अच्छी उपज के लिए करें बीजोपचार

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अच्छी उपज के लिए बीजोपचार करें – फसल उत्पादकता बढ़ाने के लिए उत्तम बीज का होना अनिवार्य है, उत्तम बीजों के चुनाव के बाद उनका उचित बीजोपचार भी जरूरी है क्योंकि बहुत से रोग बीजों से फैलते है। कई बार किसान जल्दबाजी में बीज का उपचार किए बिना ही बुवाई कर देते है एवं नर्सरी तैयार कर लेते हैं, जिससे फसल में प्रारंभिक अवस्था में ही कई तरह के रोग एवं कीटों का प्रकोप दिखने लगता है। अत: रोग जनकों, कीटों एवं असामान्य परिस्थितियों से बीज को बचाने के लिए बीजोपचार एक महत्वपूर्ण उपाय है।

बीजोपचार की विधियाँ

नमक के घोल से उपचार – पानी में नमक का 2 प्रतिशत का घोल तैयार करें, इसके लिए 20 ग्राम नमक को एक लीटर पानी में अच्छी तरह मिलाएँ। इनमें बुवाई के लिए काम में आने वाले बीजों को डालकर हिलाएँ। हल्के एवं रोगी बीज इस घोल में तैरने लगेंगे। इन्हे निथार कर अलग कर दें और पैंदे में बैठे बीजों को साफ पानी से धोकर सुखा लें फिर फफूंदनाशक, कीटनाशक एवं जीवाणु कल्चर से उपचारित करके बोयें।

ताप का उपचार – कुछ रोगों के जीवाणु जो बीज के अन्दर रहते हैं, इनकी रोकथाम के लिए बीजों को मई- जून के महिनों में जब दिन का तापमान 40 से 50 सेन्टीग्रेड के मध्य होता है तक बीजों को 6 से 7 घण्टे तक पक्के फर्श पर धूप लगा दें जैसे गेहूँ के कंडुआ रोग में।

फफूंदनाशकदवाओं से उपचार – बीजों को फफूंदनाशक दवाओं से उपचारित करने के लिए इन्हें पाउडर या तरल अवस्था में उपयोग कर सकते हैं। इसके लिए फफूंदनाशी बीटावैक्स, कार्बेन्डाजिम या बाविस्टीन इत्यादि की 2 से 2.5 ग्राम/कि.ग्राम बीज की दर से उपचारित करते हैं।

दवाओं से उपचार – मृदा में कृमि, दीमक तथा अन्य कीट पौधों को क्षति पहुँचाते हैं। बीज को कीटनाशकों से उपचारित कर बुवाई करने से बीज तथा तरूण पौधों को कीटों से मुक्त रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त संसाधित बीज को भंण्डारण के दौरान सुरक्षित रखा जा सकता है। प्रारंभिक अवस्था में रसचूसक कीटों के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड या थायोमेथोक्जाम कीटनाशक 2-4 मि.ली. प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके बुबाई करनी चाहिए, कीटनाशी की मात्रा बीज दर तथा आकार पर निर्भर करती है।

जीवाणु कल्चर से उपचार – विभिन्न जीवाणु कल्चर से बीजोपचार कर पौधों के लिये मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढ़ाया जाता है। सामान्यतया उपयोग में आने वाले जीवाणु कल्चर निम्न हैं –

राइजोबियम जीवाणु – इन जीवाणुओं का दलहनी फसलों के साथ प्राकृतिक सहजीवता का सम्बन्ध होता है। ये दलहनी फसलों की जड़ों में रहकर ग्रथियां बनाते हंै एवं नत्रजन स्थिर करते हैं।

जीवाणु कल्चर से बीजोपचार- जीवाणु कल्चर के बीजोपचार हेतु वाहक आधारित जीवाणु कल्चर (200 ग्राम) को गुड़ के 10 प्रतिशत घोल (एक लीटर पानी में 100 ग्राम गुड़) में मिलाया जाता है और इस घोल को एक एकड़ के बीजों की मात्रा पर छिड़क कर मिलाया जाता है। ताकि बीजों पर वाहक की परत बन जाये। इन बीजों को छाया में सुखाकर तुरन्त बुवाई करनी चाहिए।
नोट: फसल में अगर कीटनाशी, फफूंदनाशी और जीवाणु कल्चर का उपयोग बीजोपचार द्वारा करना हो तो सर्वप्रथम फफूंदनाशी के उपचार के बाद क्रमश: कीटनाशी व जीवाणु कल्चर का उपयोग करें।

एजोटोबेक्टर जीवाणु- ये जीवाणु गैर दलहनी फसलों जैसे गेहूँ, जौ, मक्का, ज्वार, बाजरा आदि के लिये उपयुक्त हैं।

