क्या अखिलेश यादव की रणनीति कारगर होगी..?

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भाजपाइयों के एक महिला पर किए गए अपमानजनक कटाक्ष ‘दीदी ओ दीदी’ का बंगाल की जनता द्वारा दिया गया मुंहतोड़ जवाब था. ममता के साथ चल रहे तालमेल को उत्तर प्रदेश की जनता किस प्रकार लेगी यह 2022 का चुनाव ही निर्धारित कर पाएगा.2022 के विधानसभा चुनाव का चक्रव्यूह भेदने को अब सपा इंटरनेट मीडिया को भी हथियार बनाएगी।राज की बात हां भाई चाचा..हां भतीजा.. आजकल बिहार के चाचा-भतीजे बड़ी चर्चा में हैं. वहां पशुपति पारस और चिराग पासवान के बीच जो राजनीतिक परिदृश्य बना है, उसकी चर्चा है. वहीं उत्तर प्रदेश चाचा-भतीजे भी चर्चा में हैं, लेकिन विघटनकारी नहीं, बल्कि समन्वयवादी नए समीकरण के मद्देनजर. बात शिवपाल अखिलेश यादव की हो रही है. अखिलेश-शिवपाल के बीच 2017 के विधानसभा चुनाव से ही जो झगड़ा चला आ रहा था, इस दफा वो तल्खी और दुराव दूर होता दिख रहा है. मगर राज की बात का यह अखिलेश यादव की नई सियासत का सिर्फ एक सोपान है. वास्तव में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव यूपी में जाने से पहले घर दुरुस्त करने के साथ-साथ नए समीकरणों से लैस होकर उतरने की तैयारी कर रहे हैं. इसके साथ ही अखिलेश के स्टार प्रचारक के ट्रंपकार्ड का राज, जिससे वे चुनावी अभियान में आगे रहने वाली भाजपा के स्टार प्रचारकों की फौज की काट करने की कोशिश करेंगे.

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अखिलेश की कोशिश पूरी तरह से चुनाव भाजपा बनाम सपा करने की है. भाजपा विरोधी वोटों को पाने के साथ-साथ अपने बचाने की इस दोहरी मुहिम पर काम शुरू हो चुका है. पंचायत चुनावों के नतीजों से उत्साहित सपा ने अपनी मोहरे बिछाने शुरू तो किए हैं, लेकिन जमीन पर संघर्ष करने वाला समाजवादी चरित्र अभी नहीं दिखाई दे रहा है. मुलायम की आंदोलनकारी सियासत से उलट अखिलेश की कोशिश भाजपा सरकार के खिलाफ गुस्से पर वोट पाने वाले हर मुद्दे को हथियाने और ऐसे समीकरण बनाने की है, जिस पर वह फिर 2012 की तरह सत्ता का दुर्ग बना सकें.

चुनाव में अभी समय है. भाजपा के तरकश के तीरों का अभी पता भी नहीं है. अखिलेश योगी का मुकाबला सीधे खुद करने की रणनीति पर आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ चुके हैं. राज की बात है कि अखिलेश इस बार सांप्रदायिकता के खिलाफ नहीं, बल्कि उस मुद्दे पर उत्तर प्रदेश में वोट मांगने जनता के बीच जा रहे हैं जो कि भाजपा का बड़ा दांव होता था. वो दांव था विकास का. अखिलेश यादव की रणनीति में अपने कार्यकाल में हुए हाईवे निर्माण से लेकर तमाम परियोजनाओं को विज्ञापनों, पोस्टरों और भाषणों में उतारने की तैयारी कर ली है. साथ ही वो परियोजनाएं जो पूरी की अखिलेश ने और फीता काटा योगी ने उन्हें भी गिनाया जाएगा.

