वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित.....
वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित.....

वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित…..

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हिन्दू वर्णव्यवस्था के अनुसार चार वर्ण निर्धारित है वही वेद भाष्यकारों ने ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र के अतिरिक्त निषाद को पंचम वर्ण माना है-चत्वारो वर्णा:पंचमो निषाद:।ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यों में चार वर्ण था और भारतीय करती के आर्य पूर्व निवासी निषाद थे,सो ये चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से बाहर अपना स्वतंत्र स्थान स्थापित किये थे।हिन्दू वर्णव्यवस्था के अंतर्गत जो चार वर्ण हैं,वे परिवर्तनीय हैं।जन्मना सभी शूद्र होते हैं,गुण-कर्म,शील,संस्कार से वर्ण परिवर्तन होता रहता है।


ब्राह्मण का धर्म वेद पढ़ना है परन्तु बड़े खेद की बात है कि कोई ब्राह्मण वेद नहीं पढ़ता। अधिकतर ब्राह्मण चण्डी देवी का पाठ अथवा फलित ज्योतिष के पत्र बनाना, जो कि ठग विद्या है, को ही अपना कर्म समझते हैं। ब्राह्मणों को स्वयं भी वेदों का ज्ञान नहीं था, लेकिन विविध अवसरों पर बोले जाने वाले वेद मंत्र मात्र कंठस्थ किए हुए थे। वेदों का विचार करना तो दूर अधिकांश ब्राह्मणों को चारों वेदों के नाम तक मालूम नहीं थे। बिन वेद पढ़े अनपढ़ ब्राहाग मंदिरों में घण्टे घडियाल की टन टन आवाज करके पूजे जाते थे। हिन्दू धर्म में जाति प्रथा और मूर्ति पूजा दो ऐसी परम्पराएं थी, जिन्होंने हिन्दू समाज के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और उनमें घृणास्पद ऊँच नीच की भावना संस्कारित और प्रचारित हो गयी।


समय ने पलटा खाया, भारत वर्ष में अंग्रेजी शासन कायम हुआ जिससे सभी जातियों के बच्चों को पढ़ने- लिखने का समान अधिकार व अवसर प्राप्त हो सका। ऐसे विकट समय में क्रांति के अग्रदूत, योगीराज, वेदज्ञ, समाज सुधारक, वेदों का द्वार खोलने वाले कुरीतियों के निवारक, पाखण्ड का प्रबल खण्डन करने वाले, अद्भुत ब्रह्मचारी, संस्कृत भाषा के जगत् प्रसिद्ध महाविद्वान, युगपुरुष स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 10 फरवरी सन् 1825 ई. को गुजरात के मौरवी प्रान्त के टंकारा ग्राम में पंडित कर्षन जी तिवारी, आंदीच्य ब्राह्मण के घर में हुआ। मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण माता-पिता ने उनका नाम मूलशंकर तिवारी रखा जिसने बाद में महर्षि दयानन्द सरस्वती के रूप में दीक्षित होकर विश्व को वैदिक ज्ञान से आलोकित किया। महर्षि दयानन्द ने ही सर्वप्रथम लखनऊ शहर के इन्द्रमणि वकील को ‘अंगिराऽसि जंगिड़ चेदोक्ति’ की व्याख्या करके बताया कि खाती शब्द जाति-परक नहीं अपितु पेशा परक उर्दू शब्द है।


वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित….. स्वामी दयानन्द का सबसे अधिक विरोध धर्म के नाम पर व्यवसाय करने वाले पण्डे पुजारियों, महन्तों तथा मठाधीशों से था। ऋषि दयानन्द के अनुसार मध्यकाल में अज्ञानियों एवं स्वार्थी पंडितों ने जगत को लूटने और अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए ऋषियों के नाम से जाल-ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने अपना नाम इसलिए नहीं बदला कि हमारे नाम से बनेंगे, तो कोई व्यक्ति विश्वास नहीं करेगा इसलिए व्यास आदि ऋषि मुनियों के नाम से पुराण बनाये गए।


