आजीवन-सेवा-कार्य में मेरा विश्वास है

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काशी-विद्यापीठ ,वाराणसी——–हरिजन-सेवकों को सलाह——–

शिवकुमार

[काशी-विद्यापीठ में 28-29 जुलाई, 1934 को अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ की बैठक हुई थी। कार्रवाई के अन्त में 29 जुलाई को गांधीजी ने करीब डेढ़ घण्टे तक संघ के सदस्यों से जो बातचीत की थी, उसका सारममं संक्षेप में नीचे दिया जाता है। ]

ट्रस्ट, न कि जन-तन्त्र——————–

दो प्रश्न हैं, जिनके सम्बन्ध में कि मुझे आप लोगों से कुछ कहना है—एक तो यह है, कि संघ का संगठन किस प्रकार किया जाय, और दूसरा है एक ऐसी शिक्षण संस्था स्थापित करने के सम्बन्ध का, जिसमें समय-सेवी अथवा आजीवन सदस्य हरिजन सेवा की शिक्षा पा सकें। मैं जानता हूं कि आप लोगों की आमतौर से यह इच्छा है, कि जन-तन्त्र अर्थात् वोट, चुनाव इत्यादि का रूप हमारे संघ में लाया जाय। पहले मैं कुछ दुविधा में पड़ गया था, पर यह नौ महीने का प्रवास करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं, कि चुनाव या जनतन्त्र जैसी किसी चीज के लिए हमारे संघ में स्थान नहीं है। हमारी संस्था तो एक भिन्न ही प्रकार की है। मामूली तरह से वह कोई लोक-संस्था नहीं है। हम तो एक प्रकार के ट्रस्टी हैं, जिन्हें हमने अपने आप नियुक्त कर रखा है। पैसा महज ट्रस्टी के रूप में हम अपने पास रखते हैं, और केवल हरिजनों के हितार्थ उसका उपयोग करते हैं और इस ढंग से कि वह सीधा हरिजनों की ही जेब में जाय। हमारे संघ का संगठन इस विचार को सामने रखकर हुआ है, कि जिन भाइयों को हमने सदियों से तुच्छ मान रखा है, उनके प्रति अब अपना कर्त्तव्यपालन करें। 1932 के सितम्बर मास में, जब मेरा उपवास चल रहा था, बम्बई में मालवीय जी महाराज की अध्यक्षता में हिन्दू प्रतिनिधियों की जो विशाल सभा हुई थी उसमें हरिजनों के प्रति कर्तव्य-पालन की प्रतिज्ञा की गई थी, यह तो आप जानते ही हैं। उस प्रतिज्ञा को अमल में लाने के लिए ही हमारे इस संघ का निर्माण हुआ है। हरिजन कोष में, हम मानते हैं, कि लोग प्रायश्चित्त की भावना से दान देते हैं। तब हमारा यही एकमात्र कर्तव्य है, कि इस फण्ड का उपयोग हम हरिजनों के ही हितार्थ करें। जनतन्त्रात्मक संस्था के चलाने में पैसा भी खर्च होगा और काम में देरी भी होगी। हमारा उद्देश्य तो यह है कि हम कम-से-कम खर्च और कम-से-कम समय में इस फण्ड को हरिजन हितकारी कार्यों में लगा दें। हरिजनों और अपने बीच हम हस्तक्षेप करनेवाला कोई मध्यस्थ नहीं चाहते; हम महज ट्रस्टी हैं और ट्रस्टी की सारी जिम्मेवारी हमारे ऊपर है। कुछ लोग कहते हैं, कि प्रबन्ध कार्य में पैसा देनेवालों की भी आवाज होनी चाहिए। मेरी राय में वे भूलते हैं। मेरी दृष्टि में तो एक पाई देनेवाला और दस से लेकर पचास हजार रुपये तक देनेवाले, जैसे घनश्यामदास बिड़ला, दोनों ही एक समान दाता हैं। घनश्यामदास के दस हजार रुपयों से भी उस एक पाई की कीमत स्यात अधिक हो। उड़ीसा में मैंने खुद अपनी आंखों देखा है, कि वहां के गरीब आदमी किस प्रकार अपने फटे-पुराने चीथड़ों की गांठ में बड़े जतन से बँधे हुए पैसे-पाई को प्रेम से हमारी झोली में डालते थे। हजारों रुपयों की अपेक्षा चाहे वे कितनी ही राजी-खुशी से लोगों ने दिये हों, मुझे तो गरीब की गाँट की वह कौड़ी ही पाकर अधिक आशा और प्रसन्नता हुई है। आत्मशुद्धि के इस यज्ञ में गरीब की कौड़ी के बिना हजारों की थैलियाँ किसी अर्थ की नहीं लेकिन आपके उस जन-तन्त्र में उन हजारों गरीबों को तो वोट मिलेगा नहीं। प्रबन्ध में उन बेचारों की आवाज तो होगी नहीं। हम उनके नाम तक तो जानते नही। फिर भी हमारी उनके प्रति उतनी ही या उससे भी अधिक जवाबदेही है, जितनी कि हजारों की थैलियां भेंट करनेवाले बड़े-बड़े दानियों के प्रति हमारी तो यह एक दातव्य संस्था है, जिसका अस्तित्व प्रामाणिक और योग्य प्रवन्ध के ही ऊपर निर्भर करता है। अपने प्रबन्ध कार्य का अगर हमें अधिक-से-अधिक प्रभाव लोगों पर डालना

