माँ की महिमा

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सीताराम गुप्ता

जो इस धरती पर स्वर्ग का निर्माण करती है वही माँ होती है।

क हिन्दी फिल्म का अत्यंत चर्चित डायलॉग है और वो ये कि मेरे पास माँ है। इससे सिद्ध होता है कि इस संसार में माँ से बढ़कर न तो कोई रिश्ता है और न कोई अन्य चीज़ ही। माँ की महिमा अनंत है। माँ सर्जक और पालक ही नहीं प्रथम गुरू भी माँ ही होती है। माँ है तो ममता है, प्यार है। माँ से ही सृष्टि का विकास और विस्तार है। माँ नहीं तो दुनिया नहीं। माँ के इसी महत्त्व को रेखांकित करते हुए कवियों ने माँ की प्रशंसा में कविताएँ और गीत लिखे। लेखकों ने कहानियाँ और उपन्यास रचे। रूसी लेखक माक्सिम गोर्की के उपन्यास माँ के केंद्र में एक क्रांतिकारी माँ ही है। पंजाबी कवि प्रोफेसर मोहन सिंह कहते हैं – ” मां वरगा घण छावां बूटा मैनूं नजर ना आए। लै के जिस तों छां उधारी रब्ब ने सुरग बणाए।” अर्थात् मां जैसा घनी छांव वाला वृक्ष मुझे कहीं नहीं दिखलाई पड़ता जिससे छाया उधार लेकर ईश्वर ने स्वर्ग की रचना की। इस्लाम में कहा गया है कि माँ के क़दमों के नीचे ही जन्नत होती है।


माँ त्याग, तपस्या और बलिदान की मूर्ति होती है इसमें संदेह नहीं। अपने अंश से अपने शरीर में संतान को उत्पन्न करती है। शिशु को सूखे में सुलाती है चाहे उसे स्वयं गीले में ही क्यों न सोना पड़े। ख़ुद भूखी रहने पर भी किसी तरह से संतान का पोषण करती है। माँ से बढ़कर अन्य कोई प्रेरणास्रोत नहीं बच्चे के लिए। उसकी गोदी से बढ़कर कोई सुरक्षित स्थान नहीं उसके लिए। कोई भी बात क्यों न हो सबसे पहले वह बतलाता है अपनी माँ को ही। हिन्दी फिल्मों का नायक प्रायः सबसे पहले अपनी माँ से ये कहता है कि माँ मेरी नौकरी लग गई है। दुख हो, सुख हो, सफलता हो, असफलता हो वह अपने मनोभाव प्रकट करना है तो सबसे पहले माँ के सामने। किसी से प्यार हो जाता है तो उसे माँ से मिलवाने के लिए बेचैन हो उठता है। अपनी गलती को बताने के लिए अवसर की तलाश में रहता है। हर बात उससे पूछकर करता है। यह है माँ और उसकी संतान का अटूट व अन्योन्याश्रित संबंध।

स्वामी विवेकानंद जी से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया,” माँ की महिमा संसार में किस कारण से गायी जाती है..? स्वामी जी मुस्कराए, उस व्यक्ति से बोले, पांच सेर वजन का एक पत्थर ले आओ। जब व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने उससे कहा, ” अब इस पत्थर को किसी कपडे में लपेटकर अपने पेट पर बाँध लो और चौबीस घंटे बाद मेरे पास आओ तो मई तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा।”


वे कौन सी बातें हैं, कौन से तत्त्व हैं जो एक माँ को महिमामयी व पूजनीय बनाने में सक्षम हैं? संतान को जन्म देना, उसकी हर हाल में परवरिश करना, विषम परिस्थितियों में उसका मनोबल बनाए रखना, ज़िंदगी की ऊँच-नीच समझाना, ज़िंदगी के दोराहों पर उसका उचित मार्गदर्शन करना, उसका पसीना व आँसू पोंछना सब कुछ एक माँ द्वारा ही तो किया जाता है। माँ शिष्टाचार सिखाती है, उसे सुसंस्कृत बनाती है। इतना सब करती है तभी वह माँ है। माँ कहलवाने की अधिकारी है। उसका संतान के प्रति त्याग व वात्सल्य उसे महान बना देता है। हर बच्चे को माँ प्यारी होती है। वह उसके लिए देवी, दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी सब कुछ है। वह उसके लिए सुरक्षा कवच है, ढाल है। प्रश्न उठता है कि एक व्यक्ति अथवा एक नारी के लिए अपेक्षित सद्गुणों के अभाव में मात्र अपनी संतान के प्रति ममतामयी हो जाने से ही क्या एक माँ पूजनीय व प्रशंसनीय हो जाती है….? एक आज्ञाकारी मातृभक्त युवक जो हर बात अपनी माँ से पूछकर करता है क्या सचमुच वह एक आज्ञाकारी व महान युवक है….?