युगपुरुष ऋषि दयानन्द ने वेदों तथा शास्त्रों का गहन अध्ययन करने के बाद 16 नवम्बर 1869 ई. में भयंकर ब्राह्मणवाद के पौराणिक धर्मगढ़ काशी में जन्मना जाति और मूर्ति पूजा के विरुद्ध शास्त्रार्थ कर काशी नगरी के धर्म धुरन्धर विद्वान पंडितों को हराकर भारत में फैले मूर्ति पूजा और जन्मना जाति जैसे अवैदिक पाखण्डवाद के विरुद्ध हिन्दू धर्म की पोल डंके की चोट पर जनता के सामने प्रकट कर दी तथा मरे हुए हिन्दू धर्म को अपने वेद ज्ञान के चमत्कारों से पुनः जीवित कर दिया। सामान्य जनता को वेद-शास्त्रों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकी। “जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते,वेद पठनात् भवे विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः ।।” अर्थात मनुस्मृति के श्लोक के द्वारा यह सिद्ध होता है कि मनुष्य जन्म से शूद्र अर्थात् अनपढ़,
किन्तु संस्कार के होने से द्विज (दूसरा जन्म), वेदपाठ करने से विप्र और ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण कहलाता है। परन्तु आज के पढ़े लिखे अवैदिक मनुष्य जन्म से अपने आप को ब्राह्मण समझाने लगे हैं। उन्हें न तो वेदों का ज्ञान है ना ही पठन-पाठन का, वास्तव में मनुष्य ब्राह्मण का स्वभाव व संस्कार भूल चुका है।


शमी दमस्तप: शौचम् शांतिरार्जवमेव च ज्ञान विज्ञान मास्तिक्यम् ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।।

वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित…..

अर्थात् चित पर नियन्त्रण, इन्द्रियों पर नियंत्रण, शुचिता, धैर्य, सरलता, एकाग्रता तथा ज्ञान- विज्ञान में निष्णात्। वस्तुतः ब्राह्मण को जन्म से शूद्र अर्थात् अनपढ़ कहा है। यहां ब्राह्मण को क्रिया अर्थात कर्म से बताया गया है। वास्तव में मनुष्य जन्म से शूद्र ही होता है। केवल तथाकथित दुबे, चौबे,तिवारी,उपाध्याय, पांडेय, मिश्र, शुक्ला, पाठक,द्विवेदी,त्रिवेदी,चतुर्वेदी आदि ब्राह्मण के घर पैदा होने से ब्राह्मण नहीं होता अपितु ब्राह्मण होने के लिए ब्रह्म ज्ञान का होना जरुरी है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भगवत गीता में वेदों द्वारा प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था का सिद्ध गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार ही रखा है-


चातुर्वण्यं मया सृष्ट गुणकर्मविभागशः।

अर्थात् गुण, कर्मानुसार सृष्टि में चारों वर्णों की रचना मैंने की है। समय की गति प्रबल है, यह कर्मों से बना हुआ केवल भेद मात्र रह गया अर्थात् वर्ण भेद तो रह गया परन्तु उसका तत्व कर्म विवेचना नष्ट हो गया।जिसका परिणाम यह हुआ कि लोगों में कर्मों का आदर न रहा और वही अपने कर्मों से गिरकर केवल नामधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यादिक रह गए। फलतः आपस में ऊंच -नीच तथा घृणा-द्वेष के भाव पैदा हो गए तथा भारतीयता का पतन होता चला गया। वेदों में केवल चार वर्णों का उल्लेख मिलता है। वैदिक वर्ण-व्यवस्था विज्ञानयुक्त, स्वाभाविक और पारस्परिक भेदभाव से रहित है, जैसा कि इस मन्त्र में वर्णित है-


ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पढ्यां शूद्रोSजायत ।। (ॠ 10/90/12, यजु 31/11)


जबकि काशी के विद्वान पंडित अपने स्वार्थ की पूर्ति करने और समाज में अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए यजुर्वेद के उक्त मंत्र का यह अर्थ करते है कि ब्राह्मण परमेश्वर के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य जंघाओं से तथा शूद्र पैर से उत्पन्न हुए।परन्तु वेदों के महाविद्वान पंडित दयानन्द सरस्वती ने इन अर्थों का खण्डन करते हुए कहा कि मुख से तो खखार व थूक भी उत्पन्न होता है। इस मंत्र का वास्तविक अर्थ यह है कि ब्राह्मण वर्णों में मुख सदृश है, क्षत्रिय भुजा, वैश्य जंघा तथा शूद्र पांव सदृश है। बुद्धिमान व्यक्ति तो इन अर्थों के मर्म एवं औचित्य को समझ गये परन्तु झगड़ालू तथा स्वार्थी लोगों ने यह प्रचार कर दिया कि स्वामी दयानन्द नास्तिक है जो वेदों के अर्थों को बिगाड़ने का प्रयास करता है। मनु स्मृति ग्रन्थ के अ. 1 श्लोक 31 में वेद मन्त्र के अर्थ को यूं स्पष्ट किया गया है-


लोकानां तु विवृद्ध पर्थ मुख बाहु रुपादतः ब्राह्मणं सत्रियं वैश्यं शूद्रं च न्यवर्तयत ।।


अर्थात् संसार की उन्नति के लिए मुख, भुजा, पेट तथा पैर के समान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनाये। हमारे धर्म शास्त्रों में यहां तक लिखा है कि मुख, भुजा, पेट तथा पैर के समान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनाये गये परन्तु जन्माभिमानी ब्राह्मण इसके गलत अर्थ बताते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि उपरोक्त अंगों से पैदा हुए। महाभारत महाकाव्य में भी ब्राह्मण की कसौटी यूं बताई गई है.-


ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कृतः रुतबा या शूद्रों अजायत ।। (10/90/12)


जबकि काशी के विद्वान पंडित अपने स्वार्थ की पूर्ति करने और समाज में अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए यजुर्वेद के उक्त मंत्र का यह अर्थ करते हैं कि ब्राह्मण परमेश्वर के मुख से क्षत्रिय उसकी भुजाओं से वैश्य जंघाओं से तथा शूद्र पैर से उत्पन्न हुए। अर्थात् संसार की उन्नति के लिए मुख, भुजा, पेट तथा पैर के समान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनाये हमारे धर्म शास्त्रों में यहां तक लिखा है कि मुख, भुजा, पेट तथा पैर के समान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनाये गये परन्तु जन्माभिमानी ब्राह्मण इसके गलत अर्थ बताते है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि उपरोक्त अंगों से पैदा हुए।महाभारत महाकाव्य के इसी पर्व के अध्याय में स्पष्ट कहा गया है-


यस्तु शूद्रो मे सत्ये धर्मे च सततत्थितः । ब्राह्मणमहं मन्ये वृरोन हि भवेद्वः।।13।।


अर्थात् जो शूद्र, दम, सत्य और धर्म में सदा उन्नति करता है उसको मैं ब्राह्मण मानता हूँ क्योंकि आचार व्यवहार से ही वह द्विज होता है। इन स्पष्ट वाक्यों के होते हुए भी यदि कोई व्यक्ति कहे कि जाति जन्म से है तो उसे हठधर्मी के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा? महाभारत महागाथा के उद्योग पर्व अध्याय में इसी विषय में कहा गया हैं कि-


शरीरं यत् तो कुरुतः पिता माता च भारत। आचार्य शास्त्रे या जातिः सा पुण्या साजरागरा।। 43।।


अर्थात् है भारत माता-पिता ये दोनों शरीर को बनाते हैं, आचार्य से नियत की हुई जो जाति है वही पवित्र, अजर और अमर हैं। कितने साफ शब्दों में कहा है कि माता-पिता केवल जन्म देते हैं किन्तु जाति अर्थात् वर्ण को आचार्य ही नियत करते हैं। मतलब यह है कि जाति जन्म से नहीं और जाति का अर्थ है वर्ण जिसे आचार्य नियत किया करते है। इसकी पुष्टि में यास्कमुनि का निरुक्त 2/3 का वर्णों वृणोत और मनुस्मृति 10/4 का प्रमाण महत्त्वपूर्ण है। वेद मार्ग को छोड़कर पाखंडियों ने मनगढ़ंत रचनाएं रच डाली, अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए मनमाने नियम बनाये, स्वयं तो गुरु, पुरोहित, पुजारी बन बैठे व दूसरों को नीच,अछूत और शूद्र बताकर अपने अग्रजन्मा बन गये। ऋषि दयानन्द जातियों के भेदभाव को नष्ट करना चाहते थे। अत: उन्होने
धार्मिक एकता प्रदान करने के लिए अन्य सब मतों के स्थान पर वैदिक धर्म की स्थापना की।


आदि सृष्टि अर्थात सत्ययुग (सतयुग) में एक ही ब्राह्मण वर्ण था। स्वयंमू मनु से प्रचेतस दक्ष प्रजापति तक का सम्पूर्ण काल सत्ययुग कहलाता है। जिसमें केवल एक ही वर्ण मिलता है। सत्ययुग में ब्राह्मण ही राज्य करते थे, उन्हें प्रजापति की उपाधि से विभूषित किया जाता था क्योंकि वे राज्य की प्रजा के पालन का उत्तरदायित्व निभाते थे, जैसे विश्वकर्मा प्रजापति, कश्यप प्रजापति, दक्ष प्रजापति आदि। स्वयंभू ब्रह्मा के पौत्र सातवें मनु ने जब आर्य धर्म चलाया तब वे ही सर्वप्रथम ब्राह्मण से क्षत्रिय बने तथा प्रजापत्ति के स्थान पर सम्राट कहलाये गए। यह प्रमाणिक है कि इस सतयुग के समस्त काल में एक ही ब्राह्मण वर्ण था।


