यह जो मील के पत्थर महज पाषाण नहीं है गति है,
लय है हमारे चलने के साथ जीवन के साक्षी भी बनते हैं
जीवन में कुछ पल अपने अस्तित्व बोध में ऐसे भी होते हैं
जिनमें हम बुद्ध बन जाने को विवश होते हैं
खामोशियों में ही मन के सुने
गांव में शब्दों को अर्थ बदलते हुए देख
दिशाहीन इस जीवन में विक्षिप्त-सी यह काया
कंधों पर चढ़कर पहाड़ों को रौंदने का समर्थन करती रही
मील के पत्थर को साक्षी मान असहायता से अतृप्तमुट्ठियाँ मुड़ती है
अपने आप ही भींचने लगती है आंधियां इसी तरह उठती है
और न जानें कितने हिस्सों में बंट जाता है व्यक्तित्व
आंधियों को मिटने दो कोई तो दिन हो गाजो हमारी मुट्ठी में होगा
प्रकाश देगा !