कबीर के राम

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कबीर के राम
कबीर के राम
चित्रलेखा वर्मा
चित्रलेखा वर्मा

बीर के राम,सन्त कबीर या भक्त कबीर पन्द्रहवीं शताब्दी के रहस्य वादी कवि और सन्त थे।वे हिन्दी  साहित्य के भक्तिकाल युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा के प्रवर्तक कवि थे।कबीर दास ऐसे कवि हैं  जिनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आन्दोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया था। कबीरदास कर्म प्रधान कवि थे। उनका पूरा जीवन समाज कल्याण और समाज हित के लिए समर्पित था। देखाजाय तो कबीर दास विश्व प्रेमी व्यक्तित्व के कवि थे। यही कारण है कि कबीर का नाम  सम्पूर्ण  संसार में प्रसिद्ध है। वे किसी एक धर्म को नहीं मानते थे। धर्म निर्पेक्ष थे। उन्होंने ने समाज में व्याप्त कुरीतियाो्,अन्ध विश्वास और कर्म कांडकी घोर निन्दा भी की थी उनके जीवन काल में उन्हें दोनो सम्प्रदायो,   (हिन्दू और मुस्लिम ) ने-धमकी भी दी थी। पर दोनों सम्प्रदाय के लोग उनके अनुन्यायी थे। सिक्खों के आदि ग्रन्थ में  कबीर का लेखन भी देखने को मिलता है ।

  कबीर पन्थी आपकी शिक्षाओं के अनुयायी थे। कबीर पढ़े लिखे तो थे नहीं। उनके घर में साधु संतों की भीड़ लगी रहती थी। वो जो कुछ बोलते थे सन्त लोग लिख लिया करते थे। उनका जीवन बहुत ही सरल एवं सादा था,वे अहिंसा के समर्थक थे। उनकी भाषा बहुत ही सरल और पंचमेली खिचड़ी थी-एवं उसमें भारत के बहुत सी भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है।उन्होंने ने अपने पन्थ को इस तरह सुनियोजित किया कि मुस्लिम सम्प्रदाय की ओर झुकी हुई जनता भी आप की अनुन्यायी हो गई।अनुन्यायी भी मुस्लिम समुदाय के गोभक्षण के समर्थक नहीं थे।उनकी अपनी भाषा  बहुत ही सरल थी। इस प्रभावशाली भाषा ने दोनों पक्षों  को एक दूसरे को बहुत ही क़रीब कर दिया था।आप की भाषा और  विचारों की वजह से कबीर ने केवल देश में ही नहीं विदेशों में भी बहुत ख्याति प्राप्त की है।

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कबीर के राम अगम है। वे कण कण में व्याप्त है।

आप के समस्त विचारों में राम नाम.कीमहिमा ध्वानित होती है..! कर्म कांड  मूर्ति पूजा, मस्जिद, ईद में इनका विश्वास नहीं था। कबीर  के राम इस्लाम धर्म के एकेश्वरवादी और एक सत्ताधारी खुदा भी नहीं है। इस्लाम में  खुदा को सभी जगत एवं जीवों से भिन्न एवं परम समर्थ माना जाता है। पर कबीर के राम परम समर्थ भले ही हो,पर वे  जगत के सभी जीवों से  भिन्न तो बिलकुल ही नहीं बल्कि सभी जीवों में रहने वाले रमता राम ही है। कबीर कहते है…..

व्यापक ब्रह्म सबनि मै एकै, का पंडित का जोगी। रावण राव कवन सूं कवन वेद को रोगी।  वे अपने को”हरि मोर.पिउ,मै राम की बहुरिया तोकभी कहते”हरि जननी मै बालक तोरा।”  

कबीर के राम अगम तो थे ही और उनकी एक दृढ मान्यताा यह भी थी कि करमों के अनुसार ही गति मिलती है..! स्थान विशेष के कारण नहीं..!

लोगो की मान्यता थी की काशी में शरीर  त्यागने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक मिलता है…!

 इसलिए उन्होने अपना अन्त समय मगहर में व्ययीत किया और वहीं अपना शरीर छोडा आज भी वहां पर उनकी समाधि है…!

उन्होने कहा भी है…जो काशी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा रे..!

 कबीर राम की कोइ खास  रूपाकृति की कल्पना  नहीं करते  क्यों कि ऐसा   करने से  राम एक ढाचें में .बंध जाते  है,और एक ढाचें में राम को कैद.करना .कबीर को पसन्द नहीं कबीर राम की अवधारणा को एक व्यापक स्वरूप देना चाहते  थे….!राम के साथ एक व्यक्तिगत और  पारिवारिक सम्बन्ध अवश्य ही स्थापित करने की कोशिश भी करते हैं और  सम्बन्ध स्थापित किया भी है । राम की महिमाशाली सत्ता को एक क्षण केलिए भी बिना भुलाये ,अपने राम  के साथ   उनका , सम्बन्ध   प्रेम की  सरल ,सरस    मानवीय धरातल  पर  ही है ।