है, तो हमें अच्छे से अच्छे और ऊँचे दर्जे के प्रामाणिक कार्यकर्ता चुनने होंगे। बस, मुझे जो कहना था, कह चुका, अब आपको जो ठीक जचे वह करें। इस आन्दोलन को मैं विशुद्ध धार्मिक या नैतिक आन्दोलन मानता हूं। मेरे लिए तो यह शुद्ध सेवा और प्रायश्चित्त का ही आन्दोलन है। मैं नहीं जानता कि हरिजन कोष में पैसा देनेवाले लाखों लोग मेरी इस मान्यता से कहां तक सहमत होंगे। जहां तक मेरा सम्बन्ध है, मुझे यह स्पष्ट कर देना चाहिए, कि अस्पृश्यता को आश्रय देकर वर्षों से हम जो पाप करते चले आ रहे हैं, उसका प्रायश्चित्त करने के विचार को छोड़कर मेरे मन में कोई दूसरी बात नहीं है। इसलिए मेरे विचार में इस आन्दोलन में कोई राजनीतिक हेतु नहीं है। यह बात नहीं, कि इसके राजनीतिक परिणाम न होंगे, किन्तु उनके विषय में हम सोचें ही क्यों? हमारे कार्य का क्या फल होगा, इस पर विचार करने की हमें आवश्यकता नहीं। अगर हमने इस आन्दोलन का विशाल उद्देश्य सामने रखा, तो निश्चय ही इसका यह फल होगा, कि मुसलमानों, ईसाइयों तथा अन्य सम्प्रदायों के साथ हमारा प्रेम सम्बन्ध अत्यन्त शुद्ध हो जायगा। मैं चाहता हूं कि इस विचार को तो दिल से निकाल ही देना चाहिए, कि हमारा छ करोड़ गुण्डों की एक फौज तैयार करने का उद्देश्य है। इस प्रकार हिन्दूधर्म की रक्षा हर्गिज होने की नहीं। मेरा विश्वास है, कि अस्पृश्यता के अभिशाप से हिन्दूधर्म मुक्त हो गया, तो सारा संसार भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यह कोई छोटा-मोटा संकुचित दायरे का आन्दोलन नहीं है। मुझे उम्मीद है, कि हमारे इस युग का यह सबसे विशाल और व्यापक आन्दोलन है।