माँ हमें जन्म देती है। पालती-पोसती है। संतान का पूरा ध्यान रखती है। ताकि उसे कभी कोई दुःख न हो। हमारे लिए वो अपना सारा जीवन दांव पर लगा देती है। माँ अपनी संतान के लिए दिन-रात एक कर देती है। माँ के इसी त्याग और बलिदान को समर्पित है माँ की महिमा। हम सबका कर्त्तव्य है कि माँ की सेवा करें।

लाकर इस दुनिया मे हमको, एक असीम अहसान वो करती है।
नौ माह कोख में रख कर, न जाने कितना दर्द वो सहती है।
हमको सुख देने की खातिर, न जाने कितने त्याग वो करती है।
सारे जग का प्यार देकर, माँ संस्कार हम में भरती है।


आज के समाज की वास्तविक स्थिति और उसमें माँ का रोल भी देखिए। समाज में बहू और बेटी में पक्षपात करना सामान्य सी बात है। हमारे घरों में दान-दहेज के लिए बहुओं को प्रताड़ित करने, उन्हें अपमानित कर घर से निकाल बाहर करने अथवा उन्हें ज़िंदा आग की भेंट चढ़ाने में माँ रूपी पवित्र रिश्ते का सबसे बड़ा रोल होता है। यदि पुत्र अपनी पत्नी की ठीक से देखभाल नहीं करता, उसकी उपेक्षा करता है, उस पर अत्याचार करता है अथवा उस पर हो रहे अत्याचारों का विरोध नहीं करता, उसे तटस्थ रहकर देखता है, उसे मौन स्वीकृति देता है तो ऐसे में न केवल पुत्र दोषी है अपितु वह ममतामयी माँ भी दोषी है क्योंकि उसकी शिक्षा-दीक्षा व उसके संस्कारों ने ही पुत्र को ऐसा बना दिया है। ऐसी माँ अपने पुत्र को कितना ही प्रेम क्यों न करे और पुत्र भी कितना ही मातृभक्त क्यों न हो ऐसे में न तो माँ ही महत्त्व और प्रशंसा की अधिकारी है और न पुत्र ही और न उनका ये तथाकथित पवित्र रिश्ता ही।

स्वामी जी के आदेशानुसार उस व्यक्ति ने पत्थर को अपने पेट पर बाँध लिया और चला गया। पत्थर बंधे हुए दिनभर वो अपना कम करता रहा, किन्तु हर छण उसे परेशानी और थकान महसूस हुई। शाम होते-होते पत्थर का बोझ संभाले हुए चलना फिरना उसके लिए असह्य हो उठा। थका मांदा वह स्वामी जी के पास पंहुचा और बोला , ” मै इस पत्थर को अब और अधिक देर तक बांधे नहीं रख सकूँगा | एक प्रश्न का उत्तर पाने क लिए मै इतनी कड़ी सजा नहीं भुगत सकता।”


पुत्र यदि ग़लती करता है तो माँ तटस्थ रहकर उसे मौन स्वीकृति प्रदान कर देती है। पुत्र अपराध करता है तो उसके बचाव में कूद पड़ती है। मेरा बेटा कभी ग़लत हो ही नहीं सकता व सारी दुनिया मेरे बेटे के पीछे हाथ धोकर पड़ी है उसकी ये रट कभी समाप्त नहीं होती। देश-दुनिया में जितने भी चोर-उचक्के, ठग, डाकू, क़ातिल, बलात्कारी अथवा अपराधी व असामाजिक तत्त्व हैं उन सबकी एक माँ ज़रूर होती है। इनमें से अधिकांश माँएँ कभी भी अपने बेटों को अपराधी अथवा असामाजिक नहीं मानतीं जबकि वास्तविकता ये है कि इन सबको अपराधी व असामाजिक बनाने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कहीं न कहीं इन माँओं का ही हाथ होता है। उनका पाशविक प्रेम और तटस्थता उनके पुत्रों को ग़लत दिशा दे देता है। माँ को भी कटघरे में खड़ा किया जाना ज़रूरी है। कहीं माँ की ममता व उसके प्रति आज्ञाकारिता अथवा अंधभक्ति के कारण हम ग़लत मार्ग पर तो नहीं चल रहे?

स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले, ” पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भी नहीं उठाया गया और माँ अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोती है और ग्रहस्थी का सारा काम करती है। संसार में माँ के सिवा कोई इतना धैर्यवान और सहनशील नहीं है इसलिए माँ से बढ़ कर इस संसार में कोई और नहीं।

किसी का अहित तो नहीं कर रहे? ये हज़ारों-लाखों माँएँ ही हैं जो करोड़ों माँओं पर अत्याचार कर रही हैं। जो अपनी नकारात्मकता व क्षुद्रता के कारण न तो बेटों की गृहस्थी ही सुचारु रूप से चलने दे रही हैं ओर न अपनी बेटियों का घर ही पूरी तरह से आबाद होने दे रही हैं। प्रायः कहते हैं कि जैसी भी हो माँ तो माँ होती है। हम जननी के रूप में माँ के अस्तित्व व महत्त्व को
स्वीकार कर उसका यथोचित स्वागत-सत्कार करें, उसकी आज्ञा का पालन व उसकी सेवा- शुश्रूषा करें लेकिन साथ ही उसकी घातक नकारात्मकता के आगे किसी भी सूरत में घुटने न टेकें।

माँ को भी सही रास्ता दिखलाने व अपनाने के लिए मनाएँ, मजबूर करें। रिश्ते वही कहलाते हैं जो समाज में परस्पर प्रेम व सौहार्द को बढ़ाने में सहायक होते हैं अन्यथा उनको रिश्ते नहीं आपराधिक साँठगाँठ कहना अधिक उपयुक्त होगा। ऐसी माँएँ स्तुत्य हैं जो अपनी संतानों को अपने जीवनसाथी का सम्मान व उससे सहयोग करना सिखाती हैं और जो अपनी पुत्रवधुओं को बेटियों से बढ़कर मानती हैं तथा उनको भरपूर प्यार व सहयोग देती हैं। इन गुणों के अभाव में एक स्त्री मां जैसे पवित्र व गरिमापूर्ण रिश्ते का ठीक प्रकार से निर्वहन कर ही नहीं सकती।