होलिका दहन का मुहूर्त

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आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी

बुरा न मानो होली है…..

होलिका फाल्गुन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। होलिकोत्सव को फाल्गुन-उत्सव भी कहते हैं। यह प्रेम, नव-सृजन और सदभावना का पर्व है। सड़क पर, गलियों में, गृह-द्वार पर धनी-निर्धन, जाति-पंक्ति का भेद मिट जाता है। इस प्रकार होली प्रेम, उल्लास और समानता का पर्व है। प्रह्लाद का अर्थ आनंद होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

होलिका दहन का मुहूर्त
होलिकादहन के लिये 3 शास्त्रीय नियम का पालन आवश्यक है। पहला-फाल्गुन शुक्ल की पूर्णिमा तिथि हो। दूसरा- प्रदोष रात्रि का समय हो। तथा तीसरा- भद्रा बीत चुकी हो। उपरोक्त तीनों नियमों का पालन करते हुये 17 मार्च गुरूवार की रात भद्रा रात्रि 12ः57 तक है। इसी के बाद हालिकादहन का मुहूर्त है। काशी की अपनी परम्परा के अनुसार रंग की होली 18 मार्च शुक्रवार को होगी।पहले होली का त्यौहार 5 दिन तक मनाया जाता था इसके कारण पहले रंग पंचमी भी मनाई जाती थी। लेकिन अब यह दो दिन ही मनाया जाता है। होली है बसंतोत्सव का आगमन नईं कोपलें, हरितिमा, लालिमा एवं नटी प्रकृति का शृंगार। वसंत के साथ ही प्रकट होते हैं- अनेक रंग के फूल, सुगंध, भौंरों के गुंजार और तितलियों के बहुरंगी विहार। सर्दी की जाती गलन और सुहानी धूप में जब सरसों के पीले फूलों की आमद होती है तब आती है ऋतुराज बसंत की बारी और महक उठती है फूलों की क्यारी। हर तरफ़ रंग घुलने लगते हैं, मस्ती के, हंसी के मन मोहक गुलाल, अबीर कोई टोकाटाकी नहीं। बस गुलाल तो लगानी ही है।


कवियों और कलाकारों का सदाबहार विषय ऋतुराज वसंत केवल प्रकृति को ही नवीन नहीं करता भिन्न कलाकारों को भिन्न प्रकार की प्रेरणाओं से भी अभिभूत करता है। लोक साहित्य हो या इतिहास पुराण, चित्रकला या संगीत इस ऋतु ने हर कला को प्रभावित किया है। यहाँ तक कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है। इतिहास पुराण भी इसके उल्लेखों से बचे नहीं हैं। किंवदंतियों और हास्य कथाओं के ख़ज़ानों में भी इस पर्व का ज़ोरदार दख़ल है।एक किंवदंती यह है कि जब पार्वती के लाख प्रयत्न के बाद भी भगवान भोलेनाथ प्रसन्न नहीं हुए तो नारद के कहने पर कामदेव को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा गया। कामदेव ने शंकर को रिझाने के लिए कई यत्न किए थे लेकिन भगवान शंकर ने रुष्ट होकर कामदेव को ही जला दिया ऐसे में संसार का सृजन चक्र ही रुक गया। रति ने अपने पति को जीवित करने के लिए भगवान को मनाया और कामदेव निःशरीर जीवित हो गए। इस खुशी में भी होली मनाई जाती है।

हिरण्यकश्यपु की कहानी भी इससे जुड़ी हुई है। लाख मना करने पर भी प्रह्लाद ने भगवान विष्णु का नाम जपना नहीं छोड़ा। उधर हिरण्यकश्यपु भी महान प्रतापी था, उसने भगवान ब्रह्मा एवं शिव से ऐसे वरदान माँग रखे थे कि उसे कोई सामान्य नर, नारी, पशु या पक्षी कोई भी मार नहीं सकता था। ऐसी स्थिति में भगवान नृसिंह को उग्र रूप धारण करके विशेष समय, परिस्थिति और रूप में अवतरित हो कर भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए आना पड़ा।कृष्ण और राधा की अनेक कथाओं के साथ होली और वसंतोत्सव के वर्णन मिलते हैं। गोकुल की ग्वालिनें अपने आराध्य कान्हा को रिझाने के लिए अनेक लीलाएँ रचा करती थी जिसमें रंग, गुलाल और जल क्रीडाएँ शामिल थीं। एक अन्य किंवदंती के अनुसार पूतना राक्षसी के वध की खुशी में भी होली मनाई जाती है। कृष्ण की जन्म और कर्म भूमि मथुरा वृंदावन ब्रज बरसाने और गोकुल में आज भी होली की धूम देखते ही बनती है।

होली के पर्व का सुंदर विवरण संस्कृत में दशकुमार चरित एवं गरूड पुराण में तथा हर्ष द्वारा रचित नाटक रत्नावली (जो सातवीं सदी में लिखा गया था) में मिलता है। उस समय इसे वसंतोत्सव के रूप में मदनोत्सव के रूप में मनाते थे। भवभूति, कालिदास आदि ने भी अपने महाकाव्यों में रंग रंगीली होली के बारे में दत्त चित्त हो कर वर्णन किया है। समय के साथ अनेक चीज़ें बदली हैं लेकिन इस पर्व की मोहकता और मादकता की मिसाल नहीं। सभी इसका इंतज़ार करते हैं। आज भी भारत के गाँव में इस दिन जितना हो सके पुराने कपड़े पहनते हैं तथा धूल कीचड़ रंग गोबर काला जो भी हाथ लगे रंग देते हैं, कह देते हैं बुरा न मानों होली है।