आजीवन सेवक——————

दूसरा प्रश्न अब इससे सरल है। आजीवन-सेवा-कार्य में मेरा विश्वास है। मैं तो ऐसे लगनदार सेवकों की टोह में हूं, जिनकी यही एकमात्र अभिलाषा हो कि हरिजन-सेवा में ही हम अपना तन, अपना मन और अपनी आत्मा लगा देंगे। अगर ऐसे कार्यकर्ता हमें दस हजार मिल जायें-मैं तो यहाँ तक कहूँगा, कि एक ही हजार मिल जायें तो हमारे इस सेवा कार्य के आश्चर्यकारी परिणाम होंगे। ऐसे कार्यकर्ताओं के लिए शिक्षण संस्था खोली जाय, यह विचार मुझे अच्छा लगता है। दक्षिण अफ्रीका में डरबन के पास पाइन टाउन में एक ट्रेपिस्ट आश्रम है। तीस साल से ऊपर हुआ जब मैंने यह आश्रम देखा था। मैंने वहां बड़ी कठिन साधना देखी। वहां कोई गोपनीय या लिपीपुती बात नहीं देखी। एक लम्बा-सा कमरा था, उसी में वे सब आश्रमवासी रहते थे। सबेरे 2 बजे वे लोग उठते थे। बिल्कुल निरामिष भोजन करते और मौनव्रत को बड़ी दृढ़ता से पालते थे। सिर्फ दो-तीन व्यक्ति उनमें बोल सकते थे, जिन्हें हाट-बाजार में काम से जाना होता था और आश्रम में आने-जानेवालों से बात करनी पड़ती थी शेष सबको चुपचाप काम करना पढ़ता था। जुलू लोगों को यह आश्रम शिक्षा-दीक्षा देता था। जुलू लोगों के बीच वे काम करते और अपने जीवन का सुन्दर-से-सुन्दर साधन-फल उन्हें देते थे। मठवासी सभी आजीवन सेवक थे। सभी विद्वान संन्यासी थे। ज्ञान के साथ साथ उद्योग की भी उन्होंने साधना की थी। उनमें बढ़ई थे, कुम्हार थे, पल्लेदार थे और मोची थे। उन्होंने सब प्रकार के प्रयोग किये थे। उनका वह आश्रम सुन्दरता का मानो नमूना था। कितनी अच्छी सफ़ाई थी। धूल का तो कहीं नाम भी नहीं था। आश्रम का बाग़ भी रमणीक था। चारों ओर सारे वातावरण में एक मधुर शान्ति छा रही थी। आश्रम में जुलू युवक बिल्कुल अन-पड़ भरती होते थे, पर जब निकलते थे तो पक्के कारीगर बनकर| मेरा विचार इसी ढंग की शिक्षण संस्था स्थापित करने का है। चीज बनानी ही है तो बहुत अच्छी क्यों न बनाई जाय। पर आज हममें हमारा वह गौरव कहां रहा है? पहले इस प्रकार की कठिन साधना का तो हमारे देश में अनुशासन था। पर जहां अपने आश्रम-जीवन में हमने तनिक भी उन्नति नहीं की, वहां वे लोग हमसे बहुत आगे बढ़ गये हैं। उन्होंने नये-नये शोध किये हैं और प्रगति-पथ पर बहुत आगे निकल गये हैं। अगर हम वैसी कोई चीज बना सकें, तो मुझे सन्तोष हो। ऐसे अगर पाँच भी आदमी मिल जायं, जो अपने माता-पिता, पुत्र-कलत्र आदि सब भूल जाने को तैयार हों, और जो हरिजन-सेवा में ही अपना शेष जीवन खपा दें, तो मेरा काम बन जाय। ऐसे त्यागी और अनुरागी साधक जो संस्था बनायेंगे, वह एक सार की चीज होगी; अगर हमारा इतना ऊंचा लक्ष्य नहीं हो सकता, तो हमें अभी एकाध उद्योग-गृह, हरिजन-छात्रालय या कोई ऐसी ही संस्था बनानी चाहिए। करांची में सेठ शिवरतन मोहता की, उनके भाई की पुण्यार्थनिधि से, एक ऐसी हुनरशाला चल रही है। आगरे के सुप्रसिद्ध दयालबाग के दो शिक्षक वहां काम सिखाते हैं। वहां एक बढ़िया बोडिंग-हाउस भी है, जिसमें छात्रों को बड़ी अच्छी तरह रखते हैं। एक जूते बनाने का और एक सिलाई सिखाने का, यह दो विभाग फिलहाल उस हुनरशाला में हैं। यह कोई शिक्षण संस्था नहीं किन्तु एक उद्योगालय है। वहां के हरिजनों का यह विश्वास है, कि कोई-न-कोई दस्तकारी सीखकर ही वे हुनरशाला से निकलेंगे, ताकि उन्हें पेट के लिए दर-दर न घूमना पड़े। ऐसी औद्योगिक संस्थाएं हम चाहें तो और भी जहां-तहां खोल सकते हैं।

हरिजन पत्रो के बारे में————-

हम हरिजन-सेवकों ने खुद अपने प्रति न्याय नहीं किया है। बहुत से तो हममें ऐसे हैं, जिन्होंने अपना सारा समय हरिजन कार्य में नहीं दिया। इस कार्य को तो यों ही शौकिया कर रहे हैं। मैंने अक्सर उनसे पूछा कि क्या आप ‘हरिजन’ पढ़ते हैं ? तो उन्होंने इसका ‘नहीं’ में जवाब दिया। तीन हरिजन पत्र चल रहे है-अंग्रेजी हरिजन, गुजराती हरिजन बन्धु और हिन्दी हरिजन-सेवक। अंग्रेजी और गुजराती के पत्र तो स्वावलम्बी हो गये हैं, पर हिन्दी का अब भी नहीं हुआ।