महाभारत शान्तिपर्व के श्लोक 10 में भृगु ऋषि ने कहा है-हे भारद्वाज! पहले ब्रह्मा ने जगत् रचा तब सब ब्राह्मण ही थे, बाद में जैसे जैसे कर्म किये उस कर्म के अनुसार जातियां बनती चली गयी। बृहदारण्यक उपनिषद् के मन्त्र 11 में उल्लेख मिलता है कि क्षत्रिय जाति की उत्पत्ति से पूर्व ब्राह्मण एक ही जाति थी। महाभारत शान्तिपर्व अ. 56 श्लोक 23, 24 के अनुसार जल से अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय तथा पत्थर से लोहा उत्पन्न हुआ। इस प्रकार उक्त प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सत्ययुग में एक ही ब्राह्मण वर्ण हुआ करता, सतयुग के बाद ही अन्य वर्णों की रचना की गयी।


यह भी विचारणीय है कि महाभारत आदि सब प्रकार के ग्रन्थों में ब्राह्मण, विप्र इत्यादि शब्दों का प्रयोग पढ़ने एवं देखने को मिलता हैं परन्तु किसी भी ऋषि के साथ गौड, सारस्वत, जांगिड़,चितपावन, ककूहास, पारीक, पांचाल,भूमिहार, कान्यकुब्ज, मैथिल आदि शब्द पढ़ने एवं देखने को नहीं मिलते।उल्लेखनीय है कि सभी ब्राह्मणों की उत्पत्ति सप्तर्षियों से हुई है। वर्तमान काल में ब्राह्मणों की लगभग 2000 प्रकार की भिन्न-भिन्न जातियां भारतवर्ष में विद्यमान हैं और इन 2000 प्रकार के ब्राह्मणों की नामावली आदि गौड़ ब्राह्मणोत्पत्ति भाग-3 में उपलब्ध है, यह पुस्तक अखिल भारतीय जांगिड ब्राह्मण महासभा कार्यालय, दिल्ली में हैं। इसी प्रकार क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों की सहस्त्रों जातियों की नामावली देखने में आती है।

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अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब प्राचीन काल में केवल 4 जातियां अर्थात 4 वर्ण थे तो आज यह सहस्त्रों जातियां कैसे और क्यों बन गई? यह सब स्वार्थी ब्राह्मणों की मानसिक ऊपज का फल है। यह बात इस ढंग से सहज ही में समझी जा सकती है कि जिस प्रकार भारत वर्ष में अपना राज्य स्थिर रखने के लिए अंग्रेजी शासन में हिन्दू, मुसलमान, सिख, इसाई, पारसी और दलित जातियों को अलग-अलग अधिकार देकर सामाजिक संगठन को छिन्न-भिन्न कर दिया गया, ठीक उसी प्रकार नामधारी ब्राह्मणों ने सब जातियों की उत्पत्ति अप्रामाणिक ढंग से रच डाली।ऊंच-नीच और छूत-अछूत का मतभेद फैलाकर आपस में ईर्ष्या -द्वेष इस ढंग से फैला दिया कि हिन्दू समाज कभी भी अपना संगठन कायम न कर सके। यदि ऐसा न किया जाता तो स्वार्थी ब्राह्मणों की पुरोहिताई और प्रतिष्ठा कदापि स्थिर नहीं रह सकती थी यदि वेद मतानुसार ब्राह्मण माने जाते तो आज निरक्षर भट्टाचार्य पुरोहित, भूमिहार, सनाढ्य,गौड़, पंडे और पुजारी जो बड़े आनन्द लूट रहे हैं,यह सब शूद्रों की गणना में शामिल किए जाते।


वेदों के अतिरिक्त प्राचीन धर्मग्रन्थ, इतिहास और पुराण तक इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्राचीनकाल में विज्ञानवेत्ताओं और शिल्प विद्या में निपुण लोगों का बड़ा ऊंचा आसन था।जब स्वार्थियों से यह सहन न हो सका तो उन्होनें शिल्पी ब्राह्मणों को गिराने के लिए शब्दों का गलत अर्थ निकालकर गलत रचनाएं रच डाली तथा शिल्प कर्म और शिल्पियों को शूद्र अर्थात वर्णसंकर ठहराने की गलत चेष्ठा भी की। भविष्यपुराण के ब्राह्मण् अध्याय 16 में इस प्रकार लिखा गया है-

वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित…..


विश्वामित्रस्तु राजेन्द्र ब्राह्मणत्वनगीशया तपश्चकार विपुल संतापाय दिवौकसाम ब्राह्मणत्वं न लोभे असो तेथे विघ्नाननेकशः।।56।।
ततस्तु नियमात्तायां तिथिनों प्रवरा तिथिः उपोलिता बहुविद्या ज्ञात्वा ब्रह्मप्रियां तिथिम् ।ततो देवो ददौ बजा विश्वामित्राय धीमते।।57।।
हेच तेन बेहेन ब्रह्मणत्वं सुदुर्लभम् तिथिनां प्रवरा होता तिथीनामुत्तामा तिथिः क्षत्रिय वैश्यो व ब्रह्मत्वमवाप्नुयुः ।। 58।।


