इण्डोनेसिया में सुकर्णोपुत्री सुकुमावती का हिन्दू धर्म में वापसी

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इण्डोनेसिया में सुकर्णोपुत्री सुकुमावती का हिन्दू धर्म में वापसी,आपका सनातन थर्म में स्वागत है देवी सुकुमावती !

अभिजीत सिंह

दुनिया में जब भारत के अलावा कहीं सभ्यता और ज्ञान नहीं था तो ऋषियों ने हमारे पूर्वजों को आदेश देते हुये कहा था- ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ यानि जाओ और जाकर दुनिया को भद्र बनाओ, श्रेष्ठ बनाओ, उन्हें सुसंकृत करो और जाकर उनका हृदय जीतो।लॉर्ड मैकाले, जिसका पूरा नाम ‘थॉमस बैबिंगटन मैकाले’ था, प्रसिद्ध अंग्रेज़ी कवि, निबन्धकार, इतिहासकार तथा राजनीतिज्ञ था। मैकाले का जन्म 25 अक्टूबर, 1800 ई. में हुआ था और मृत्यु 28 दिसम्बर, 1859 ई. में हुई थी। एक निबन्धकार और समीक्षक के रूप मे उसने ब्रिटिश इतिहास पर जमकर लिखा था। सन् 1834 ई. से 1838 ई. तक वह भारत की सुप्रीम काउंसिल में लॉ मेंबर तथा लॉ कमिशन का प्रधान रहा। भारतीय दंड विधान से सम्बन्धित प्रसिद्ध ग्रंथ ‘दी इंडियन पीनल कोड’ की लगभग सभी पांडुलिपि इसी ने तैयार की थी। अंग्रेज़ी भाषा को भारत की सरकारी भाषा तथा शिक्षा का माध्यम और यूरोपीय साहित्य, दर्शन तथा विज्ञान को भारतीय शिक्षा का लक्ष्य बनाने में इसका बड़ा हाथ था।

उस ज़माने की कल्पना कीजिये जब हवाई जहाज, पानी के यांत्रिक जहाज, ट्रेन, बस और कार तो दूर यातायात के सामान्य सुलभ साधन नहीं थे, सड़कें नहीं थी, गूगल मैप तो दूर कोई नक्शा भी नहीं था, तब भी हमारे पूर्वज उस आदेश का अनुपालन करने निकल गये। वो जहाँ जा रहे थे वहां और भी कई तरह की कठिनाइयाँ थीं। कहीं की भाषा भिन्न थी, कहीं का समाज बर्बर और हिंसक था, कहीं के समाज में आसुरी शक्तियों का प्राबल्य था और कहीं-कहीं का समाज तो बाहरी लोगों को देखना तक पसंद नहीं करता था। किसने प्रेरित किया उन्हें अगम्य और दुर्गम यात्राएं करने के लिए सिवाय मानव जाति के प्रति करुणा और उन्हें श्रेष्ठ और सुसंस्कृत बनाने के भाव के?और जब लोग मानव जाति के लिए अपनी करुणा लिए निकले तो अपने साथ क्या लेकर गये? क्या वो अपने साथ हथियार लेकर गये? नहीं ! बल्कि वो साथ लेकर गये स्थापत्य, सभ्यता, दर्शन, नीतिशास्त्र, तुलसी रामायण, चिकित्सा शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, खगोल विज्ञान, ज्योतिष, नाट्य शास्त्र और मानव-जाति के त्राण के लिए असीमित करुणा।

भारत के दक्षिण-पूर्व में एक देश है कम्बोडिया, वहां की एक राजकन्या थी सोमा। उसको खबर मिली कि भारत देश की तरफ से जलपोतों पर सवार एक दल उसकी भूमि उतरा है तो अपनी भूमि की रक्षा करने के लिए वो अपने सेना के साथ निकल पड़ी। जब उस दल के अगुआ युवक के सामने पहुँची तो उस समय वो और उसकी पूरी सेना नग्न अवस्था में थे। उन सबको पता ही नहीं था कि वस्त्र क्या होते हैं। भारत से आने वाले जलपोत के नायक ‘शैलराज कौन्डिल्य’ के लिए ये दृश्य बड़ा विस्मयकारी था कि एक स्त्री बिलकुल नग्न भी किसी के सामने आ सकती है। प्रखर मेघा के स्वामी कौन्डिल्य समझ गए कि मामला क्या है और उन्होंने एक कपड़े को तीर में लपेटा और सोमा की तरफ छोड़ दिया। सोमा समझ नहीं पाई कि इसका क्या करना है तो कौन्डिल्य ने इशारे से उसे समझाया कि इस वस्त्र को अपने शरीर पर लपेट लो और उनके समझाने के बाद सोमा ने वही किया। उसने बाद सोमा को समझ में आया कि जिनको वो आक्रांता समझ रहे हैं वो तो दरअसल सभ्यता सिखाने वाले लोग हैं।

