ओबीसी-एससी-एसटी उम्मीदवारों का कट ऑफ सामान्य वर्ग से ज़्यादा क्यों….?

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चौ. लौटनराम निषाद


[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”इस समाचार को सुने”] उच्चतम न्यायालय के कुछ निर्णयों की वजह से भ्रम फैला है, इसलिए आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के ज़्यादा नम्बर मिलने के बाद भी अनारक्षित वर्ग में शामिल नहीं किया जा रहा।पिछले कुछ समय से उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, झारखंड, मध्य प्रदेश समेत कई राज्यों से लगातार ख़बरें आ रही हैं कि आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों का कट ऑफ सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों से ज़्यादा है। ऐसे परिणाम का मतलब ये है कि अगर आप रिजर्व कटेगरी के हैं तो चयनित होने के लिए आपको जनरल कटेगरी/सामान्य वर्ग के कट ऑफ से ज्यादा नंबर लाने होंगे।
मिसाल के तौर पर-

  1. राजस्थान एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आरएएस) परीक्षा, 2013 में ओबीसी कटेगरी का कट ऑफ 381 और जनरल कटेगरी का कट ऑफ 350 रहा।
  2. रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स के सब इंसपेक्टर के लिए बनी मेरिट लिस्ट में ओबीसी कटेगरी का कट ऑफ 95.53 प्रतिशत रहा जबकि इससे कम 94.59 परसेंट लाने वाले जनरल कटेगरी के कैंडिडेट सलेक्ट हो गए।
  3. दिल्ली सरकार द्वारा शिक्षकों की नियुक्ति के लिए एससी कैंडिडेट की कट ऑफ 85.45 प्रतिशत निर्धारित की गई, जबकि जनरल कटेगरी की कट ऑफ उससे काफी कम 80.96 प्रतिशत निर्धारित की गई।
  4. मध्य प्रदेश में टेक्सेसन असिस्टेंट की परीक्षा में भी ओबीसी का कट ऑफ जनरल से ऊपर चला गया। ऐसा कई राज्यों में हो रहा है।
    चूंकि वैधानिक प्रावधान यह है कि आरक्षित वर्ग का कैंडिडेट अगर सामान्य वर्ग के कैंडिडेट से ज़्यादा नम्बर पता है, तो उसे अनारक्षित यानी जनरल सीट पर नौकरी दी जाएगी, न कि आरक्षित सीट पर। इसलिए जब किसी भी परीक्षा का परिणाम आता है, और उसमें पता चलता है कि एससी, एसटी या फिर ओबीसी का कट ऑफ़ सामान्य वर्ग से ज़्यादा है, तो काफ़ी हंगामा खड़ा होता है।

आरक्षित श्रेणी का कट ऑफ ज्यादा होने का मतलब-

प्रथम दृष्ट्या यह लगता है कि ऐसा होना आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के साथ भेदभाव है। कुछ लोग षड्यंत्र के सिद्धांत का उपयोग करके यह भी बताने की कोशिश करते हैं कि दरअसल ऐसा एक साजिश के तहत किया जा रहा है, जिससे कि जनरल कटेगरी में किसी एससी-एसटी-ओबीसी को घुसने न दिया जाए। यानी पिछले दरवाज़े से सामान्य वर्ग को पचास प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए। इसके साथ एक तर्क आरक्षण विरोधियों की तरफ से आ रहा है कि रिजर्व कटेगरी के लोग अब पर्याप्त आगे बढ़ चुके हैं और अब उन्हें आरक्षण नहीं देना चाहिए।
यह पूरा मुद्दा बार-बार सुर्ख़ियों में आया लेकिन सवाल उठता है कि ऐसा हो क्यों रहा है? इस लेख में यह समझने की कोशिश की जा रही है कि आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों का कट ऑफ़ सामान्य वर्ग से ज़्यादा जाना क्या किसी साजिश का हिस्सा है, या फिर इसके कुछ और कारण भी हो सकते हैं।अगर हम यह पता कर लें कि क्या संवैधानिक रूप से आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों का कट आफ़ सामान्य वर्ग से ज़्यादा जा सकता है, तो हमें उन कारणों को पहचानने में आसानी हो जाएगी, जिसकी वजह से आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों का कट ऑफ़ सामान्य वर्ग से ज़्यादा हो रहा होगा।ऐसा करने से पहले हमें यह समझना होगा कि आरक्षण की नीति के तहत आरक्षित वर्ग से अप्लाई करने वाला कोई कैंडिडेट कब सामान्य वर्ग में शामिल हो सकता है?