अर्थात् हे राजेन्द्र! विश्वामित्र ने तो ब्राह्मण पद की प्राप्ति की इच्छा से देवताओं को संताप देने के लिए घोर तप किया किन्तु ब्राह्मण पद को नहीं पा सका, उसे अनेक विघ्न भोगने पड़े। फिर उन तिथियों में से उत्तम तिथि प्रतिपदा को ब्रह्मा की प्यारी तिथि जानकर प्रतिपदा को उपवास किया अर्थात उस दिन व्रत किया । तब ब्रह्मा ने बुद्धिमान विश्वामित्र को उसी जन्म से उसी देह में दुलर्भ ब्राह्मण पद प्रदान किया। यह तिथि सब तिथियों में श्रेष्ठ है इससे क्षत्रिय तथा वैश्य और शूद्र तक ब्राह्मण पद को प्राप्त हो सकते हैं।भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व खंड 1 अध्याय 33 में श्लोक 3 से 24 तक एक ऐतिहासिक कथा का वर्णन मिलता है कि त्रिपाठी एक ब्राह्मण था उसकी पत्नी का नाम कामिनी था। एक समय की बात है कि वह त्रिपाठी नामक ब्राह्मण कथा बाँचने के लिए बहुत दूर किसी दूसरे गांव में चला गया। वह त्रिपाठी नामक ब्राह्मण एक महीने तक वहां कथा कहता रहा जिसके कारण वह घर नहीं लौट सका।


घर पर उस त्रिपाठी ब्राह्मण की पत्नी कामिनी अकेली थी, जिसको कामदेव ने सताया तो त्रिपाठी नामक ब्राह्मण की पत्नी कामिनी ने लकड़ी बेचने वाले निषाद को रूपये पैसे का लालच देकर उसके साथ भोग विलास किया। जिससे कामिनी ब्राह्मणी को गर्भ ठहर गया और दस महीने बाद पुत्र पैदा हुआ। कामिनी के पति त्रिपाठी जी ने पुत्र का जातकर्म संस्कार किया और उसका नाम व्याधकर्मा रखा गया। उसी कामिनी ब्राह्मणी का पुत्र व्याध कर्मा एक दिन राजा विक्रमादित्य के यज्ञ का आचार्य बना जिसके बारे में निम्नलिखित प्रमाण उपलब्ध है-


विक्रमादित्यराज्ये तु द्विनः कश्चिदभवद् भुवि। व्याधकीत विस्मातो ब्राह्मण्यां शूद्धतोअभवत्।।3।। विक्रमादित्य भूगस्य यज्ञाचाय बभूव ह।। 24।।


अर्थात् राजा विक्रमादित्य के राज्य में कोई ब्राह्मण हुआ है, जो व्याधकर्मा नाम से प्रसिद्ध हुआ है तथा वह बाह्मणी माता में शूद्र पिता से पैदा हुआ था। वही लकड़ी बेचने वाले निषाद का पुत्र ब्राह्मण राजा विक्रमादित्य के यज्ञ में आचार्य बना। जन्माभिमानी नामवारी अकड़वारी ब्राह्मण देखें कि उनके पुराण कितने स्पष्ट शब्दों में बता रहे हैं कि शूद्र पिता से ब्राह्मणी माता में पैदा होने वाला पुत्र आचार्य बन गया। उस समय में हिन्दू धर्मग्रन्थों के रचने वाले विद्वानों ने उस वर्णसंकर ब्राह्मण को यज्ञ का आचार्य बनने से क्यों नहीं रोका? उचित तो यह होता कि उस त्रिपाठी ब्राह्मण के पुत्र को अवैध संतान का नाम देकर उसे आचार्य पद पर आसीन होने से रोका जाता और त्रिपाठी ब्राह्मण तथा उसकी पत्नी कामिनी दोनों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता। सत्य बात और वेद मत यही बताते हैं कि भारत वर्ष में चार वर्ण मुख्य हैं और यह अनेक जातियां कपोल कल्पित है और अप्रमाणिक भी हैं। गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार ही प्राचीन काल में आचार्य द्वारा वर्ण नियत होता था। पुराण, वाल्मीकि रामायण और महाभारत आदि धर्म ग्रन्थों से भी यही सिद्ध होता है कि गुण कर्मानुसार ही वर्ण व्यवस्था वेद मत है और जन्म से जाति मानना स्वार्थियों का मिथ्या जाल फैलाया हुआ है।


