सहमति का नव विमर्श बने नववर्ष

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मूलभूत प्रश्न है कि क्या साल 2023 में राष्ट्रीय विमर्श के मुद्दों पर आम सहमति बनाई जा सकती है। प्रश्न बड़ा है। इसके लिए राष्ट्रीय चिंता के प्रमुख विषयों पर सबकी सहमति से सूची बनायी जानी चाहिए। पक्ष विपक्ष को मिलकर आम सहमति बनाने का साझा प्रयास करना चाहिए। पहले मुद्दों के चयन पर आम सहमति और साझा प्रयास। फिर उन मुद्दों के समाधान के लिए साझी सक्रियता पर सहमति।

हृदयनारायण दीक्षित

वर्ष 2022 की विदाई और 2023 का स्वागत, समय का कोई भी हिस्सा निरपेक्ष नहीं है और न स्वतंत्र। माह और वर्ष भी स्वतंत्र इकाई नहीं है। 2022 भी स्वतंत्र इकाई नहीं था। इसमें 2021 सहित बीते अनेक वर्षों की अच्छाइयां व बुराइयां सम्मिलित थीं। 2023 में भी बीते वर्षों के कर्मफल सम्मिलित हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान अनुभूतिजन्य ही होते हैं। सबका भूत, भविष्य और वर्तमान एक जैसा नहीं होता। समय सभी देशों में भिन्न भिन्न होता है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि ऑक्टेवियो पाज ने कविता ‘सेम टाइम‘ में कहा है, ‘‘यहाँ समय के भीतर एक और समय है। घण्टे व अन्य इकाइयां नहीं हैं। भूत और भविष्य भी नहीं है।‘‘ प्रकृति का अणु परमाणु गतिशील है। गति से समय का बोध होता है।

अथर्ववेद में काल को अश्व कहा गया है, ‘‘काल अश्व विश्वरथ का वाहक है। सात किरणों व सहस्त्रों आँखों वाला है। ये कभी बूढा नहीं होता।” प्रकृति के गोचर प्रपंच ही नए पुराने होते रहते हैं। महाभारत में काल को राजा से लघुतर बताया गया है। प्रश्न है कि, ‘‘क्या काल राजा का निर्माता है या राजा काल का? उत्तर है कि, ‘‘राजा ही काल का कारण है – राजा कालस्य कारणं।‘‘ आत्मीय मित्र की संगत में काल छोटा लगता है और विरोधी की संगत में दीर्घ। काल अस्तित्वगत होता तो प्रत्येक परिस्थिति में एक समान होता। राष्ट्रजीवन में सौ पचास वर्ष भी महत्वपूर्ण नहीं होते। संस्कृति और सभ्यता के विकास में सहस्त्रों वर्षों का समय लगता है। लेकिन हम सब नववर्ष की संभावनाओं पर ही विचार करते हैं।


संसदीय जनतंत्र में राष्ट्र निर्माण के सूत्रों पर लगातार विमर्श की आवश्यकता होती है। पीछे 8 वर्षों से राष्ट्रजीवन के भिन्न भिन्न क्षेत्रों में आशा और उमंग का प्रवाह है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा बढी़ है। लेकिन आशावादी वातावरण के बावजूद सहमतिमूलक राष्ट्रहितकारी विमर्श नहीं चलते। यहाँ हास्यास्पद विमर्श मूल विमर्श में सेंधमारी करते हैं। अभी एक नेता ने अपने बड़े नेता को राम और स्वयं को भरत बताया। इसके पहले इसी दल के एक नेता ने गीता में जिहाद की खोज की।

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2016 में उत्तराखं ड में शक्तिमान नाम के घोड़े की टांग टूट गई। दोषी पर मुकदमा हुआ। कार्रवाई हुई। मीडिया के एक वर्ग और राजनीति ने घोड़े की टांग को राष्ट्रीय विमर्श बनाया। घोड़े के नाम पर ‘शक्तिमान एक्ट‘ बनाने की हास्यास्पद मांग भी हुई। राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, अर्थनीति, शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण आदि अनेक विषय सतत् राष्ट्रीय विमर्श मांगते हैं। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका मूलभूत संवैधानिक संस्थाएं हैं। इनकी प्रतिष्ठा महत्वपूर्ण है।

इनके कामकाज और दायित्वबोध पर शालीन विमर्श की आवश्यकता है। पर्यावरण और भूमण्डलीय ताप अंतर्राष्ट्रीय बेचैनी है। इन सब पर भी सतत् राष्ट्रीय विमर्श की आवश्यकता है। संसद और विधानमण्डलों की कार्यवाही का समय कम हो रहा है। महत्वपूर्ण विधेयकों पर भी सारवान चर्चा नहीं होती। इस सब के साथ सदनों में बाधा भी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय चिंता है। न्यायालयों में लाखों मुकदमें लंबित हैं। न्यायव्यवस्था को त्वरित बनाने के लिए भी राष्ट्रीय विमर्श नहीं होते।

