जो मन में हैं वहीं जुबां पे हैं…

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जो मन में हैं वहीं जुबां पे हैं...
जो मन में हैं वहीं जुबां पे हैं...
विनोद यादव
विनोद यादव

जो मन में हैं वहीं जुबां पे हैं मेरा मन तुम पढ़ नहीं सकतें ,विचार रख सकते हो।मन की शक्ति, मनुष्य को श्रेष्ठता के शिखर पर पहुंचा सकती है। मनुष्य का मन वायु और प्रकाश की गति से भी अधिक गतिमान रहता है। उसमें भांति-भांति के विचार आते हैं। मन के विचार ही हमें एक क्षण में श्रेष्ठता के शिखर पर पहुंचा देते हैं तो पल भर में हमें पतन की गहराइयों में भी धकेल देते हैं। जो मन में हैं वहीं जुबां पे हैं…

मन के हारें हार हैं मन, मन के जीते जीत वैसे तो आंखों में संजोए सपने साकार करने की जिजीविषा हमेंशा मन को कचोटती रहती हैं मगर खेती किसानी और मजदूर वर्ग के परिवार में जन्म लेकर आप आईएएस और पीसीएस जैसे सपनों को संजोते-संजोते कुछ प्रतियोगी छात्र हम जैसे टूट जाते हैं।मगर हौसला इतना है कि कभी हार नहीं मानतें न ही कभी नसीब के भरोसे रहें, न भगवान के। बस परिस्थितियों के दास जरूर हुए और परिस्थितियों से निकलने का भी भरसक प्रयास किया भी लेकिन कभी परिवार,मित्र ,और समाज का मान गिरने नहीं दिया मैं भलें पीसीएस नहीं बना लेकिन आज दर्जनों पीसीएस,आईएएस,आईपीएस का इंटरव्यू कर उनकी खबर लिखा हूं और लिखता रहूंगा मगर गांव से निकलकर जब इलाहाबाद 2011 में गया था तो एक लक्ष्य था एक बड़ा सपना हैं जो हमने बिना चश्मे के देखा हैं और दिन में देखा हैं उसे पूरा करना हैं।

खैर घर वालों ने कभी साल और अल्टीमेटम नहीं पूछें न कभी उन्होंने हौसले को तोडा़ हैं मगर आज कई रिश्तेदारों को इस बात को लेकर चिंतित रहतें हैं कि पडो़सी का बेटा,बेटी पुलिस में हो गया ,बिहार शिक्षक में हो गया ,बैंक में हो गया मगर तुम तो अभी तैयारी कर रहें हैं।शायद ये तीखे सवाल पूछने वालों ने कभी उस परीक्षा को दिया तकल न हो न ही पीसीएस का फुल फार्म तक जानते हो मगर आपसे उपेक्षाओं का खजाना ओ लगाए रहते हैं।इलाहाबाद में रहकर तैयारी करते समय बहुत कुछ झेलना पड़ता हैं बहुत कुछ सीखा भी जाता हैं।कोचिंग की फीस से लेकर कमरें के किराए से सब्जी तक सब कुछ झेलना पड़ता हैं।

क्या कहे साहब…! हम युवा अपेक्षाओं के दबाव में इस कदर दबे हुए हैं कि हम स्वेच्छा से मर भी नहीं सकते, हम अपने लिए जीते कहां हैं , स्कूल में शिक्षक के सामने अच्छा बनने के लिए पढ़ते थे नंबर लाने का दबाव होता था।घर वाले मार्कशीट दिखा करके रिश्तेदारों के सामने चौड़ा होकर कहे की देख लीजिए 80% प्लस लाया है, फिर थोड़ा बड़ा हुए तो पड़ोस के किसी लड़की को इंप्रेस करने के लिए पढ़ाई किया, कोचिंग ज्वाइन किया, अच्छा कपड़ा पहने किसी के कहने पर,अपने हेयर स्टाइल चेंज किया, हम अपने लिए जिए ही कब है ? घर की अपेक्षा होती है, घर वाले की अपेक्षाएं होती है, पड़ोसियों की अपेक्षाएं होती है, रिश्तेदारों की अपेक्षाओं के दबाव में हम दबे होते हैं फिर पूरा समाज हमसे अपेक्षा करता है कि हम उसके अनुसार जिए , हम अपने लिए जीते कब हैं ?