जन्म से जाति मानने वाले गोत्र प्रवर ऋषि जिनको नामधारी ब्राह्मण अपना पूर्व पुरुष मानते हैं पुराणों के अनुसार उनमें नीच वर्ण योनी से पैदा हुए सिद्ध होते हैं जिनके प्रमाण मातंग ऋषि (पिता नाई व माता ब्राह्मणी) एवं विश्वामित्र (पिता क्षत्रिय व माता ब्राह्मणी) आदि उपलब्ध हैं। इस पर भी जन्माभिमानी ब्राह्मण होने का राग अलापने वाले ब्राह्मण शुद्ध माता-पिता की संतान सिद्ध नहीं होते।जांगिड़ ब्राह्मण जन्म और कर्म दोनों से खरे ब्राह्मण सिद्ध होते हैं क्योंकि महाभारत में स्पष्ट कहा गया है कि अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और मृगु ब्राह्मणों में मूल गोत्र चार हैं और इन चार गोत्रों के अतिरिक्त बाकी गोत्रों की रचना बाद में की गई है। यह चारों ही ब्राह्मण गोत्रकार ऋषि वेदाचार्य एवं शिल्पाचार्य हुए हैं। गौड़, कान्यकुब्ज, मैथिल, द्राविड़,भूमिहार आदि अनेक ब्राह्मण इन शब्दों को वेदों में नहीं दिखा सकते परन्तु जांगिड़ ब्राह्मण अपनी उत्पत्ति वेदों से सिद्ध कर सकते हैं। ब्राह्मणों के मूल गोत्र चार होने का प्रमाण महाभारत महाकाव्य के शांति पर्व में इस प्रकार उपलब्ध है-

वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित…..


उत्पाद्य पुत्रान्मुनयों नृपते यत्र च स्वनैव तपसा तेशामृशत्वं विबधुः ।। 13 ।।
पितामहश्च मे पर्व यच कपमः वेदतातश्च कृपश्च काक्षीवत् कमठावयः ।।14।।
यवक्रीतश्च नृपते द्रोणाश्च वदतां वरः। आगो बत्तश्च द्रुपदो मात्म एव च।। 15।।
एते स्वोषकृति प्राप्ता वैदेह स्तमसः श्रयात् प्रतिष्ठाता वेदविदी बगने तपसेन हि ।।16।।
मूल गोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव। अंगिरा कवचैव वशिष्ठो भृगु रेव च।।17।।
कर्मतानि गोत्राणि सम्पन्नानि पार्थिव ।नामधेयानि तपसा तानि गृहीतानि सत्ताम् ।। 18।।


अर्थात मुनि लोगों ने जहां कहीं से पुत्रों को पैदा करके हे राजन! उनको अपने तप से फिर से ऋषि बना दिया। मेरा दादा वशिष्ठ, ऋष्यश्रृंग, कश्यप,दातांडव कृत, काक्षीवाद कम,यमकृत, द्रोणाचार्य, आयु, मतंग, दत्त, द्रुपद, नात्य आदि। हे जनक ! यह सब तप के आश्रय से अपनी पदवी को प्राप्त हुए। वेद के जानने से प्रतिष्ठित हुए दम तथा तप से उन्नति कर गए। हे राजन! ब्राह्मणों के मूल गोत्र चार ही पैदा हुए हैं, अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु । हे राजन! अन्य गोत्र कर्म से पैदा हुए हैं। सत्य पुरुषों के तप के कारण नाम ग्रहण कर लिए गए।


महाभारत महाकाव्य के इस कथन से यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मणों के असल गोत्र चार ही हैं जिनकी संतान निर्विवाद (खरे) ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी है, शेष अन्य सब महापुरुषों के तप के प्रभाव से बने है। ऋषि अंगिरा जिनका दूसरा नाम जांगिड़ है और जिसकी संतान जांगिड़ ब्राह्मण / शिल्पज्ञ ब्राह्मण खरे ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार भृगु कश्यप और वशिष्ठ कुलोत्पन्न भारत वर्ष में अनेक शिल्पी ब्राह्मण पाए जाते हैं जैसे ककुहास पांचाल, दैवज्ञ आदि जो अपने को मनु मय, त्वष्टा इत्यादि के वंशज कहते हैं, यह सब इन्हीं गोत्रों के अन्तर्गत सम्मिलित किए जाते हैं। यह सर्वविदित है कि भारत वर्ष में जाति-पाति का कलंक अवैदिक काल से चला आ रहा है। वैदिक काल में जाति गुण व कर्मानुसार मानी जाती थी। ब्राह्मण के घर में गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य, शूद भी होते थे। इसी तरह शूद्र के घर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भी होते थे। चारों वर्णों में से कौन क्या बनता था, ऐसा बनाने का श्रेय गुरु को ही था, जैसे आज पद का निर्धारण जाति आधार पर नहीं होकर योग्यता के आधार पर होता है।