इन पत्रों को जैसा चाहिए वैसा लोगों ने अपनाया नहीं, हालांकि इनका सम्पादन बड़े परिश्रम से हो रहा है। ग्राहक बनना बनाना तो दूर रहा, सूचनाएं या घटनाओं का विवरण तक तो हमारे कार्यकर्ता सम्पादकों के पास ठीकक-ठीक भेजते नहीं | आये दिन जो समस्याएं उपस्थित होती रहती हैं, उन पर तक वे विचार विनिमय नहीं करते। अगर हमारे हरिजन-सेवक सचमुच कार्यरत होते, तो इतना अधिक मैटर सम्पादकों को भेजते रहते, कि उसमें से संकलन करना उन्हें कठिन हो जाता। आज तो मैटर का भी अकाल पड़ा हुआ है। यह पत्र कार्यकर्ताओं के हैं, अतः इनमें उनके पथ-प्रदर्शन की सामग्री तथा उनके विचारविनिमय की बातें रहनी चाहिए। मैं इन पत्रों में निबन्ध इत्यादि नहीं देना चाहता हूं। मुझे दुःख होता है, जब हमारे कार्यकर्त्ता मुझसे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते हैं, जिनके उत्तर हरिजन पत्रों में निकल चुके हैं। अगर वह इन पत्रों को ध्यान से पढ़ते होते, तो कभी ऐसे सवाल न पूछते। पर बहुत से तो इन अखबारों को छूते भी नहीं। अगर आप लोग से हरिजन समाचारों का ब्यौरा ठीक तरह से न पढ़ेंगे, तो इतने बड़े आन्दोलन की प्रगति के साथ आप कैसे संगति रख सकेंगे? आपको यह जानना जरूरी है, कि दूसरे हरिजन-संघ क्या-क्या काम कर रहे हैं। हमारे पास जगह-जगह घूमने वाले ऐसे सम्वाद-संग्रही तो हैं नहीं, जो तमाम संस्थाओं के समाचार भेज दिया करें। और यह साधन खर्चीला भी है। हरिजन-पत्रों में खबरें रहती तो हैं, पर उनमें और भी यथार्थ खबरें और विविध बातें दी जा सकती हैं।

कृपा कर यह विचार मन में लेकर न जाइयेगा कि जो कुछ थोड़ा-सा काम हुआ है, उसकी मै कद्र नहीं कर सका। कुछ अच्छे काम हुए हैं सही, पर यहां उनका बखान करने की जरूरत नहीं। धर्म का फल तो स्वयं धर्म ही है। पर मैं ठहरा एक इन्सपेक्टर, इससे मै तो आपको आपकी त्रुटियाँ ही बताऊंगा। आपने जो अच्छे कार्य किये हैं, उनका बखान करके में आपको रिझाने की चेष्टा नहीं करूंगा।

साबरमती हरिजन-आश्रम———

साबरमती के हरिजन-आश्रम के बारे में अब एक शब्द | साबरमती का आश्रम एक बहुत बड़ी चीज है। उसका पूरा-पूरा उपयोग अभी नहीं हो रहा है। पर इसमें किसी का दोष नहीं। बेचारा परीक्षित लाल वहां की देखरेख करता है, पर इतने बड़े आश्रम का चलाना उसके सामर्थ्य के बाहर है। परीक्षित लाल को समस्त गुजरात का भी तो हरिजन-कार्य देखना पड़ता है। इसलिए इतना बड़ा काम एक आदमी के बूते का नहीं। इस संस्था के चलाने का भार तो खासतौर पर नियुक्त ट्रस्टी ही ले सकेंगे। अब आप लोग समझ सकते हैं, कि क्यों हम ट्रेपिस्ट कोटि के कार्यकर्त्ताओं की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं। साबरमती के हरिजन आश्रम को ऐसे ही त्यागी और चरित्रवान जन-सेवक पूर्णतया उपयोगी बना सकेंगे ।

श्रोत – राज्य अभिलेखागार पुस्तकालय लखनऊ