतों के ही बल पर ।

ठीक ठीक है चलती तन कर ॥

लोरियां लिखना वास्तव में पुरुषों का काम भी नही है ।माताओं के ही मनोभाव उसमें व्यक्त होते है और वे ही उसे गाती हैं ।   

  हिंदी साहित्य की आधुनिक कवियत्रियो में बहुत कम ने लोरियां लिखने की ओर कुछ ध्यान दिया है । जिन कवियत्रियों ने बाल गीत लिखे हैं उन्होंने ने भी लोरियां लिखने में कोई विशेष रुचि नही दिखायी है । श्रीमती विद्यावती कोकिल ने कुछ सुन्दर लोरियां लिखी हैं । उदाहरणार्थ ………  

             निदिया ललन को बहुत प्यारी ।

अपने प्राणों को दीपक कर ,

 जीवन को कर बाती ,

 सिरहाने बैठी हूँ , 

कब से उसे जगाती ।

भभक उठी है छाती ,

मेरी आँखें हैं कुछ भारी ।

निंदिया ललन को बहुत प्यारी ……

 मेरठ की सुप्रसिद्ध समाजसेवी महिला कवियत्री और लेखिका कमला चौधरी ने भी कुछ लोरियां लिखी है ।’ चित्रों में लोरियाँ`’

नाम से उनकी एक सुन्दर पुस्तिका भी छपी थी ।लोरियाँ लिख कर जिसने सबसे ज्यादा यश अर्जित किया है वह हैं शकुन्तला सिरौठिया । उनकी लोरियों का क्षेत्र बहुत व्यापक है । उनकी एक बहुत प्रसिद्ध लोरी प्रस्तुत है……..

            चाँदनी की चादर उढ़ाऊँ तुझे मोहना ।

सोजा मोरे लालना ।

      सूरज भी सो गया , पंछी भी सो गये,

डालो की गोदी में फूल भी सभी खो गये ।

तू भी चुप सोजा ,झुलाऊँतुझे पालना 

                उनकी दूसरी लोरी …….

चंदा प्यारे आ जाओ ,नींद रंगीली ले आओ ।

चाँ द लोक की परियाँ भेजो ,भेजो मृग का छौना ।

मुन्ना मेरा सोने जाता ,लगे न इसको टोना ।

पलना सोने का लाओ , चंदा प्यारेआ जाओ ।

शकुन्तला जीने केवल लाल या मुन्ने के लिए ही नहीं

मुन्नी यानी बेटियों को सुलाने के लिए भी लोरी लिखीं      

है जैसे……

  आँख बन्द कर राज दुलारी ,तुझे सुनाऊँ लोरी ,

लाल मुन्नैया चिड़िया पालूं ,

आम डाल पर पलना डालूं,

रेश्म की दे डोरी,

तुझे सुनाऊँ लोरी ।

 लहंगा तुझे मंगाऊँ,

सोजा मुन्नी मेरी ,

तुझे सुनाऊँ लोरी ।

     हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध बालगीत कार अशोक एम.ए.की धर्म पत्नि लक्ष्मी देवी चन्द्रिका ने भी कुछ सुन्दर लोरियाँ लिखी है —— ।उनकी एक लोरी यहाँ प्रस्तुत है ………

सोजा ललना ,सोजा ललना ,।

माँ की गोदी तेरा घर है ,

तेरा घर है ,तेरा घर है ।

फिर कयों तेरे मन में डर है ।

सोने चांदी का है पलना ,

सोजा ललना ,सोजा ललना ।

मीठी -मीठी नींद बुला दूं,

थपकी देकर तुझे सुला दूं।

कभी न सोना और मचलना ,

सोजा ललनन, सोजा ललना ।

चंदा आया ,चंदा आया ,

साथ बहुत से तारे लाया ,

मीठा दूध कटोरा लाया ।

अच्छे पथ पर ही तुम चलना 

सोजा ललना ,सोजा ललना ।

राजस्थान के श्री शंम्भू दयाल सक्सेना की ‘शिशु लोरी’ , ‘मधु लोरी’ , ‘चन्द्र लोरी’, तथा ‘आरी निंदिया’आदि बहुत से नामों से लिखी लोरियों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ।एक लोरी के कुछ अंश देखिए ……..