मूलभूत प्रश्न है कि क्या साल 2023 में राष्ट्रीय विमर्श के मुद्दों पर आम सहमति बनाई जा सकती है। प्रश्न बड़ा है। इसके लिए राष्ट्रीय चिंता के प्रमुख विषयों पर सबकी सहमति से सूची बनायी जानी चाहिए। पक्ष विपक्ष को मिलकर आम सहमति बनाने का साझा प्रयास करना चाहिए। पहले मुद्दों के चयन पर आम सहमति और साझा प्रयास। फिर उन मुद्दों के समाधान के लिए साझी सक्रियता पर सहमति।

आम सहमति और साझा प्रयास से नामुमकिन को मुमकिन बनाया जा सकता है। वस्तु एवं सेवा कर – जीएसटी में तमाम जटिलताएं थीं। कुछ लोग इसे अव्यवहारिक भी बता रहे थे। लेकिन इस पर सार्थक विमर्श चला। जीएसटी लागू हुआ। सब ने स्वागत किया। जजों की नियुक्ति का मसला किसी न किसी रूप में जटिल दिखाई पड़ रहा है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग पर संसद और राजनैतिक दलतंत्र में आम सहमति थी।

आयोग सम्बंधी विधायन को संसद के दोनों सदनों व आधे से ज्यादा विधानमण्डलों ने पारित किया था। यह भारत की विधि बन चुका था। माननीय न्यायालय ने इसे संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध बताया। संविधान में बुनियादी ढांचे का उल्लेख नहीं है। प्रसिद्ध न्यायमूर्ति डी० डी० बसु ने लिखा कि, ‘‘उच्चतम न्यायालय ने आधारिक लक्षण या अप्रगणित मूल अधिकार आदि कई सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। इनके लिए संविधान में कोई आधार स्पष्ट नहीं है।‘‘

सर्वोच्च न्यायालय के प्रति पूरे देश में आदरभाव है। यह संविधान का व्याख्याता और संरक्षक भी है। हम सब न्यायपालिका का आदर करते हैं। लेकिन नियुक्ति के विषय पर गहन राष्ट्रीय विमर्श की आवश्यकता है। प्रशासन की गुणवत्ता और गतिशीलता से जनहितकारी योजनाओं का काम शीघ्रता से संपन्न होता है। बाधाओं का त्वरित निस्तारण भी होता है। यह मुद्दा भी विचारणीय है। चुनाव आयोग पर कतिपय राजनैतिक दलों द्वारा आरोप लगाए जाते हैं। आयोग स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए ऐसे आरोप अंतर्राष्ट्रीय अपयश बनते हैं। यह महत्वपूर्ण विषय राष्ट्रीय विमर्श के बाहर है।


राजनीति भारतीय जनतंत्र का सबसे सक्रिय क्षेत्र है। दलों के आतंरिक ढांचे में अनेक अंतर्विरोध हैं। विचारनिष्ठ राजनैतिक अभियान अपने मूल रूप में राष्ट्रीय विमर्श होते हैं। इनका प्रभाव पूरी जनता पर पड़ता है। लेकिन अभियान और विमर्श की भाषा बहुधा शालीन नहीं होती है। आरोप प्रत्यारोप शत्रुभाव बढ़ाते हैं। राजनीति पर सतत् राष्ट्रीय विमर्श चलाना कठिन काम नहीं है। जनतंत्र की सफलता के लिए आदर्श दलतंत्र अपरिहार्य है। राजभाषा का विषय हमेशा से संवेदनशील रहा है। भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। सांस्कृतिक नवजागरण पर देश में चर्चा है। सभी पक्षों के साथ साझा मंच बनाने और तद्नुसार आगे बढ़ने की आवश्यकता है। वामपंथी इतिहासकार व लेखक भारतीय संस्कृति को सामासिक – कम्पोजिट बताते रहे हैं। वे भारत को कई संस्कृतियों का देश मानते हैं। बेशक किसी किसी राज्य के रीति रिवाज भिन्न हो सकते हैं। लेकिन सब संप्रभु भारत के अविभाज्य अभिन्न अंग हैं। संस्कृति एक है। इतिहासबोध सभी राष्ट्रों के लिए अनिवार्य गौरवबोध होता है।

देश वास्तविक इतिहासबोध से वंचित है। निहित स्वार्थी कारणों से इतिहास का विरूपण किया गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह सहित अनेक महानुभावों ने वास्तविक इतिहास के पुनर्लेखन पर जोर दिया है। इसके तथ्य भी हैं कि इतिहास के साथ छल हुआ है। यह छल भारत के मूल निवासी आर्यों को विदेशी बताने तक व्यापक है। इतिहास को तथ्यपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त ढंग से लिखा जाना जरूरी है। 2023 में ऐसे सारे राष्ट्रीय मुद्दों, प्रश्नों व चुनौतियों पर राष्ट्रीय विमर्श की उम्मीदें हैं।

आशा हैं कि अपने अपने क्षेत्रों के कर्मठ समाजसेवी, माननीय न्यायमूर्ति व संविधान की शपथ लेकर काम करने वाले सभी महानुभाव ऐसे विमर्श को चलाने के लिए आगे आएँगे। नए साल में राष्ट्रीय विमर्श के लिए सभी दलों को भी एक मंच पर आना चाहिए। साझा विचार और साझा संकल्प समय की आवश्यकता है। नए साल में आम सहमति का नया विमर्श खड़ा होना चाहिए। नववर्ष ऐसे सभी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर राष्ट्रीय विमर्श का सुन्दर अवसर है।

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