फास्फोरस विलेयकारी जीवाणु- ये जीवाणु मृदा में उपस्थित अविलेय, स्थिर तथा अप्राप्त फास्फोरस की विलेयता को बढ़ाकर उसे पौधों को उपलब्ध कराने में सहायक होते हैं। इसका उपयोग लगभग सभी फसलों में हो सकता है।

बीज उपचार करते समय सावधानिया –

  • जैव उर्वरक हमेशा विश्वासनीय स्त्रोत से ही खरीदें।
  • राइजोबियम कल्चर जैव उर्वरक हमेशा फसल विशेष पर ही प्रयोग करें।
  • जैव उर्वरक लेते समय पैकेट पर अंकित निर्माण एवं प्रयोग की अंतिम तिथि अवश्य देखें।
  • उपचारित बीज को तुरंत बोने हेतु उपयोग करना चाहिए एवं हमेशा ताजे कल्चर का प्रयोग करें।
  • यदि बोने के बाद उपचारित बीज की मात्रा बच जाए तो उसे पशुओं एवं बच्चों की पहुंच से दूर रखना चाहिए।
  • फफूंद नाशक, कीटनाशक एवं अन्य दवाओं के खाली डिब्बे या पैकेट नष्ट कर दें।

खाद एवं उर्वरकों का उपयोग-

गोबर की खाद या कम्पोस्ट- धान की फसल में 5 से 10 टन/ हेक्टेयर तक अच्छी सड़ी गोबर खाद या कम्पोस्ट का उपयोग करने से महंगे उर्वरकों के उपयोग में बचत की जा सकती है। हर वर्ष इसकी पर्याप्त उपलब्धता न होने पर कम से कम एक वर्ष के अंतर से इसका उपयोग करना बहुत लाभप्रद होता है।

हरी खाद का उपयोग-
रोपाई वाली धान में हरी खात के उपयोग में सरलता होती है, क्योंकि मचौआ करते समय इसे मिट्टी में आसानी से बिना अतिरिक्त व्यय के मिलाया जा सकता है। हरी खाद के लिए सनई का लगभग 25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रोपाई के एक महीना पहले बोना चाहिए। लगभग एक महीने की खड़ी सनई की फसल को खेत में मचौआ करते समय मिला देना चाहिए। यह 3-4 दिनों में सड़ जाती है। ऐसा करने से लगभग 50-60 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर उर्वरकों की बचत होगी।

जैव उर्वरकों का उपयोग-
कतारों की बोनी वाली धान में 500 ग्राम प्रति हेक्टेयर प्रत्येक एजेटोवेक्टर और पीएसबी जीवाणु उर्वरक का उपयोग करने से लगभग 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नत्रजन और स्फुर उर्वरक बचाए जा सकते हैं। इन दोनों जीवाणु उर्वरकों को 50 किलो ग्राम/ हेक्टेयर सूखी सड़ी हुई गोबर खाद में मिलाकर बुवाई करते समय कूड़ों में डालने से इनका उचित लाभ मिलता है। सीधी बुवाई वाली धान में उगने के 20 दिनों तथा रोपाई के 20 दिनों की अवस्था में 15 किलो ग्राम/ हेक्टेयर हरी नीली काई का भुरकाव करने से लगभग 20 किलोग्राम/ हेक्टेयर नत्रजन उर्वरक की बचत की जा सकती है। ध्यान रहे काई का भुरकाव करते समय खेत में पर्याप्त नमी या हल्की नमी की सतह रहनी चाहिए।

उर्वरकों का उपयोग-
धान की फसल में उर्वरकों का उपयोग बोई जाने वाली प्रजाति के अनुसार करना चाहिए जो निम्नतालिका में दर्शाया गया है। उपरोक्त मात्रा प्रयोगों के परिणाम पर आधारित है, किन्तु भूमि परीक्षण द्वारा उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण वांछित उत्पादन के लिए किया जाना लाभप्रद होगा।

उर्वरक देने का समय –
नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा आधार खाद के रूप में बोनी/रोपाई के पूर्व खेत तैयार करते समय अथवा कीचड़ मचाते समय भुरककर मिट्टी में मिलायें शेष नत्रजन की 1/4 मात्रा कंसे फूटने की अवस्था में (रोपाई के 20 दिन बाद) तथा 1/4 मात्रा गभोट की अवस्था में देना चाहिए। जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में खेत की तैयारी करते समय (बोनी पूर्व) जिंक सल्फेट 25 किलो/ हेक्टेयर की दर से 3 साल में एक बार प्रयोग करें। गंधक की कमी वाले क्षेत्रों में गंधक युक्त उर्वरकों (जैसे सिंगल सुपर फास्फेट आदि) का प्रयोग करें।