अदालती फैसलों को लेकर भ्रम-

यह है कि आरक्षित वर्ग का कोई भी कैंडिडेट यदि सामान्य वर्ग के कैंडिडेट से ज़्यादा नम्बर पाता है तो उसे अनारक्षित सीट पर नौकरी दी जाएगी।यह समझ इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच द्वारा दिए गए फ़ैसले से आयी है।इसमें कोर्ट कहता है क़ि आरक्षित वर्ग का कैंडिडेट यदि सामान्य वर्ग के कैंडिडेट से ज़्यादा नम्बर पता है, तो उसको अनारक्षित सीट पर नौकरी दी जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के पीछे का तर्क है कि अनुच्छेद 16(4), जिसके तहत पिछड़े वर्गों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग) को आरक्षण दिया गया है, वह ‘कम्यूनल अवार्ड’ जैसा नहीं है। अगर सामान्य वर्ग से ज़्यादा नम्बर लाने पर भी आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट को अनारक्षित सीट पर नौकरी नहीं दी गयी, तो आरक्षण की व्यवस्था ‘कम्यूनल अवार्ड’ जैसी लागू मानी जाएगी, जिसको संविधान सभा ख़ारिज कर चुकी थी।कम्यूनल अवार्ड का मतलब है कि हर कटेगरी को अपने ही खांचे में रहना होगा।
इंदिरा साहनी के फ़ैसले के आधार पर 17 सितम्बर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता की बेंच ने फ़ैसला दिया है कि आरक्षित वर्ग का कैंडिडेट अनारक्षित सीट पर नियुक्त हो सकता है क्योंकि इस बेंच के अनुसार ‘हर प्रतिभागी सामान्य वर्ग का कैंडिडेट होता है, चाहे वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या फिर अन्य पिछड़ा वर्ग का ही क्यों ना हो’।जस्टिस राव और जस्टिस गुप्ता की उक्त लाइन से यह साफ़ मतलब निकलता है कि आरक्षित वर्ग का कैंडिडेट अनारक्षित वर्ग में नौकरी पा सकता है, बशर्ते उसने सामान्य वर्ग के कट ऑफ के बराबर या फिर उससे ज़्यादा नम्बर पाया हो।