कबीर के राम

 कबीर राम रूप से अधिक  नाम को महत्व देते थे। वैसे भक्ति संवेदना के सिद्धांत के हिसाब से रूप से अधिक नाम का ही महत्व है और कबीर ने राम नाम का  बहुत ही क्रान्ति- धर्मी उपयोग किया है। तथा शताब्दियों से चले आ रहे लोक मानस में राम के संसलिष्ट  भावों को  व्यापक रूप देकर उसे पुराण-प्रतिपादित ब्राह्मण वादी राम के खाँचे मे बांधे जाने का पुर ज़ोर प्रयास किया है । कबीर के राम रूप नहीं नाम है। उनके राम निर्गुण सगुण के अन्तर से अधिक निर्गुण राम है ।यह राम शास्त्र द्वारा प्रतिपादित अवतारी सगुण वर्चस्व शील वर्णाश्रम के संरक्षक  राम से बिलकुल भिन्न हैं । कबीर ने अपने राम को  निर्गुणराम कहा है। और इसीलिए  वे कहते है”निर्गुण राम  जपहु रे भाई “। इसमें कोई संदेह की बात नहीं होनी चाहिए  उनका कहना है कि ईश्वर को  किसी नाम, रूप,गुण,अवतार आदि की सीमा या परिधि में नहीं बांधा जा सकता है। जो सभी सीमाओं से परे है और सर्वत्र है वहीं केवल और केवल कबीर के  निर्गुण राम है। कबीर के राम निर्गुण है फिर भी अपने राम के साथ उनका प्रेम और मानवीय संबंध है। कभी वे उसी निर्गुण राम को माधुर्य भाव से पति ,प्रेमी कभीदास्य भाव से स्वामी , कभी तो वे वात्सल्य भाव से माँ के बालक भी बन जाते है। निर्गुण, निराकार ब्रह्म के साथ वे इस तरह के मानवीय संबंध और प्रेम करते हैं कि यह सब दूसरे को भ्रमित कर सकता है पर कबीर के लिए समस्या नहीं है वे स्वयं कहते भी है “संतों,धोखा कांस्य कहिए गुन मै निरगुन, निरगुन मै गुन बाट छांडि क्ंयू बहिये”।

 प्रोफ़ेसर महावीर प्रसाद जैन जी  का कबीर के राम और उनकी साधना  के विषय में कहना है कि, “कबीर  का सारा  जीवन सत्य की  खोज और असत्य के खण्डन में ही व्यतीत हुआ था। कबीर की साधना मानने से नहीं जानने से होती हैं। वे किसी के शिष्य नहीं  है वे रामानन्द के चेताए हुए शिष्य है।कबीर के राम दशरथी राम नहीं है, उनके राम किसी सम्प्रदाय,जाति,देश की सीमा से नहीं बंधें है।उनके राम रूप के नहीं साधना के  प्रतीक हैं । प्रकृति के कण कण में व्याप्त है, अंग अंग में व्याप्त होने पर भी जिसे अनंग छू नहीं सकता हैं वे अलख,अविनाशी परम तत्व ही कबीर के राम है। उनके राम,मनुष्य और मनुष्य के बीच किसी तरह के भेदभाव के कारक तत्व नहीं है। वे तो प्रेम तत्व के प्रतीक हैं भाव से बहुत ऊपर महाभाव  या प्रेम के आराध्य है।कबीर के अनुसार प्रेम के लिए पोथी पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं होती है उसके लिए तो बस ढाई अक्षर ही ज़रूरी है।आप का कहना है कि……

 पोथी पढ़ि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का पढ़ें जो पंडित होय।

प्रेम जगावै विरह को, विरह जगावै पाीउ,पिउ जगावै जीव को

जो पीउ,सो जीव,–जो है जीव वही है पिउ।

 इसी कारण उनकी पूरी साधना “हंस उबारन आए की साधना  है।” इस हंस  उबारने की साधना पोथियों पढ़ने से नहीं हो सकता है ढाई आख़र ग्रैम के पढ़ने से ही हो सकता है। धर्म के बारे में कबीर जी का कहना है कि धर्म कोई ओढ़ने,बिछाने की चीज़ नहीं है कि आपने ओढ़ ,बिछा कर अपने आप को ढाक लिया और आप ने धर्म का आचरण  कर लिया। धर्म  केलिए  सतत आचरण  करना  पड़ता है , निरन्तर साधना करनाी पड़ती हैं । यह साधना प्रेम से होती है  ।यह साधना इतनी गहरी होनी चाहिए कि वही प्रेम तुम्हारे लिए परमात्मा हो जाए  उसको पाने की इतनी लालसा हो जाए कि सब वैराग्य हो जाए  विरह भाव हो जाए तभी उस ध्यान समाधि में पीउ जागरण हो जाएगा। और यही पीउ तुम्हारे अन्तर्निहित जीव को जगा सकता है। जो पिउहै सो जीव है। जब तुम पूरे संसार से प्रेम करोगे तब संसार का प्रत्येक जीव तुम्हारे प्रेम का पात्र हो जागेगा  तुम्हारा सारा सारा अहंकार राग, द्वेष दूर हो जायेगा । एक महा भाव जगेगा कि यह  पूरा संसार  पिउ का घर है। तभी तो कबीर कहते है—————

सूरज,चन्द्र का एक ही उजियारा,सब यही पसरा ब्रह्म पसारा।

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाह मर भीतर पानी।

फूटा कुम्भ जल जल हीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।

 राम नाम की लूट है लूट सको तो लूट। 

 फिर पीछे पछताओगे,जब प्राण ज़ाहि जब छूट ।

कबीर राम के रूप से अधिक नाम को महत्व देते हैं और सभी को सीख यह कह कर देते हैं।कबीर के दोहों  से समाज के सभी  वर्गों के लोगों के लिए सीख है ।  यह सीख  जीवन के हर  पहलू के लिए हैं।अगर मनुष्य उन दोहो के सारगर्भित अर्थ के अनुसार जोवन यापन करें तो समाज का रूप ही बदल जायेगा।अपने जीवन काल में मनुष्य को प्रेम और राम नाम को  अपनाना चाहिए और अपना जीवन सार्थक करने का प्रयास करना चाहिए । कबीर के राम