प्राण नहीं तो जीवन नहीं

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प्राण नहीं तो जीवन नहीं
प्राण नहीं तो जीवन नहीं
हृदयनारायण दीक्षित
हृदयनारायण दीक्षित

वायु से आयु है। स्वच्छ वायु आयुवर्धक है। प्रदूषित वायु प्राणलेवा है। ये सब जानते हुए भी वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले तमाम अपकृत्य जारी हैं। ‘द लेसैंट प्लैनेटरी हेल्थ जर्नल के अध्ययन में चैकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। वायु प्रदूषण के कारण 2000 से 2019 तक प्रतिवर्ष 10 लाख लोगों की जान गई है। सांस सम्बंधी बीमारियां बढ़ी हैं और बीमारियों के कारण लाखों लोगों की मौत हुई है। ऑस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दुनिया के लगभग 13000 नगरों में प्रदूषण का विश्लेषण किया है। इस अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार एशिया में मृत्यु दर का आंकड़ा काफी चिन्ताजनक है। बताया गया है कि प्रदूषण के कारण मौतों के आंकड़ों में चीन पहले स्थान पर है। भारत में भी वायु प्रदूषण की स्थिति भयावह है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हर साल वायु प्रदूषण के कारण धूल भरा कोहरा दिखाई पड़ता है। वायु प्रदूषण का मूल कारण आधुनिक जीवन शैली है। भारत की परम्परा में वायु को देवता कहा गया है। संस्कृति आधारित जीवन मूल्यों से विचलन वायु प्रदूषण बढ़ाता है। प्राण नहीं तो जीवन नहीं

वायु प्राण हैं। प्राण नहीं तो जीवन नहीं। वैदिक परम्परा में वायु अमर देव हैं। वैदिक ऋषि वायु की प्रीति में सराबोर हैं। वे प्राणशक्ति के संचालक हैं लेकिन दिखाई नहीं पड़ते। वायु का रूप नहीं होता। वायु की तीव्र गति आंधी है। आंधी का शोर सुनाई पड़ता है लेकिन वायु का रूप नहीं। कहते हैं, “तीव्र गति अनुभव में आती है लेकिन रूप नहीं। ऋषि वायु का रूप देखने के अभिलाषी हैं। वायु का मानवीकरण रम्य है। ऋषि उन्हें सोम पीने का निमंत्रण देते हैं “वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृता-दर्शनीय वायु! आओ सोम रस सजाकर रखा गया है।” (ऋग्वेद 1.2.1) प्राण जीवन है। प्राण से प्राणी है। वायु हरेक प्राणी का प्राण हैं लेकिन देवों का प्राण भी वायु ही है “आत्मा देवानां।” (10.10.168.4) बड़ी बात है देवों को भी मनुष्य जैसा बताना। वायु देवों के भी प्राण हैं इसलिए वही विश्व के राजा हैं। (10.168.2) लेकिन हम पटाखा फोड़कर वायु को प्राण लेवा बनाते हैं।

सृष्टि में पांच महाभूत हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनमें ‘वायु’ प्रत्यक्ष देव हैं और प्रत्यक्ष ब्रह्म भी। ऋग्वेद (1.90.9) में स्तुति है “नमस्ते वायो, त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रहमासि, त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि। तन्मामवतु-वायु को नमस्कार है, आप प्रत्यक्ष ब्रह्म है, मैं तुमको ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा। आप हमारी रक्षा करें।” यही मन्त्र यजुर्वेद (36.9) अथर्ववेद (19.9.6) व तैत्तिरीय उपनिषद् (1) मंे भी जस का तस आया है। ब्रह्म सम्पूर्णता है। आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञानी भी ब्रह्म में उत्सुक हैं। भारतीय अनुभूति का ब्रह्म अनुभूत है। प्रयोग सिद्ध है। कहते हैं, “वायु ही सभी भुवनों में प्रवेश करता हुआ हरेक रूप रूप में प्रतिरूप होता है। सभी जीवों में प्राण की सत्ता है, प्राण नहीं तो जीवन नहीं। ऋषि सूर्य आदित्य को देखते हैं। वे भी प्रत्यक्ष देव हैं। प्रश्नोपनिषद में कहते हैं ‘आदित्य ह वै प्राणौ-जो आदित्य है, सूर्य है, वही प्राण है।

वैदिक पूर्वज वायु को बहुवचन ‘मरूद्गण’ कहते हैं। वे सम्पूर्ण विश्व के प्रति मधु दृष्टि रखते है। ऋग्वेद के एक मंत्र में वे वायु को भी मधुरस से भरा पूरा पाना चाहते हैं-मधुवाता ऋतायते। वृहदारण्यक उपनिषद् के सुन्दर मंत्र में पृथ्वी और अग्नि के प्रति मधुदृष्टि बताने के बाद वायु के लिए कहते हैं “अयं वायुः सर्वेर्षां भूतानां मध्वस्य-यह वायु सभी भूतों का मधु (सभी भूतों के पुष्पों से प्राप्त रस) है और सभी भूत इस वायु के मधु है-वायोः सर्वाणि भूतानि मधु। सृष्टि निर्माण के सभी घटक एक दूसरे से अन्तर्सम्बंधित है। वे एक दूसरे के मधु हैं। वे वायु हैं, प्राण हैं, मरूत् भी हैं।