जो मन में हैं वहीं जुबां पे हैं…

यहां हमारा ना कोई रिश्तेदार , न पड़ोसी, वहीं रुम मेंट ही रिस्तेदार भी हैं आपका भाई भी और आपके हास्टल में रहने वाला दोस्त ही आपका सहीं माने में पडो़सी हैं। पुराने दोस्त भी दूर हो गए, नयें बनने लगें किसी को फोन भी करता हूं तो अपनी मदद के लिए नहीं अपने करीबी मित्रों के लिए कहता हूँ।खैर इस चक्रव्यूह में हमारे साथ तमाम बडे़ भाई अर्जुन की भूमिका में साथ रहतें हैं और साथ देते हैं।बड़ा ही सुहाना लग रहा था जब पहली बार ध्येय आईएएस में पीसीएस की कोचिंग के लिए कदम रखा था।आज वही कोचिंग, वही जूस कॉर्नर, वही चाय दुकान,वहीं गुप्ता जी फार्चूनर की दुकान,वहीं ईश्वर शरण के गेट के पास इकट्ठा होना,और शाम को यूनिवर्सिटी रोड़ पर चलते चलते संबंधित विषयों पर चर्चा करना सब कुछ याद हैं।

हमने जीवन के उस बुरे समय से गुजरा जो परिजनों तक की खबर न हुई मगर बडे़ भाईयों सीनियरों ने हमेशा संभाला यहीं यथार्थ सत्य है और आज भी इस सत्यता को महसूस करता हूं। सारे एनसीईआरटी किताब, एम.लक्ष्मीकांत, नोट्स बुक. कोचिंग इंस्टिट्यूट के टेस्ट इन सभी बातों को मैं आज भी भूला नहीं हूं मगर मेरे हालत खीच लाए हैं इस तरफ।हर एक साल की गिनती और ट्रेन अपनी रफ्तार में बड़ी जा रही थी मन में कई सवाल, द्वंद अंदर से कचोट रहे थें।माता जी तो थी नहीं किसे सुनाते पीडा़ मन की बहन को बता नहीं सकते ओ भी रोती मां को सोच कर पिता जी पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी और मां के न होने का दुख भी था ऐसे में सब कुछ खुद से समझना था और खुद को समझना था ,अवसर तो कई आए सफलता के कभी सिर्फ सरकारी नौकरी के नाम सें संतुष्ट रहें ऐसा मन में विचार नहीं किया,अर्जुन की तरफ निशाना चिडिय़ा की आंख पर ही था और आज भी हैं। खैर असफलताओं और सफलताओं के आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के बोझ तले मन दबा जा रहा हैं।

मन में एक सवाल उठता हैं जिंदगी तो वह भी जीते हैं जिनके जिंदगी में कोई बत्ती नहीं होती मोमबत्ती के सहारे आईएएस बन जाते हैं।इन सभी सवालों और द्वंद में पता ही नहीं चला कि कब इलाहाबाद से सुल्तानपुर गया और आज जो कुछ भी लिख पढ़ पा रहा हूं ओ इलाहाबाद विश्वविद्यालय की देन हैं और वहीं की सीख हैं ये और बात हैं हम इतनी बड़ी कहानी खुद की लिख दिए मगर ओ क्या अंगुली उठाएगें जो कहानी लिखने लायक कुछ किए हीं नहीं।आज सैकड़ों लेख तमाम समाचार पत्रों पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहें हैं उसकी भी चेतना और लेखन कौशलता गंगा जमुनी तहजीब से ही सीखा हैं।खैर साल के इस आखिर बचें कुछ दिनों में इलाहाबाद के दर्द पुनः हरे हो गयें। जो मन में हैं वहीं जुबां पे हैं…