वसंत पंचमी का धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व पौराणिक एवं विवरण

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हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ मास के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को देवी सरस्वती का प्राकट्य दिवस मनाया जाता है। ग्रंथों के अनुसार इस दिन देवी सरस्वती प्रकट हुई थीं। तब देवताओं ने देवी स्तुति की। स्तुति से वेदों की ऋचाएं बनीं और उनसे वसंत राग। इसलिए इस दिन को वसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। 

ग्रंथों के अनुसार वसंत पंचमी पर पीला रंग के उपयोग का महत्व है। क्योंकि इस पर्व के बाद शुरू होने वाली बसंत ऋतु में फसलें पकने लगती हैं और पीले फूल भी खिलने लगते हैं। इसलिए वसंत पंचमी पर्व पर पीले रंग के कपड़े और पीला भोजन करने का बहुत ही महत्व है। इस त्योहार पर पीले रंग का महत्व इसलिए बताया गया है क्योंकि बसंत का पीला रंग समृद्धि, ऊर्जा, प्रकाश और आशावाद का प्रतीक है। इसलिए इस दिन पीले रंग के कपड़े पहनते हैं, व्यंजन बनाते हैं।

वसंत पञ्चमी या श्रीपंचमी एक हिन्दू का त्योहार है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। … वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा होती हैं। यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था।

बसंत पंचमी को श्रीपंचमी, सरस्वती प्राकट्योत्सव एवं सरस्वती पूजा के नाम से भी जाना जाता है। माघ शुक्ल पंचमी को यह त्यौहार मनाते हुए विद्या की देवी सरस्वती का पूजन किया जाता है। बसंत पंचमी (Basant Panchami) वास्तव में बसंत ऋतु से कुछ दिवस पूर्व आती है। बसंत वर्षभर की छः ऋतुओं में से प्रथम ऋतु है, अन्य ऋतुओं में क्रमश: ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त व शिशिर हैं।

किस ऋतु में कौन-से मास ? बसंत में चैत्र व वैशाख, ग्रीष्म में ज्येष्ठ व आषाढ़, वर्षामें श्रावण व भाद्रपद, शरद में अश्विन व कार्तिक, हेमन्त में मार्गशीर्ष व पौष एवं शिशिर में माघ व फाल्गुन मास सम्मिलित हैं। अन्तिम ऋतु शिशिर ऋतु के माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को सरस्वती प्राकट्योत्सव है।

प्रमुख अँचल :- पूर्वी भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल इत्यादि में बसंत पंचमी सर्वाधिक मनायी जाती है।

परम्परा :- इस तिथि को पीत (पीले) परिधान धारण करने की परम्परा है।सजावट  व अन्य उपयोग की सामग्रियाँ भी पीली हों ऐसा प्रयास किया जाता है।

खेतों में छाया बसंत :- फूलते सरसों के पीले-पीले पुष्प स्वर्णिम छटा बिखेरते प्रतीत होते हैं। जौ एवं गेहूँ की बालियाँ खिलने लगती हैं।

घर-आँगन में बसंत :- आम के पेड़ मंजरियों से सज जाते हैं।

वन में बसंत :- रंग-बिरंगी तितलियाँ अधिक दिखायी देने लगती हैं। गुँजन करते भँवरे मँडराते हुए स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगते हैं।

बसंत पंचमी पर पौराणिक विवरण :-

उपनिषदों अनुसार सृष्टि के आरम्भ में शिवाज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों व मनुष्यों की रचना की परन्तु वे संतुष्ट नहीं थे व उन्हें ऐसा लग रहा था कि कुछ कमी रह गयी है जिससे चारों ओर मौन छाया रहता है। ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारणार्थ अपने कमण्डल से जल हथेली में लेकर संकल्पस्वरूप उस जल को छिड़ककर विष्णुदेव की स्तुति करनी आरम्भ की। स्तुति सुन विष्णुदेव तत्काल ही उनके सम्मुख प्रकट हो गये एवं समस्या को जानकर उन्होंने माता आदिषक्ति का आह्वान किया। पुकारे जाने पर आदि शक्ति प्रकट हुईं एवं ब्रह्मा-विष्णु ने उनसे इस समस्या के निवारण का निवेदन किया।