मरूद्गण धनी, दरिद्र सबको एक समान संरक्षण देते हैं। वैदिक सूक्तों में इन्हें अति प्राचीन भी बताया गया है “हे मरूतो आपने हमारे पूर्वजों पर भी बड़ी कृपा थी” ऋग्वेद के एक और ऋषि अगस्त्य मैत्रवरूणि अतिरिक्त जिज्ञासु है। पूछतें हैं ‘मरूद्गण किस शुभ तत्व से सिंचन करते हैं? कहां से आते हैं? किस बुद्धि से प्रेरित हैं? किसकी स्तुतियां स्वीकार करते हैं? (1.165.1-2) फिर मरूतों का स्वभाव बताते हैं “वे वर्षणशील मेघों के भीतर गर्जनशील हैं। (1.166.1) वे पर्वतों को भी अपनी शब्द ध्वनि से गुंजित करते हैं, तेज आंधी और पानी का ऐसा काव्य चित्रण अनूठा है। कहते हैं, “वे गतिशील मरूद्गण भूमि पर दूर-दूर तक जल बरसाते हैं। वे सबके मित्र हैं। (1.167.4) यहां मरूद्गण वर्षा के भी देवता हैं।

ऋग्वेद में मरूतों की स्तुतियां हैं। कहते हैं “आपके आगमन पर हम हर्षित होते हैं, स्तुतियां करते हैं।” (5.53.5) लेकिन कभी-कभी वायु नहीं चलती, उमस हो जाती है। प्रार्थना है “हे मरूतो आप दूरस्थ क्षेत्रो में न रूकें, द्युलोक अंतरिक्ष लोक से यहां आयें। (5.53.8) ऋषि कहते हैं “रसा, अनितमा कुभा सिंध आदि नदियां वायु वेग को न रोकें।” (वही 10) वे “नदी के साथ पर्वतों से भी यही अपेक्षा करते हैं।” (5.55.7) वायु प्रवाह का थमना ऋषियों को अच्छा नहीं लगता। हम सबको भी वायु का प्रवाह अच्छा लगता है। वायु रूकी तो उमस बढ़ती है। कहते हैं “हे मरूतो आप रात दिन लगातार चलें, सभी क्षेत्रों में भ्रमण करें।” (5.54.4) वायु जगत् का स्पंदन है। वे देवता हैं इसीलिए वायु का प्रदूषण नहीं करना चाहिए। वे जीवन हैं, जीवन दाता भी हैं। वाुय से वर्षा है, वायु से वाणी है। गीत-संगीत गंध-सुगंध और मानुष गंध के संचरण का उपकरण भी वायु देव हैं। वायु नमस्कारों के योग्य हैं। भारतीय दृष्टि में वायु प्रकृति की शक्ति है। उनका अध्ययन जरूरी है लेकिन दिव्य शक्ति की तरह उनको प्रणाम भी किया जाना चाहिए।

चरक संहिता आयुर्विज्ञान का महाग्रन्थ है। इसके 28वें अध्याय (श्लोक 3) में बताया है “वायुरायुर्बलं वायुर्वायु र्धाता शरीरिणाम-वायु ही आयु है। वायु ही बल है, शरीर को धारण करने वाले भी वायु ही हैं। कहते हैं “यह संसार वायु है, उसे सबका नियन्ता गाते है-वायुर्विश्वमिदं सर्वं प्रभुवायुश्च कीर्तितः।” वायु को सर्वशक्तिमान गाने की परम्परा पुरानी है। शरीर और प्राण का संयोग जीवन है, दोनो का वियोग मृत्यु है। वाग्भट्ट ने ठीक कहा है “वह विश्वकर्मा, विश्वात्मा, विश्वरूप प्रजापति है। वह सृष्टा, धाता, विभु, विष्णु और संहारक मृत्यु है।” चरक संहिता में कहते हैं “वह भगवान (परम ऐश्वर्यशाली) स्वयं अव्यय हैं, प्राणियों की उत्पत्ति व विनाश के कारण हैं, सुख और दुख के भी कारण हैं, सभी छोटे बड़े पदार्थो को लांघने वाले हैं, सर्वत्र उपस्थित हैं।” यहां शरीर के भिन्न अंगों में प्रवाहित 5 वायु का वर्णन है। फिर इनसे जुड़े रोगों का विस्तार से विवेचन है।

वायु का प्रदूषण हजारों रोगों की जड़ है। प्राणवायु के लिए ही लोग सुबह-सुबह टहलने निकलते हैं, जहां वायु सघन है, वहां के जीवन में नृत्य है। जंगलों में वायु सघन है। इसीलिए वन उपवन मधुवन हैं। भारत का अधिकांश प्राचीन ज्ञान वनों में ही पैदा हुआ था। वैदिक मंत्रों में प्राणवायु की सघनता है। हम सब वैदिक संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं, बावजूद इसके हम वायु को प्रदूषित करते हैं। प्रकृति को आहत करते हैं, स्वयं अपने ही जीवन जगत् को क्षति पहुंचाते हैं। वायु प्रदूषण रोकने में ही हमारे जीवन की गति है। प्राण नहीं तो जीवन नहीं