जनता का सियासी क्रीमीलेयर…

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मन मोहन सिंह अटल विहारी बाजपेयी
जनता का सियासी क्रीमीलेयर...

डॉ. अम्बरीष राय

साल था 2004. हिंदी में भारत उदय हो रहा था तो अंग्रेजीदां इंडिया शाइन कर रहे थे. सेटेलाइट चैनल्स अटल थे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के एक और कार्यकाल के लिए. नामचीन ज्योतिषियों की फौज अटल योग की कुंडलियां बांच बांच कर निहाल हुए जा रहे थे. अभी के जो सस्ते चाणक्य हैं ना कुछ उसी तरह के अभिमान के दर्प से चमकते थे एक प्रमोद महाजन. अंहकार कहिए या फिर ओवर कांफिडेंस का बुर्ज खलीफा, कहते थे कि जब तक अटलजी ज़िंदा रहेंगे, वही इस देश के प्रधानमंत्री रहेंगे. जनता का सियासी क्रीमीलेयर…

उनसे भारत का सियासी क्रीमीलेयर पूरी तरह से इत्तेफाक रख रहा था. उनकी बात से किसी को ऐतराज़ नहीं था. लेकिन कहीं किसी कोने में अंधेरे में रहने को मजबूर लोगों को ये सब बहुत नागवार गुज़र रहा था. और उन लोगों को प्रमोद महाजन की इस बात से ऐतराज था. लेकिन ऐतराज के पास आवाज़ें नहीं थीं या आवाज़ों के पास लाउडस्पीकर नहीं था. लिहाज़ा इंडिया शाइन करता रहा. लेकिन दबी कुचली आवाज़ों के पास एक दिन ख़ुद उनका होता है. और एक दिन फिर उनका हुआ. उन्होंने वोट किया और इंडिया शाइन का महल भरभरा कर गिर पड़ा. अटलजी और उनका भगवाई कुनबा चारों खाने चित्त हो गया. अभूतपूर्व होने का दावा करने वाली सरकार भूतपूर्व हो गई.

अगले दस साल कांग्रेस के मनमोहन सिंह रायसीना हिल्स से देश को चलाते रहे. मनमोहन सिंह सरकार के मैनेजरों ने भारत उदय का नारा भारत निर्माण में तब्दील कर दिया. फिर 2014 में लोगों ने तब्दीली की और मनमोहन सरकार मोदी सरकार में तब्दील हो गई. इस सरकार को भी दसवां लग चुका है. किस सीट पर कौन लड़ेगा, कैसे लड़ेगा के फैसले का इंतज़ार किए बिना अघोषित रूप से गिरवी पड़े मीडिया हाऊस फिर से 2004 की भूमिका में आ चुके हैं. ओपीनियन पोल्स में एक बार फिर मोदी सरकार के तख्तनशीं होने का ऐलान कर दिया गया है. साहेब का सियासी इन्तज़ाम फिर से किसी और के आने देने को हवा में उड़ा रहा है.

संसद से लेकर सड़क तक साहेब और उनके सांवरिया सियासी शामियाने को कमल के फूल से दूर होते नहीं देख रहे हैं. 2013 में साहेब सरकार बनने से पहले लोकतंत्र का ध्यान खींचने के लिए जो कुछ कर रहे थे, कुछ वैसा ही राहुल भी कर रहे हैं. साहेब 2013 में दिल्ली के लिए खूब क़वायद में लगे थे तो राहुल भी 2023 में अपने सियासी सफ़र के सबसे ऊर्जावान हिस्से को जी रहे हैं. तेरह और तेईस के इस दिलचस्प आंकड़ें को लेकर पिछले दिनों मेरी एक पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी से बात हो रही थी. उन्होंने कहा कि तेरह और तेईस की आपकी बात में एक चीज़ मैं जोड़ना चाहता हूं. मैंने कहा कि जरूर जोड़ें तो उन्होंने कहा कि तेरह में मीडिया मोदी के साथ था और तेईस में भी साथ है. मुझे उनकी बात से कोई भी नाइत्तेफाकी नहीं थी.

लेकिन सियासत की सफ़ों में बहुत कुछ पढ़ा जा सकता है और मुझे 2004 का पन्ना पढ़ने को मिला. मुझे याद आता है कि कैसे कांग्रेस के प्रवक्ता अपनी लय खो रहे थे. कांग्रेस नेतृत्व भी मानो चुनाव लड़ने के लिए चुनाव लड़ रहा था. अटल जी के आभामण्डल में सब हारे दिखाई दे रहे थे. लेकिन बाजी पलट गई. बाजी पलट दी गांव ने, गरीब ने, किसान ने. अगले छः महीनों के बाद जब गांव के चट्टी चौराहों से लेकर शहर और कस्बों की गलियां सियासी चकल्लस से भर जाएंगी तो एक बार फिर देश में आम चुनाव होगा. आम चुनावों में आम कितना ख़ास होगा और किसको ख़ास बनाएगा, देखना दिलचस्प होगा. जनता का सियासी क्रीमीलेयर…