मेरी कलम से…

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अजय सिंह

“उफ़! पापा जी आपने पूरा घर ही गन्दा कर दिया| अभी अभी राधा ने पोछा मारा था और आपने चप्पलों के निशान छोड़ दिए| थोड़ी तो समझ होनी चाहिए आपको? आप बच्चे तो हैं नहीं”|बहू रिया के मुँह से ये शब्द सुनकर अनिल जी हतप्रभ से खड़े रह गए| कैसे पुलिस की नौकरी में सिर्फ उनकी एक आवाज बड़े से बड़े मुजरिमों को हिला कर रख देती थी और आज उनकी बहू उन्ही के घर में इतना सुना रही है| तभी पत्नी  ने उन्हे सोफे पर बैठाते हुए कहा “कोई बात नहीं जी, बहू की बातों का क्या बुरा मानना? बस जुबान की तेज है, बाकी उसके मन में ऐसा कुछ नहीं है|”


अनिल जी ने पत्नी की आँखों में देखा जैसे पूछ रहे हों “सच में?” और फीकी सी हंसी उनके होठों पर तैर गई, लेकिन आँखों के कोर थोड़े से नम हो गये।
सोफ़े पर बैठे बैठे ही सोचने लगे कितने जतन से इस घर को खड़ा किया था| एक एक तिनका अपने हिसाब से रखवाया था इस घरौंदे का ताकि सेवा अवकाश के बाद पति पत्नी सुविधाओं के साथ आराम से रहेंगे| लेकिन आज सारी दुनिया उनके कमरे तक सिमट गई है| कमरे से बाहर निकलो तो कितना कुछ सुनना पड़ता था उन्हे, हॉल के अंदर फ़ायर पिट बनवाया था कि ठंड के दिनों में वहाँ आग के सामने भुनी मुँगफ़लियाँ खाएँगे| लेकिन मजाल क्या कि बहू कभी सर्दी में आग जलाने दे, कहती थी कि पूरे घर में राख के कण फैलते हैं फ़िर वो चिमनी वैसी ही रंगी पुती दिखती थी एक दम उजली क्योंकि बहू को वैसी ही पसंद थी|


ये सब सोच रहे थे तभी पत्नी हाथ में कॉफी का मग लिए वहाँ उनके पास आ बैठीं| पति को बहुत अच्छे से जानती थीं, जानती थीं कि वो अभी गुस्से में थे और उनके हाथ की कॉफी पीकर उनका गुस्सा शांत हो जाता था| पत्नी भी क्या करतीं, पति और बेटे सोमेश के मोह में फंसी एक भारतीय नारी जो ठहरी| दोनों तरफ़ बैलेंस बनाते बनाते ही उनका जीवन कट रहा था, कभी बेटे की सुनती कभी पति की।एक दिन सुबह सैर से लौटने के बाद पति पत्नी दोनों लॉन में बैठे थे| नौकर चाय रख के गया, दो की जगह तीन चाय का कप उन्हे थोड़ा अटपटा लगा क्योंकि उनके आलावा चाय सिर्फ सोमेश पीता था और वो उनके साथ कभी चाय नहीं पीता था| उसने उनके साथ बैठना तो कब का छोड़ दिया था फ़िर आज?


तभी सोमेश वहाँ आ बैठा, साथ में चाय पीने लगा| लेकिन अजीब सी चुप्पी, ये वही सोमेश है जो छोटा था तो उसकी बातें ख़त्म ही नहीं होती थीं| अनिल जी कितना भी थके हों सोमेश के साथ खेलते ही थे| उसकी बातें तब तक ख़त्म नहीं होतीं जब तक कि वो उन्हे कहते कहते थक के सो नहीं जाता| आज अजीब सी औपचारिकता ने अपनी जगह बना ली थी बेटे और पिता के बीच।
तभी पत्नी ने उस खामोशी को तोड़ा,”सोमेश अगले महीने ही तो रिया के भाई के बेटी की शादी है ना?”


“हाँ माँ, उसी बारें में बात करने आया हूँ| लड़के वाले इसी शहर के हैं और वो यहीं से शादी करना चाहते हैं| सो रिया का परिवार शादी के लिए ये घर चाहता है| वो हमारे घर से शादी करना चाहते हैं, इसलिए मैं चाहता हूँ कि जब तक भीड़ भाड़ रहेगी घर में तब तक आप दोनों दीदी के पास चले जाओ| आप दोनों को भी भीड़ भाड़ से असुविधा होगी और दीदी भी इसी शहर में हैं तो आप लोगों को कोई तकलीफ़ भी नहीं होगी| आप दोनों का कमरा भी उनके काम आ जाएगा|”ये सुनकर अनिल जी गुस्से से लाल हो गए, फ़िर भी अपनी आवाज को संयमित करके बोले “बहू के घर वालों को दूसरा घर दिला दो किराए पर, दस पंद्रह दिनों के लिए| हम क्यों शिफ्ट हों कहीं?”