एक ‘हिन्दू’ जब कौन्डिल्य बनकर कंबोडिया पहुँचा तो तो उसने नग्न रहने वाले कम्बुज लोगों की हँसी नहीं उड़ाई बल्कि उसने उनको वस्त्र पहनना सिखाया। सु-संस्कृत करने का ये प्रयास और भी आगे जाए इसके लिए कौन्डिल्य ने उस कन्या सोमा से विवाह कर लिया और उसके बाद कंबोडिया उत्कृष्ट सभ्यता की गवाह बन गई। वहां संस्कृत भाषा पहुँची, उन्होंने रोज स्नान करना, साफ तथा स्वच्छ रहना सीखा, वहां धान की खेती पहुँची, नहरों का जाल बिछाया गया, कौन्डिल्य ने बर्बर और जंगली लोगों को कुशल व्यापारी बना दिया। जंगलों और गुफाओं में रहने वाले कम्बोज लोगों को हमारे पूर्वजों ने स्थापत्य सिखाई और इसमें वो लोग इतने आगे पहुँचे कि 12वीं सदी में वहां बने अंकोरवाट के मंदिर आज भी आधुनिक दुनिया के लिए कौतूहल का विषय है।

हमारे पूर्वजों को दुनिया में जहाँ-जहाँ का मानव समाज कुरीतियों से ग्रस्त होकर अज्ञान और अशिक्षा के दलदल में दिखा वो वहां-वहां उनको भद्र बनाने गए, उनका दिल जीतने गए। दिल जीतने के इसी निश्चय को पूरा करने महर्षि कण्व मिश्र देश गये थे और वहां जाकर वहां के लोगों को देवभाषा संस्कृत पढ़ाकर सुसंस्कृत किया था। इसी निश्चय को लेकर उद्दालक मुनि पाताल देश अमेरिका और कश्यप तथा मातंग मुनि चीन गये थे, इसी निश्चय को लेकर अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा था और न जाने कितने ही बौद्ध भिक्षुओं ने श्रमसाध्य यात्रायें करते हुए पूरी धरती को अपने क़दमों से नाप दिया था ताकि इस निश्चय की पूर्ति हो सके। इसी निश्चय को पूरा करते हुए गुरु नानक देव जी की उदासियाँ हुई थी जिसमें उन्होंने मक्का, मदीना, बग़दाद, सीलोन, बुखारा, बल्ख तक की यात्राएँ करते हुए वहां के लोगों को धर्म का सच्चा स्वरूप सिखाया था। इसी निश्चय को लेकर स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानंद मज़हब के नाम पर हो रहे झगड़े और पांथिक मतभेदों के कोढ़ से शापित दुनिया को सहिष्णुता और समादर का ज्ञान देने निकले थे; जबकि उनकी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। इसी निश्चय को लिए भक्ति-वेदांत प्रभुपाद निकले जिन्होंने ईश्वर से विमुख हो रहे पश्चिमी जगत को ईश्वर से प्रेम करना सिखाया और इसी निश्चय के साथ परमहंस योगानंद और बाबा रामदेव पूरी दुनिया में अध्यात्म और योग का ज्ञान लेकर गये।

न तो महर्षि कण्व के समय और न ही आज, हम कहीं गये तो हमने कभी वहां की मूल संस्कृति का उच्छेद नहीं किया। अमेरिकी महाद्वीप का मय, इंका और अजोक संस्कृतियों में सबसे पहले हमारे कदम पड़े थे पर उनकी संस्कृति को नष्ट करने का कोई प्रयास हमने नहीं किया बल्कि हमने उनसे केवल ये कहा कि तुम बस सभ्यता के सूत्र हमसे लो और अपनी संस्कृति के आधार पर अपना उन्नयन करो।मगर बीच के कालखंड में किन्हीं कारणों से हम अपनी सांस्कृतिक दिग्विजय की अभिलाषा को भूल गए जिसके नतीजे में ‘शैलराज कौन्डिल्य’ और उनके जैसे अनगिनत पूर्वजों की संताने दूसरे-दूसरे मत-पंथों और मजहबों में चले गए।हमारे पूर्वजों ने जो ऐसे सद्प्रयास किये थे, उसपर हम कुपुत्रों ने भले ही पानी फेर दिया हो पर उनके सु-कर्म आज लौटकर आ रहे हैं जिसका परिणाम है ‘सुकुमावती सुकर्णोपुत्री’ का अपनी माँ, अपने धर्म की गोद में आना।

आपका स्वागत है देवी…
उम्मीद है आप हिंदुत्व के अमृत घट को हमसे भी अच्छे से सहेज कर मानवता के लिए इसे आने वाली संततियों को सौंपेंगी…