एक गंभीर खतरा-अल्पसंख्यकवाद

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डॉ0 सूर्य प्रकाश अग्रवाल

आज जिन सत्ताधीश राजनेताओं के कंधों पर देश की अखण्डता की जिम्मेदारी है वे ही आज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के नाम पर देश को खंडित करने का कार्य कर रहे है जिससे अब अल्पसंख्यकवाद भारत की एकता व अखंडता के लिए ही गम्भीर खतरा बन कर उभर आया है। उपासना (पूजा) पद्धति अलग अलग होने मात्र से ही कोई भारतीय व्यक्ति अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक में नहीं बंट जाता है…..

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् जब लोकतंत्र व्यवस्था लागू करने की ओर सोचा जा रहा था तो संविधान निर्माताओं ने यह नही सोचा था कि सात सौ से अधिक रियासतों को एक बनाकर जिस भारत संघ का निर्माण किया जा रहा है, हमारे सत्ता प्रेमी राजनीतिज्ञ उसको अल्पसंख्यक व बहुसंख्यकवाद में बांटकर रख देंगें जबकि भारत में रहने वाली कुल जनसंख्या की 99 प्रतिशत जनता के पूर्वज हिन्दू ही थे तथा भारतीयता के रस में पगे हुए है। परन्तु कालान्तर में राजनीतिज्ञों ने इस अल्पसंख्यक रुपी गाय को खूब दूह कर राजनीतिक सत्ता की खूब मलाई खाई। 

भारत में चाहे अल्पसंख्यक दो हजार की संख्या में रहें अथवा 35 करोड़ की संख्या में सबके मन में बहुसंख्यकों के विरुद्ध विष डाल दिया गया तथा नई नई बिरादरियों, जातियों व सम्प्रदायों को अल्पसंख्यक बनबाने का लोलीपोप दिया जाता है जिससे कि वे जातियां बहुसंख्यकों से भय खाकर उन सत्ता प्रेमी राजनीतिज्ञों को अपना वोट प्रदान करें तथा अब तो अल्पसंख्यकवाद ही विषैले अजगर के रुप में बहुसंख्यकों के सामने आ गया है।

भारत एक लोकतंत्र देश बन कर धर्मनिरपेक्षता को गले लगाये रहा है परन्तु अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक समाज से भी ज्यादा धार्मिक एवम् व्यक्तिगत अधिकार प्रदान किये गये तथा सभी राजनेता राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक समाज के गैरजरुरी हितों की वकालत भी करते रहे हैं अर्थात भारत में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को सही तरीके से लागू ही नहीं किया गया। इस हकीकत को देश के बहुसंख्यक समाज की स्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन कर अच्छी प्रकार से समझा जा सकता है।

भारत में बहुसंख्यक कभी भी हिंसक नहीं रहा है। इसने सभी के साथ सहिष्णुता का परिचय दिया है। इतना जरुर है कि प्रतिहिंसा में बहुसंख्यक भी चुप नहीं बैठा है। जिसका परिणाम यह हुआ कि 60 हजार की आबादी वाले अल्पसंख्यक ने भारत में आशातीत तरक्की प्राप्त की परन्तु 35 करोड़ की आबादी वाले अल्पसंख्यक कहलाने वाली बिरादरी स्वंय को घोर असुरक्षित महसूस करती रही है तथा स्वंय की जनसंख्या को बढ़ाना ही एक मात्र कर्तव्य समझती रही है जिस कारण वह शिक्षा, आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक रुप से अविकास के घोर दलदल में फंस कर रह गयी है।