मनु ऋषि के अनुसार ‘जन्मना जायते शूद्र संस्कारात् द्विज उच्यते’ अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं, किन्तु गुरु के संस्कारों से द्विज बनता है। वर्तमान युग में वर्ण का पर्यायवाची शब्द जाति मान लिया गया है, जो कि गलत है।परन्तु विनाशकारी महाभारत युद्ध के बाद ब्रह्मणों का पतन हो जाने के परिणाम स्वरूप यदि व्यक्ति ब्राह्मण जाति में जन्मा है तो ब्राह्मण ही माना जाता है, भले ही शारीरिक, मानसिक योग्यता के अभाव में गधे शब्द का ग लिखना भी नहीं आता हो फिर भी महाराज जी पण्डित जी से सम्बोधित किया जाता है। ऐसे ही क्षत्रिय जाति में जन्मा व्यक्ति साहस, शौर्य के अभाव में नाम हिम्मतसिंह,शेरसिंह,वीर सिंह के सामने अकस्मात बिल्ली के आ जाने पर शरीर पीला हो जाता है। ऐसे ही वैश्य जाति में जन्म सेठजी शाहजी कहलाने पर प्रायः सोलह सौ के हजार करता हो और शूद्र जाति में जन्मा व्यक्ति सभी प्रकार की योग्यता होने पर भी उसके साथ छुआछूत का बर्ताव करते है, और मानसिक रुग्णता का परिचय देते है जैसे रविदास विश्व का महान सन्त शिरोमणि एवं भक्त, सन्त कबीरदास महानतम युगदृष्टा दार्शनिक, समाज सुधारक, यथार्थवादी बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर अर्थशास्त्र का ज्ञाता, भारतीय संविधान का निर्माता आदि योग्यता होने पर भी क्रमश: चमार, जुलाहा, महार जाति से समझे जाने निश्चित हैं। चारों वर्णों में श्रेष्ठ कहे जाने वाले ब्राह्मण ने ही अपने स्वार्थपूर्ति एवं जीविकार्थ भारत में जात-पात, छुआछूत, ऊंच-नीच की अनैतिक रचना कर मानवीयता को कलंकित किया। इस नारकीय जीवन से छुटकारा पाने हेतु तथा सम्मानपूर्वक जीवन जीने की लालसा में मुगलकाल में लाखों की संख्या में हिन्दू से मुसलमान बन गये। जाति और धर्म के मामले में गीता के अध्याय 18 के श्लोक में लिखा है-


श्रेयान्त्वयो विगुणः परधर्मात्स्वनुठितान्। स्वभावनियत कर्म कुर्वत्राप्नाति किल्विशम।।


वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित…..अर्थात् जो व्यक्ति जिस धर्म में आता है वह उसी धर्म में रहकर ही सुख पाता है। अपना धर्म निकृष्ट होने पर भी यदि वह इसे परिवर्तन में लाता है तो वह कष्ट पाता है। अतः अज्ञानता और स्वार्थ के कारण गीता के प्रमाण को ब्राह्मणों ने जोड़ने की अपेक्षा तोड़ने का ही कार्य किया है। आचार्य चाणक्य के अनुसार-


अयुक्तं स्वामिनो गुक्तं नीचस्य दूशणम अमृत ने मृत्युर्विशं षंकर भूराणम।।


अर्थात् समर्थ व्यक्ति अनुचित कार्य को भी उचित और नीच (शूद्र) व्यक्ति उचित कार्य को भी अनुचित बना देता है, जैसे राहू के लिए अमृत भी मौत का कारण बना और शिव के लिए जहर भी आभूषण बना। आचार्य चाणक्य के कथन अनुसार ब्राह्मण शूद्र सिद्ध हुए। हमारे धर्म ग्रन्थों, शास्त्रों एवं प्राचीन भारत के इतिहास को पढ़ने से मालूम होता है कि भारत वर्ष में विनाशकारी महाभारत युद्ध के पश्चात जब से ब्राह्मणों की कल्पित एवं झूठी पेशी / धन्धों पर आधारित जाति-पाति अथवा वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात हुआ है, देश व हिन्दू समाज का पतन हुआ है। नामधारी ब्राह्मणों की झूठी शान व जात-पात के कुछ उदाहरण नीचे दिये गए हैं-


