‘मेरा परिवार’संयुक्त परिवारों की ओर लौटने का समय

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दलते जमाने में संयुक्त परिवार का ताना बाना बिखर गया है। लोगों ने एकल परिवार को ही तरक्की का पैमाना मान लिया है। कोरोना महामारी से पहले लोगों ने यह मान लिया था कि एकल परिवार ही अच्छा होता है लेकिन कोविड-19 ने संयुक्त परिवारों की अवधारणा को फिर से बल दिया है। लोग भी संयुक्त परिवारों के मायने समझ गए। कोरोना के दौरान एकल परिवारों को अधिक दिक्कतें हुईं। भारतीय सभ्यता की मिठास और जीवन के सुखद क्षणों का एहसास संयुक्त परिवार में ही मिलता है। लेकिन आज के बदलते सामाजिक परिदृश्य में संयुक्त परिवार तेजी से टूट रहे हैं और उनकी जगह एकल परिवार लेते जा रहे हैं। परिवार के सदस्यों के बीच वह प्यार, अपनापन और सम्मान अब देखने को नहीं मिलता, जो कभी दिखा करता था।

जिस घर को कभी हमारा घर कहकर पुकारा जाता था, वह घर अब टुकड़े-टुकड़े होकर तेरे-मेरे घर में परिवर्तित हो रहा है। हाल यह है कि एक भाई अपने दूसरे भाई के साथ नहीं रहना चाहता। भारत में प्राचीन काल से ही ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की रीति को अपनाया जाता रहा है। अर्थात पूरी पृथ्वी हमारा परिवार है। किंतु सच्चाई यह है कि हम अपने परिवार को भी अपना नहीं समझते हैं। संयुक्त परिवारों के मजबूत स्तंभों के ढहते ही समाज का सारा ढांचा गड़बड़ा गया है। कई परंपराओं व रीति-रिवाजों ने दम तोड़ डाला है। इससे हमारी संस्कृति को करारा आघात पहुंचा है।

एक समय था, जब लोग संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे. जिसका जितना बड़ा परिवार होता, वह उतना ही संपन्न और सौभाग्यशाली माना जाता था। तब व्यक्ति की प्रधानता नहीं थी, बल्कि परिवारों की प्रधानता थी। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण आर्थिक व्यवस्था है। एक ही परिवार में कमाने वाले तीन खाने वाले बीस हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में लोगों के मन में कुंठा घर कर जाती है। यहीं जरूरत होती है नैतिकता व संस्कार की। पर इस पर हावी हो जाती है आधुनिकता।

भौतिकवाद ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया है। जब यह बढ़ता है तो व्यक्ति स्वतंत्र रूप में आ जाता है। वह महत्वाकांक्षा पाने की कोशिश करता है। परिणामतः संयुक्त परिवार टूटने लगते हैं। आज बदलते दौर ने इस सारी व्यवस्था को बदलकर रख दिया है. अब परिवार छोटे हो गये हैं और सब लोग स्व में केंद्रित होकर जी रहे हैं. अब एक व्यक्ति को अपने बच्चों और अपनी बीवी के अलावा किसी और का सुख-दुख नहीं दिखता है.।

समाज विज्ञानियों के अनुसार बदलती जीवनशैली और प्रतिस्पर्धा के दौर में तनाव तथा अन्य मानसिक समस्याओं से निपटने में अपनों का साथ अहम भूमिका निभाता है। संयुक्त परिवारों में आसपास काफी लोगों की मौजूदगी एक सहारे का काम करती है। संयुक्त परिवार में जहां बच्चों का लालन-पालन और मानसिक विकास अच्छे से होता है वहीं वृद्धजन का अंतिम समय भी शांति और खुशी से गुजरता है। वह अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं।

हमारे बच्चे संयुक्त परिवार में दादा-दादी, काका-काकी, बुआ आदि के प्यार की छांव में खेलते-कूदते और संस्कारों को सीखते हुए बड़े हो। संयुक्त परिवार से ही संस्कारों का जन्म होता है। वृद्धजनों की उपेक्षा और उनकी समस्याओं का सबसे बड़ा कारण संयुक्त परिवारों का बिखरना है। मनोरोग विशेषज्ञों के अनुसार संयुक्त परिवार प्रणाली टूटने से भावनात्मक जुड़ाव में कमी आई है। यह बुजुर्गों में मानसिक रोग का बड़ा कारण बनता जा रहा है। 

सुख और दुख दोनों स्थिति में संयुक्त परिवारों की आवश्यकता महसूस होती है। जो परिवार संयुक्त होता है, उसे किसी भी आयोजन के समय कठिनाई नहीं होती, लेकिन एकाकी परिवारों को संयुक्त परिवार का महत्व ऐसे ही समय पर समझ में आता है। आज कोरोना के बुरे दौर में काफी लोगों को संयुक्त परिवार की महत्ता समझ में आ रही है। कोरोना ने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया है। कोरोना ने फिर एकबार सोचने को विवश किया है कि संयुक्त परिवार कितने जरूरी हैं। 

आज जरूरत है औपचारिकताओं को मिटाकर दिमाग के दरवाजे खोलने की, ताकि आपके दिल में सारा परिवार समा जाये और आपको लगे कि यह शहर मेरा है, यह परिवार मेरा है, यह गांव मेरा है। हम अपने संस्कारों को न भूलें, अपनी परंपराओं को न भूलें. जीवन में विकास और समृद्धि बहुत जरूरी है, लेकिन विकास, पढ़ाई-लिखाई और समृद्धि की आड़ में परंपराओं एवं पारिवारिकता को भूल जाना नासमझी है।

आज हमें एक अच्छे सुसभ्य, सुसंस्कृत समाज की आवश्यकता है। यह तभी संभव है यदि समाज की नींव अर्थात् परिवार-सुसंगठित हो। इसके लिए संयुक्त परिवारों के बिखराव  को रोकने की खास जरूरत है। उम्मीद है जल्द ही समाज में संयुक्त परिवार की अहमियत दोबारा बढ़ने लगेगी और लोगों में जागरूकता फैलेगी कि वह एक साथ एक परिवार में रहें जिसके कई फायदे हैं।

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