कश्मीर से पंडितों (हिन्दुओं) को खदेड कर शरणार्थियों की श्रेणी में रख दिया गया। पूर्वोत्तर में बंाग्लादेशी घुसपैठियों व ईसाई मिशनरियों के द्वारा धन व प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन करा कर वहाँ बहुसंख्यक समाज के समक्ष पहचान की समस्या ही खडी हो गयी है। देश के बहुसंख्यको की स्थिति धार्मिक आजादी के नाम पर चिन्ताजनक है और सम्पूर्ण देश में उत्तर प्रदेश में अयोध्या में रामलला के भक्तों को अयोध्या जाते समय रास्ते में गम्भीर अपराधी समझ कर क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया गया। बहुसंख्यकों के काशी, मथुरा व अन्य शीर्ष धर्मस्थल अल्पसंख्यको के कब्जे में हैं तथा कोई भी राजनीतिक दल अल्पसंख्यको से इतनी भी अपील नहीं कर सकता कि श्री कृष्ण व शिव जैसे भगवानों से संबंधित धर्मस्थलों को बहुसंख्यकों को सहर्ष सौप दिया जाय। देश की न्याय व्यवस्था ऐसी है कि कई वर्ष बीतने के बाद भी आज तक निर्णय नहीे आ पाया है।

बहुसंख्यक समाज के हितों को राष्ट्रीय हित कहा जाता है परन्तु बहुसंख्यक मुस्लिम कट्टरवाद व ईसाई प्रचारवाद के बीच फंस कर रह गया है तथा इसके लिए बहुसंख्यक राजनेता ही जिम्मेदार है। बहुसंख्यकों की दुदर्शा व बेबसी के लिए तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादी राजनेता ही जिम्मेदार है। अब स्थिति यह आ रही है कि जिस प्रकार अल्पसंख्यको की बढ़ती आबादी बेकाबू होती जा रही है उससे आने वाले दो एक दशक में ही बहुसंख्यकों से उनका बहुसंख्यक वाला दर्जा ही छिन जायेगा।

भारत के संविधान में अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक की कोई परिभाषा ही नहीं दी गई है। स्वतंत्रता के समय पाकिस्तान का निर्माण मुसलमानों की मर्जी व उनकी मांग पर हुआ था तो फिर भारत में अपनी मर्जी से रहे मुसलमानों को भारत में राजनीतिक अधिकार किस प्रकार दे दिये गये ? जबकि पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं को आज तक उन्हीं राजनीतिक अधिकारों से पाकिस्तानी सत्ता ने वंचित करके रखा है।

हिन्दू किसी मजहब, पंथ या समुदाय का नाम नहीं है बल्कि यह तो एक जीवन पद्वति और संस्कृति है जिसका कार्य लोगों को जोड़ना है। मजहब बदलने से किसी के पूर्वज नहीं बदल जाते है। भारत में रहने वाले 99 प्रतिशत अल्पसंख्यक- मुसलमानों व ईसाईयों के पूर्वज हिन्दू ही है। राजनेताओं को भारत माता के प्रति मातृत्व की भावना जगानी चाहिए थी तब हिन्दू-मुसलमान भाई भाई जैसी बातें अलग से नहीं कहनी पड़ती।

आज जिन सत्ताधीश राजनेताओं के कंधों पर देश की अखण्डता की जिम्मेदारी है वे ही आज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के नाम पर देश को खंडित करने का कार्य कर रहे है जिससे अब अल्पसंख्यकवाद भारत की एकता व अखंडता के लिए ही गम्भीर खतरा बन कर उभर आया है। ईसाई मिशनरियों द्वारा सेवा व धन से धर्मान्तरण के माध्यम से मतान्तरण कराया जा रहा है। नेता केवल भाषणों के माध्यम से वोट प्राप्त करना ही अपना धर्म समझते है तथा जनता की आखों में धूल झोंकते है। भारत के कुछ राज्यों में अंतर्राष्ट्रीय ईसाई राजनीति के हिस्से के रुप में धर्मान्तरण कराने में ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों में काफी तीव्रता आयी है।गरीबी व दलित उत्थान के नाम पर हो रहे मतान्तरण को रोकने के लिए सारे समाज को आगे आना चाहिए। प्रलोभन व लालच के नाम पर जो लोग धर्मान्तरण कराते है उन पर रोक लगानी चाहिए तथा ऐसे लोगों को देश से ही निष्कासित कर देना चाहिए।