तेरहवीं सदी में ऋतन्जु नाम के अन्य जाति के व्यक्ति ने कश्मीर सम्राट राजा सहदेव के दरबार में अपनी योग्यता के अनुसार ऊंचा पद प्राप्त किया। ऋतन् हिन्दू धर्म के प्रति श्रद्धा प्रेम होने से हिन्दू धर्म ग्रहण करने का इच्छुक था। उक्त युवक हिन्दू धर्मशास्त्रों के साथ-साथ ब्राह्मणों का सत्कार भी करता था किन्तु ब्राह्मणों ने गीता के श्लोक का हवाला देते हुए ऋतन्जु नामक नवयुवक को हिन्दू बनाने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार ऋत नामक युवक निराश और हताश हो गया और उसने निश्चय किया कि प्रातःकाल जिस व्यक्ति को भी सामने पाऊंगा उसी व्यक्ति के धर्म को अपना लूंगा। जब यह समाचार फकीर बुल्लेशाह को मालूम हुआ तो वह प्रातः काल जल्दी उठकर उस ऋतन्जु नामक युवक के घर के सामने पहुंच गया और ऋतन्जु को मुसलमान बनाया। फिर उसी ऋत युवक ने बदले की भावना के वशीभूत होकर अपनी शक्ति के बल पर कश्मीर में इस्लाम धर्म फैलाया तथा अपने पुत्र शाहमीर द्वारा विद्रोह फैला दिया। लेकिन अपनी इज्जत को बचाने की खातिर सहदेव की पुत्रवधू ने अपने पेट में छुरा घोंप कर आत्महत्या कर ली। ऋतन्जु और उसके पुत्र शाहमीर को इस्लाम धर्म का इतना जूनून चढ़ा कि जिन ब्राह्मणों ने हिन्दू बनाने से इन्कार कर दिया था उन्हें बोरियों में बांध कर झेलम नदी में बहा दिया। इस प्रकार से ब्राह्मणों की झूठी व ऊंच-नीच की मूर्खता का स्वाद ऋतन्जु नामक युवक तथा उसके पुत्र शाहमीर ने असंख्य निर्दोष ब्राह्मणों को निर्दयी मौत देकर अपने आत्म अपमान का बदला लिया

भारत वर्ष के महान् सन्त कबीर दास के शब्दों में- पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पण्डित भया न कोई। ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होई।।


प्रेम के महान शत्रु ब्राह्मण पण्डितों की एक और घटना इस प्रकार है। प्राचीन बंगाल प्रान्त के ढाका शहर में ब्राह्मण जाति का एक बहुत ही सुन्दर व सुडौल नवयुवक रहता था। वह युवक नवाब के भवन के पास से प्रतिदिन निकलकर नदी पर जाता था। प्रतिदिन नवाब की इकलौती पुत्री की नजर उस ब्राह्मण युवक पर पड़ती थी। नवाब की लड़की ब्राह्मण युवक पर आसक्त हो गयी। धीरे-धीरे नवाब की बेटी का प्रेम ब्राह्मण युवक के प्रति इतना बढ़ गया, कि वह उसकी दीवानी हो गयी। बेटी का ब्राह्मण युवक के प्रति प्रेम देखकर नवाब ने अपनी बेटी को हिन्दू धर्म अपनाकर उस ब्राह्मण युवक से विवाह करने का निश्चय कर लिया। किन्तु उस ब्राह्मण युवक ने मुस्लिम कन्या से विवाह करने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो नवाब ने कोधित होकर जल्लादों को उस ब्राह्मण युवक का कत्ल कर देने का आदेश दिया। जब जल्लाद ने ब्राह्मण युवक का वध करने के लिए तलवार उठाई, तो नवाब की पुत्री उसी समय दौड़ी आयी और चिल्लाकर जोर से कहने लगी, मेरे प्यारे प्रीतम को न मारा जाये, इसके स्थान पर पहले मेरा सिर कलम कर दिया जाये।वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित…..

मैं इसके बगैर जी नहीं सकूँगी। इस दृश्य को देखकर ब्राह्मण युवक का दिल भर आया और उसने उसी समय नवाब की बेटी के सच्चे प्रेम के आगे सिर झुका दिया। वह ब्राह्मण युवक उस मुस्लिम कन्या से विवाह के लिए तैयार हो गया, किन्तु ब्राह्मण नवयुवक के माता-पिता ने इस कार्य को हिन्दू धर्म के विरुद्ध बताकर बेटे से सम्बन्ध तोड़ लिया। फिर दोनों पति-पत्नि जगन्नाथ पुरी मंदिर गए. जहाँ पण्डे-पुजारियों ने उन्हें मन्दिर में जाने से रोक दिया तथा लात-घूसों से पीट-पीट कर उन्हें बेसुध कर दिया। तत्पश्चात् दोनों ने मुस्लिम रीति से निकाह कर लिया। आगे चलकर इतिहास में यही ब्राह्मण युवक “काला पहाड़” नाम से विख्यात हुआ। परिणामस्वरूप बदले की भावना से काला पहाड़ नामक ब्राह्मण युवक ने अनगिनत ब्राह्मणों को चुन-चुन कर मार दिया तथा कोणार्क के प्रसिद्ध सूर्य मन्दिर के साथ-साथ अनेकों मन्दिरों को भी खण्डित करने का कार्य किया।

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वर्ण का निर्धारण जन्मना नहीं कर्मणा उचित…..


चौ.लौटनराम निषाद
(लेखक सामाजिक न्याय चिन्तक व भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)