आदिशक्ति के शरीर से श्वेतवर्ण का एक दिव्य तेज उत्पन्न हुआ जो देवी सरस्वती के विग्रह में परिणत हो गया। चतुर्भुजाधारिणी सरस्वती जी वीणा, वरमुद्रा, पुस्तक एवं माला धारण की हुईं थीं। उत्पन्न होते से ही सरस्वती ने वीणा का मधुरनाद किया जिससे संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हुई। जलधाराएँ ध्वनित हो उठीं।

पवन का प्रवाह भी सर्र-सर्र करते हुए स्वरमय हो गया। सभी देवी-देवता शब्द व रस का संचार कर देने वाली वाणी की अधिष्ठात्री उन वीणावादिनी देवी का गुणगान करने लगे। अब आदि शक्ति ब्रह्माजी से बोलीं कि ये महासरस्वती आपकी पत्नी व शक्ति होंगी।

कालान्तर में देवी सरस्वती के अनेक नाम पड़े : वागीश्वरी, शारदा, वाग्देवी इत्यादि। ये विद्या व बुद्धि की प्रदात्री हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती के विषय में कहा गया है कि ये परम चेतना हैं, ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा व मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। इन्हीं की कृपा से हमारा आचार व हमारी मेधा है।

विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वाग्देवी चार भुजाओं व आभूषणों से सुसज्जित हैं। रूपमण्डन में वाग्देवी शान्त व सौम्य हैं। वैसे समग्रता में शुभ्र-धवल, सफेद दूध से भी अधिक श्वेत रंग माता सरस्वती का रूप है। स्कन्द पुराण में सरस्वती जटाजूट युक्त, अर्द्धचन्द्र मस्तक पर धारण किये, कमलासन पर सुशोभित, नीलग्रीवा वाली एवं तीन नेत्रों वाली हैं।

मत्स्यपुराण के अनुसार जब ब्रह्मा जी ने जगत् की सृष्टि करने की इच्छा से हृदय में सावित्री का ध्यान करके तप आरम्भ किया उस समय उनका निष्पाप शरीर दो भागों में विभक्त हो गया जिनमें से आधा भाग स्त्री व आधा भाग पुरुष था।

वे स्त्री ही सावित्री, ब्रह्माणी व गायत्री कहलायीं। अपने मनोहारी सौन्दर्य का वर्णन ब्रह्मदेव के मुख से सुन ये उनकी प्रदक्षिणा करने लगीं एवं सावित्री के विग्रह के दर्षन की इच्छा से ब्रह्मदेव जहाँ-जहाँ मुख घुमाते वहाँ-वहाँ उनके मुख उत्पन्न होते गये। इस प्रकार ब्रह्मा के मुख अनेक हो गये।

बसंतोत्सव :-

पूजा-कक्ष को भली-भाँति स्वच्छ करने के उपरान्त सरस्वती देवी की प्रतिमा को पीले पुष्पों से सजाये काष्ठीय (लकड़ी के) मण्डप पर रखते हैं। मूत्र्ति को भी पीत पुष्पों से सुसज्जित किया जाता है। प्रतिमा में पीत परिधान पहनाये जाते हैं।प्रतिमा के निकट गणेश जी के चित्र अथवा प्रतिमा की स्थापना की जाती है। परिवार के समस्त सदस्य पूजा में सम्मिलित होते हैं एवं सभी व्यक्तियों द्वारा पीले वस्त्र धारण किये जाते हैं।ब्रम्हचर्य एवं मानसिक-शारीरिक शुद्धि सहित निरामिश होने का महत्त्व सरस्वती-पूजन में अत्यधिक रहता है।

सरस्वती-उपासक को असत्य, अपशब्द, क्रोध आदि से दूर रहना भी अधिक आवश्यक है।नैवेद्य : नारियल व पान सहित बेर व संगरी के साथ पीली बर्फी अथवा बेसन के लड्डू। माता सरस्वती की कृपा से विद्या, बुद्धि, वाणी व ज्ञान की प्राप्ति होती है। इन देवी जी की कृपा से कवि कालिदास का वाक्-गौरव छा गया एवं विश्वामित्र,वाल्मीकि, वशिष्ठ, शौनक व व्यास भी सरस्वती-साधना से पाण्डित्य के शिखर पर पहुँचे।