“पापा आप भी ना गजब करते हो, रिया के घर वाले हैं| हमारे इतने बड़े घर के रहते उनके लिए दूसरा घर देखें! अब रिया ने उनसे कह भी दिया है| अब आप लोग अपना देख लो वो यहीं आएंगे|” कह कर सोमेश एक दम से अंदर चला गया| अंदर से बहू रिया की आवाज भी आने लगी| लग रहा था कि वो सब कुछ सुन रही थी और उसे अनिल जी की बात शायद अच्छी नहीं लगी थी।
आज पत्नी आँखों से आँसू बह रहे थे और अनिल जी ने उन्हे अपना कंधा दिया, जैसे कह रहे थे कि अभी मैं हूँ, सब ठीक कर दूँगा|दूसरे दिन शाम अनिल जी सैर से आए तो पत्नी ने बताया कि बेटा, बहू और बच्चों के साथ छुट्टी बिताने अपने ससुराल गया और बिना बताये अनिल जी मुस्कुराने लगे और बोले “देख पगली, यही बच्चे होते जिनके लिए तू मुझसे लड़ती थी, जिनके लिए जाने कितनी रातें हमने जाग के बीता दीं| आज वो हमारे घर से हमें ही जाने को कह रहे हैं| कोई बात नहीं, मै भी इनका बाप हूँ” कहकर अंदर चले गए|
एक हफ़्ते बाद सोमेश परिवार के साथ लौटा तो दरवाजे पर ताला लगा था| चौकीदार बैठा उन्हे देखते ही उनके पास पहुँचा एक चाभी सोमेश के हाथों में दी और एक चिठ्ठी भी|


चिठ्ठी खोल कर पढ़ने लगा, वो ख़त अनिल जी का था सोमेश के नाम,
सोमेश,मैं और तुम्हा री माँ रामेश्वरम जा रहे हैं| एक महीने बाद लौटेंगे, ये जो चाभी है तुम्हारे हाथ में वो घर की चाभी नहीं है| वो एक दूसरे फ्लैट की चाभी है जिसमें तुम सभी का सामान रखवा दिया है| वो फ्लैट मैंने बहुत पहले खरीदा था, तुम्हें नहीं बताया था| पॉश इलाके में है तुम लोगों के लिए अच्छा है, अगर अच्छा ना लगे तो अपने हिसाब से घर ले लेना।
ये घर मेरा और तुम्हारी माँ का है और हमारा ही रहेगा, इसमें से हमें कोई नहीं निकाल सकता| अभी तक सब कुछ बर्दाश्त करता रहा था क्योंकि तुम्हारी माँ खुश रहे| लेकिन अब तुम्हाेरी बातों से उसकी आँखों में आँसू आए ये मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता| ये हमारा सपनों का घर है जिसमें हम अपने बच्चों और नाती पोतों के साथ रहना चाहते थे, लेकिन शायद ईश्वर को ये मंजूर नहीं था और तुम लोगों को हमारा साथ पसंद नहीं था| वो घर मेरे और माँ के तरफ़ से तुम लोगों के लिए आशीर्वाद स्वरूप है| इच्छा होगी तो रखना वरना वापस कर देना, माता पिता होने के नाते हम अपना आत्मसम्मान नहीं खो सकते| हमारे बाद ये घर ट्रस्ट का होगा जो यहाँ वृद्ध आश्रम बनाएगे | इस घर पर तुम्हारा या तुम्हारी बहन का कोई अधिकार नहीं होगा, मैंने ये बात तुम्हारी बहन को भी बता दी है और वो मेरे इस फैसले से खुश है, उम्मीद है तुम भी होगे।
तुम सब खुश रहो,
तुम्हारा पिता
ख़त खत्म होते ही सोमेश जड़ हो चुका था| आँखों में आँसू थे, लेकिन ये पता नहीं कि वो आँसू पश्चाताप के थे या बड़े से घर को खोने का या फिर इस एहसास के टूटने का कि पिता की जायदाद अन्त में बेटे की ही होती है।