भाजपा के पास स्टार प्रचारकों की फौज और उनके काडर को काटना अखिलेश यादव के लिए इतना आसान नहीं. सपा संगठन के स्तर पर को कितना लडेगी यह कहना मुश्किल है. मगर भाजपा जिस आक्रामक तरीके से प्रचार कर माहौल को पूरा अपने पक्ष में मोड़ने में माहिर है, उस पर अमोघ शक्ति अखिलेश ने ढूढ़ ली है. जी हां….वो अमोघ शक्ति और अखिलेश की स्टार प्रचारक उनके अलावा होंगी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी.

चुनाव में मुद्दों के साथ-साथ समीकरण बैठाना और प्रतिद्वंदी की ताकत को कम करना भी एक अहम रणनीति होती है. राज की बात है कि भाजपा के करीब तीन दर्जन विधायक जिन्हें इस दफा टिकट न मिलने का अंदेशा है वो अखिलेश के संपर्क में हैं. जिताऊ लोगों का आकलन कर उन्हें टिकट देने से अखिलेश शायद गुरेज नहीं करेंगे. साथ ही बसपा के मुसलिम विधायक पहले ही बागी हो चुके हैं और सपा अध्यक्ष के संपर्क में हैं. साफ हे कि वोट कहीं बंटे न इसको लेकर अखिलेश सबसे ज्यादा सतर्क हैं.

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ममता ने जिस तरह से बंगाल फतेह कर,भाजपा चतुरंगिणी सेना को पस्त किया, उसके बाद ममता का कद बढ़ा है. यूपी में ममता के नाम पर वोट भले ही न मिले, लेकिन उनका क्रेज भरपूर है. खासतौर से बंगाल की लड़ाई बीजेपी के लिए बहुत बड़ी थी. मोदी-शाह की जोड़ी ने बंगाल में ताकत तो बढ़ाई, लेकिन ममता ने सारा विपक्षी वोट लेकर अंततः जीत हासिल की. राज की बात ये है कि अखिलेश ने ममता को उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रचार के लिए मना लिया है. हालांकि, पिता मुलायम सिंह से ममता एक बार राष्ट्रपति बनाने के मामले में धोखा खा चुकी हैं, लेकिन भतीजे अखिलेश के लिए और बीजेपी को हराने के लिए बंगाल की यह शेरनी उत्तर प्रदेश में भी दहाड़ने को तैयार है.

उत्तर प्रदेश के चुनाव में अब रखना यह होगा कि अखिलेश यादव की रणनीति कहां तक सफल होती है. विगत एक चुनाव में अखिलेश यादव ने पिता के विरुद्ध जाकर मायावती से समझौता किया था, जिसका उन्हें और पार्टी को खामियाजा भुगतना पड़ा था. अब देखना यह होगा कि बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी के साथ उनके संबंध उत्तर प्रदेश के चुनाव में किस प्रकार का रण दिखाएंगे.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश यादव समझ चुके हैं कि सवर्णों के मूल वोट के साथ अनुसूचित और पिछड़ों में बड़ी सेंध लगाकर भाजपा मजबूत हुई है.भाजपा से ब्राह्मण की नाराजगी जगजाहिर है ऐसे में अखिलेश यादव की नजर ब्राह्मण नेताओं पर जा टिकी है. जानकारी के मुताबिक कई ब्राह्मण नेताओं को सपा साइकिल पर सवार कर सकती है. 2022 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों को काफी संख्या में प्रत्याशी बनाया जा सकता है, साथ ही सपा सुप्रीमो का मानना है कि कोविड-19, व्यापारी वर्ग भी सत्ता से रुष्ट है. उसे भी आसानी से अपने पाले में किया जा सकता है. नेताजी के उत्तराधिकारी अखिलेश यादव 2022 विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गए हैं. अखिलेश यादव लगातार अपनी पार्टी और कार्यकर्ताओं की ताकत बढ़ाने में लगे हैं. अखिलेश यादव इस बार सोशल इंजीनियरिंग के सहारे अपनी रणनीति को तय करने का प्रयास कर रहे हैं.