आरी निंदिया ,आरी निदिया , 

सपने भर -भर ला रे निंदिया ,

सोता है भैया पलने में ,

तारो को दे जा निंदिया,

प्यारी निंदिया ,प्यारी निंदिया । 

हिंदी साहित्य में लोरियों का क्षेत्र बहुत ही उपेक्षित रहा है ।बड़े कवियों और बाल गीत कारों ने लोरियाँ नहीं ही लिखी। केवल डा०श्रीनाथ सिंह और राम सिंहासन सहाय मधुर ने इस ओर ध्यान दिया है ।

राष्ट्र बन्धु ने इस ओर अवश्य ध्यान दिया ।उनकी ‘कन्त

कथैया धुनु मनैया’नामक प्रसिद्ध लोरी का एक अंश द्रष्टव्य है ।

कन्तक थैया धुनूँ मनैयाँ,चन्दा मामा पइयाँ-पइयाँ ।

यह चन्दा हलवाहा है ,नीले- नीले खेतों में ,

बिल्कुल सेंत -मेंत में रत्नो भरे खेत में ।

किधर भागता पंइयाँ-पंइयाँ ,

कन्तक थैया धुनुँ मनैयाँ ।

बिहार के ब्रज किशोर नरायण के‘आरी निंदिया’ संग्रह से दो लोरियाँ पेश है ………

मे री बिटिया सोजा -सोजा ,

कुत्ता तबला बजा रहा है ,

नाच रही है बिल्ली,

कुत्ता जायेगा कलकत्ता,

बिल्ली जावे दिल्ली ,

घोड़ा बाबू ढ़ोल बजावें ,

बछड़ाजी सारगी

                दूसरी लोरी द्रष्टव्य है……….

सोवोगे पैसा दूंगी,

सोजा मेरे लाल

बूढ़ा मेंढ़क बोले   

,टर, टर , टर , टर ,

बाघ राम हैं पानी पीछे ,

सर,सर,सर सर,

 बड़ी मेढ़की रोटी खाती ,

छोटी ,खाती भात,

बूढ़े मेढ़क ने छोटी को कस कर मारी लात ,

छोटी गिर गयी छप्प ,

सोवो मेरे लाल ॥

यह रही हिन्दी साहित्य में लोरी के स्थान की बात ।अवध क्षेत्र के ग्राम गीतों में लोक जीवन चरितार्थ होता है ,चाहे वे तीज त्योहारों या मांगलिक आयोजनों में गाये जाने वाले प्रौढ़ गीत हों,चाहे बाल मन और मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर रचे गये गीत या बाल गीत हों ।

एक कंठ से दूसरे कंठ तक, एक स्थान से दूसरे स्थान तक आते -आतेइनमे कुछ निखार ,सुधार भले ही आ जावे पर मूल स्वर वही रहता है। अवधी लोरियों का क्या कहना उनकी ध्वन्यात्मकता,नाद सौन्द्रय,प्रकृति प्रेम और बाल मनोविज्ञान से मेल. खाते रोजमर्रा के तरल ,सरस ,शब्द विन्यास किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का ध्यान खींच सकते हैं । अपनी दादी ,नानी और माँ के मुख से जिन लोरियों को सुन कर हम बड़े हुये हैं,उनको जब हम अपने बच्चों को सुनाते हैं तब हम भाव विभोर हो जाते हैं ।

      रही नन्हें मुन्ने की बात ……. जब एक विशेष तरंगित आवृति में कण्ठ प्रिय शब्द कानों से टकराते हैं , तब बच्चा नींद के आगोश में आ जाता है । निश्छल और सरल हृदय का होने के कारण बच्चों का सीधा जुड़ाव प्रकृति से होता है । वे फल,फूल ,पशु, पक्षी को देख कर बहुत खुश होते हैं ।उनकी सहज जिज्ञासु प्रकृति उनको इन चीजों से गहराई से जोड़े रखती हैं । इनकी पसन्दीदा चीजें बार -बार लोरियों में आती हैँ ……..जैसे……

आओ रे चिरैया वन वसिया बजाओ ,

मुन्ना ,मन्नी के टोपिया माँ,

फुलरा लगाव ,

भोली भाली अँखियन माँ ,

निंदिया ले आव ,

सोने के कटोरवा माँ दूध 

भात खवाव ,

     किन्ही लोरियों (अवधी)में माँ की तीव्र उत्कण्ठा रहती है कि

कब बच्चा बड़ा होगा और अपने बाबा के साथ घूमने जायेगा ——–

‘।कब लाल बड़के होहिंहे 

कब बाबा के बगिया जहिंहे,

कब आम घबद लै अहिंहै,

आजी कै अगवा डरिहैं।

तबआजी के जियरा जुड़हिंहै । 

          दूसरे लोरी में माँ बच्चे को खिचड़ी में घी खिला कर बड़े होते बच्चे की   शादी की कल्पना कर खुश होती है ———