जनरल सीट पर सलेक्ट होने में बाधा क्या है?
अब मुख्य सवाल है कि आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट को सामान्य वर्ग के कैंडिडेट से ज़्यादा नम्बर पाने के बावजूद भी अनारक्षित सीट पर नियुक्ति होने में दिक्कत कहां आ रही होगी? इसका भी जवाब जस्टिस राव और जस्टिस गुप्ता के इसी फ़ैसले में है, जहां वो सुप्रीम कोर्ट की दूसरी बेंच के फैसले को उद्धृत करते हुए बताते हैं कि आरक्षित वर्ग का कैंडिडेट अनारक्षित सीट पर तभी नियुक्त हो सकता है जब उसने कोई विशेष छूट न लिया हो।उस विशेष छूट को आगे परिभाषित करती हुई बेंच बताती है कि इसमें उम्र सीमा, न्यूनतम योग्यता, अप्लिकेशन में फ़ीस आदि शामिल है।
इसी तरीक़े से एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस आर भानुमति एवं जस्टिस ए.एम. खानविल्कर के एक बेंच ने केरल के एक मामले में 21 अप्रैल,2017 को निर्णय दिया था, कि आरक्षित वर्ग के प्रतिभागी दीपा ईवी ने उम्र सीमा में छूट प्राप्त कर ली है, तो उसे अनारक्षित वर्ग में नौकरी नहीं दी जाएगी, भले ही उसने सामान्य वर्ग से ज़्यादा नम्बर प्राप्त किया हो।
उस फ़ैसले को मीडिया ने ख़ूब प्रकाशित किया था, इसलिए ऐसा लगता है कि उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों की सरकारों ने इसी फ़ैसले को आधार बनाकर आरक्षित वर्ग को उन अभ्यर्थियों को भी अनारक्षित सूची में नहीं डाल रहीं है, जिन्होंने सामान्य वर्ग से ज़्यादा नम्बर पाया है, क्योंकि उन्होंने उम्र सीमा, अकादमिक योग्यता, अप्लिकेशन फ़ीस में छूट आदि ले ली है।
राज्य सरकारों ने आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों की उम्र सीमा बढ़ायी अगर सब कुछ नियम के अनुसार हो रहा हो तो ये माना जाना चाहिए कि उम्र सीमा, अकादमिक योग्यता, अप्लिकेशन फ़ीस आदि में छूट लेने की वजह से ही आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट अनारक्षित वर्ग में नहीं शामिल किए जा रहे होंगे, भले ही उन्होंने सामान्य वर्ग के कैंडिडेट से ज़्यादा नम्बर प्राप्त किया हो। इसको मानने का एक और कारण हैं, क्योंकि उत्तर भारत के विभिन्न राज्य की सरकारों ने पिछले सालों में बिना कोई अध्ययन किए ही आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों की आयु सीमा बढ़ा दी।उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव सरकार ने बिना कोई अध्ययन कराए ही राज्य की सिविल सेवाओं में उच्चतम आयु 40 वर्ष कर दी थी। आयु सीमा में छूट का आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों पर दीर्घकाल में क्या प्रभाव पड़ता है, इस पर काफ़ी कुछ पहले लिखा जा चुका है।
इस पूरे मामले को देखने पर अभी यही लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ बेंच के निर्णयों की वजह से ही इस मामले में कंफ्यूजन फैला है, इसलिए आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के ज़्यादा नम्बर मिलने के बाद भी अनारक्षित वर्ग में शामिल नहीं किया जा रहा है।हालांकि इस मामले की तह में जाने के लिए किसी एक प्रवेश परीक्षा में सभी वर्गों के उम्मीदवारों को मिले नम्बर, उम्र आदि ज़रूरी आकड़ों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए।


मेरिट बेहतर तो आरक्षित अभ्यर्थी सामान्य कोटे के हकदार-शीर्ष अदालत

उच्चतम न्यायालय ने 2008 में टेक्निकल असिस्टेंट के पद पर भर्ती के मामले में 27 अप्रैल,2022 को निर्णय देते हुए कहा है कि आरक्षित श्रेणी की मेरिट अंतिम पायदान के सामान्य अभ्यर्थी से बेहतर है, तो वह सामान्य श्रेणी में सीट पाने का हकदार है।इस परिस्थिति में आरक्षित श्रेणी का अभ्यर्थी ,सामान्य वर्ग यानी अनारक्षित श्रेणी में सीट की दावेदारी कर सकता है।
वर्ष 2008 में राजस्थान में भारत संचार निगम लि. में टेक्निकल असिस्टेंट के पदों पर भर्ती निकाली गई थी।ओबीसी आरक्षित वर्ग के एक अभ्यर्थी ने याचिका दायर कर कहा था कि ओबीसी के 2 अभ्यर्थियों की मेरिट सामान्य श्रेणी में आखिरी पायदान के अभ्यर्थी से अधिक है,इसलिए इन दोनों को सामान्य या अनारक्षित श्रेणी में नियुक्ति होनी चाहिए।उसके बाद जो जगह खाली हो,उसे आरक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों से भरा जाए।
उक्त याचिका की सुनवाई करते हुए जस्टिस एम आर शाह और जस्टिस बीवी नागरत्ना की पीठ ने कहा कि जब आरक्षित श्रेणी के 2 अभ्यर्थियों की सामान्य श्रेणी में नियुक्त किया जाएगा,तो इस पर विवाद खड़ा नहीं होना चाहिए कि पहले से कम कर रहे सामान्य श्रेणी के 2 व्यक्तियों को निकाल दिया गया।चूँकि वे काफी समय से काम कर रहे हैं।इसलिए उन्हें न निकाला जाये और आरक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों को ही नियुक्त किया जाए। [/Responsivevoice]

(लेखक- सामाजिक न्याय चिन्तक है।)