हिन्दुस्थान ‘हिन्दू राष्ट्र’ है जिसमें हिन्दू शब्द का संदर्भ राष्ट्रीयता से होता है। भारत में रहने वाला जो व्यक्ति इस देश की मातृभूमि को अपनी माता मानता है और उसके प्रति अपनी निष्ठा रखता है वही हिन्दू है, चाहे वह किसी भी समुदाय या पंथ को मानने वाला हो। मात्र उपासना पद्धति को लेकर किसी प्रकार का संघर्ष नहीं होना चाहिए परन्तु जब किसी पंथ विशेष के लोग केवल अपने धर्म को तथा स्वंय को ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगें और दूसरे धर्म को तथा दूसरे लोगों को छोटा समझें तो इससे ही विवाद उत्पन्न हो जाता है।

स्व. श्री मोहम्मद करीम छागला ने अनेक बार सार्वजनिक रुप से कहा कि सामान्यतः भारत का प्रत्येक नागरिक मूलत: हिन्दू है, फिर चाहे वह मुसलमान या ईसाई किसी भी सम्प्रदाय का क्यों न हो? उनका यह भी कहना था कि हम सब के पूर्वज हिन्दू ही है, किसी ने भय से तो किसी ने प्रलोभन से तत्कालीन शासकों का सम्प्रदाय स्वीकार कर लिया तो भी उनका वंश वृक्ष तो हिन्दू मूल का ही रहा। छागला के ही शब्दों को हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम कुछ यूं कहते है कि जितनी शांति-सांत्वना उनको गीता के अध्ययन से मिलती है उतनी अन्य किसी ग्रन्थ के अध्ययन से नहीं। कुछ मुसलमानों व ईसाईयों ने अपनी पूर्व मान्यताओं से प्रभावित हो कर पुनः हिन्दुत्व को अंगीकार किया भी तथा कमोबेश अधिकांश सुपठित, सुशिक्षित मुसलमान व ईसाई इसी मत को मानते भी है परन्तु किसी अदृश्य आशंका के कारण वे ऐसा कह नहीं पाते है और न ही अपने पूर्वजों के पंथ को स्वीकार कर पाते है।

सर मोहम्मद इकबाल ने ही कहा था कि ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा’ इकबाल के पितामह कश्मीरी पंडित थे जिन्होंने लोभ, लालच व भय के वशीभूत हो कर इस्लाम स्वीकार कर लिया था। कवि मलिक मोहम्मद जायसी, कवयित्री ताज बेगम, पठान रुस्तम खां जो बाद में रसखान बन गये, अव्दुल रहीम खानखाना, अमीर खुसरो, ध्रुपद गायक डागर बन्धु इत्यादि अनेक मुसलमान भारतीय संस्कृति में रचे बसे बुद्धिजीवी भारत के नाम को रोशन करते रहे है। ऐसे पता नहीं कितने नाम हों जो कि अपने अपने पूर्वजों को किसी भी कीमत पर भूले नहीं है।

वर्तमान राजनेताओं को देश के निर्माण के लिए किसी अल्पसंख्यक व बहुसंख्यकवाद की आवश्यकता नहीं है। देश का सर्वागींण विकास तो भारतीयता को अपना कर तथा समस्त भारतवासियों को एक भाषा, एक पंथ, एक समान कानून देकर ही भारत के विकास में समस्त भारतवासियों से भरपूर सहयोग लिया जा सकता है। किसी भी भारतीय की उपासना (पूजा) पद्धति कैसी भी क्यों न रहे इससे क्या फर्क पड़ता है। बस दृष्टिकोण बदलने की देर है। इससे तो विश्व में भारत की स्थिति, मान सम्मान तथा गौरव के बढ़ने में तनिक भी देर नहीं लगेगी।

आज हमारी सरकार का जो पैसा दंगे, फसाद, कानून व्यवस्था कायम करने के लिए व्यय किया जा रहा है यदि वह देश के विकास में लगे तो देश में भाईचारे के साथ साथ अमन, चैन, सुख व समृद्धि आते देर नहीं लगेगी। उपासना (पूजा) पद्धति अलग अलग होने मात्र से ही कोई भारतीय व्यक्ति अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक में नहीं बंट जाता है।

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