        मोर भैया, मोरभैया, खिचड़ी चलाय देव , 

घिव डारि देव, घिव खाय मोर भैया,

जुड़ाय मोर जीव।,

  लबर ,लबर दुलहिन दुवारे खड़ी ।

 मोर मन चाहे लिवाय चली ,

मोर भैया, मोर भैयां ,

टाड से ,घिव गुड़ काढ़ै ,

 फान्दे से ननवा , मां दहिव. यिकहरे से टाठी,

मीनि गोहराइत थै,

 कहै चलो आइत थै,

खटिया गोनांरी बिछाइत थै ।

भैया सोवे ,

निनियां सोवे बडेरिया ।

मोर भैया मोर भैया कोठिया पै जाव,

कोठिया पै बैंठ घिव रोटी खाव,

कोठियां कै मालिक ,बाबू तोहार, 

 श्याम. सुन्नर , महतारी तोहार,

॒लंका कै दूतिन बहिनिया तोहार,

            अब देखिये माँ अपनेबच्चे के लिये क्या कहती है ।

आव रे चिरैया भोले से ,

तू का भूजी तेले से ,

गुल गुल मसवा भैया खाय,

हड़वा, गोड़वा बिलरिया खाय ।

इस लोरी में मां की ममता देखने लायक है।

       आउ. रे चिरैया ,

चन्ना भाई,धाय जाव , धुपाय जाव ,

          चिउ कै लोना लेत आव ,

 कुकरा बुलाय लाव , टा ठी , बेड़ा लेत आव,

भैया ,कै मुइयां मां घुटुक देव,—–

      मां बच्चे को सुलाने के लिये, खिलौना का लालच देती हुये कहती है ।

              लाल के खातिर झुनझुनवा खेलौना लैआइबै। लाल सोहियें सुघर खटोलवा ।

 झुन झुन घुघुना बजइबै,खेलौना लै आइब

जब बच्चा पैंया-पैंया चलने लगता तब मां की ममता और खुशी किस तरह शब्दो में दिखती है।

पैंया-पैंया बकवा ,बाबू डोलै,सूरज डोलै ,डोलै चांद-तलैया,-बंकवा बाबू , डोलै ,खेलैं अंगनइया,।

वैसे तो अनेकों लोरियां हैं ,पर अन्तिम कुछ लोरियों का आन्नद लीजिये ———

मइया झुलावै सुख पलना,लालन हमार जैइसै अंखियन कै पुतरी, सगुनी चिरैया मोर अंगनइया उतरीं, 

 सुखुवा हिलौरा मारै ,जस कोवू डोरा डारै , उमंगै लहरिया मन कै तालना ,

 ए हो मैया झुलावैं ,सुख पलना, दुअरा के पिपरा कै डोलै पत्तिवा ,

छिन-छिन जो लालन जी कै लै-लै बलइया, पड़िहैं झुलवा ,मोरी डालना, मैया झुलावैं सुख. पालना।

        अन्तिम लोरी ——–

आजा रे निनिया,आजा रे निदरिया,

बस जा नयनवन बीच, पलकन की छंहियां,

आजा-रे,आ जा -रे , आजा-रे , आ निंदियां,

लाल मोरे ,बाबू मोरे, हमरे परनवां,

असरे की जोत मारै , सुखकै सपनवां,

सपना कै बाट जोहै,कब से पुतरिया ,

बस जा सपनवन कै बीच, पलकन कै छंहियां ,

आजा-रे आजा-रे आजा-रे आ———–

आजा-रे निनिया आजा-रे निंदरिया,

घुघुवा खेलत बाबू , मारै किलकरियां ,

डुग-डुग करत, हेरै सरगै कै परियां,

परियन कै नाच,बाजै फुलवा कै बगिया ,

बस जा नयनवन कै बीच ,पलकन की छंहियां ।

          मुन्ने ,मुन्नियों कोजगाने के लिये भीकवियों ने बहुत से गीत लिखें हैं ।इसमें सूरदास , सोहन लाल दिव्बेदी, अब्दुल-रहमान,सागरी,शम्भू दयाल सक्सेना,जगदल पुरी आदि हैं, पर इन पर॒भात फेरियों और लोरियों का हमारे सामाजिक जीवन में महत्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। आज के इस मशीनी युग में माताऔ को इतना अवकाश कह कि वे अपनी मानवीय भावनाऔं से परेरित होकर उनका उपयोग अपने बच्चों को सुलाने और जगाने के लिये कर सकें। फिर भी जब तक बालक की जननी उसकी मां है हैं,और मां का सहज स्वाभाविक स्नेह अपनी सन्तान के प्रति है,बालगीत साहित्य में लोरियों और परभात फेरियों का सर्वथा लोप हो गया है।