जगदीश गांधी का यादगार बालमेला !

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  • श्याम कुमार
    लखनऊ में सिटी मांटेसरी स्कूल(सीएमएस) के संस्थापक जगदीश गांधी दषकों पहले लखनऊ में अखिल भारतीय बाल मेला आयोजित किया करते थे। बालमेला विषाल पैमाने पर सम्पन्न होता था तथा उसकी बहुत ख्याति थी। उसका समापन चिडि़याघर में होता था, जहां पूरे प्रदेष के बच्चे एवं युवा एकसाथ एकत्र होते थे। उस बाल मेले का राश्ट्रीय भावात्मक एकता की दृश्टि से बड़ा महत्व था। पता नहीं क्यों, जगदीष गांधी ने राश्ट्रीय महत्व के उस बाल मेले का आयोजन बंद कर दिया! कुछ लोगों ने बताया कि जगदीश गांधी जवाहरलाल नेहरू से प्रभावित रहे हैं और उन्हीं का अनुसरण करते हुए राश्ट्रवाद के बजाय अंतरराश्ट्रीयतावाद के चक्कर में उलझ गए। जिस प्रकार नेहरू भूल गए कि देष को अंतरराश्ट्रीयतावाद के बजाय राश्ट्रीयता की भावना को पुश्ट करने की अधिक आवष्यकता है, उसी प्रकार जगदीष गांधी भी अंतरराश्ट्रीयतावाद के मोह में फंस गए। नेहरू के अंतरराश्ट्रीयतावाद ने हमारे देष को भीशण क्षति पहुंचाई और स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में राश्ट्रवाद की जो प्रबल धारा देष में प्रवाहित हो रही थी, वह समाप्त हो गई तथा देष को तोड़ने वाले एवं चरित्र को नश्ट कर देने वाले विचारों का बाहुल्य हो गया।
    मैं उस समय इलाहाबाद(प्रयागराज) में रहता था और दैनिक ‘भारत’ में स्थानीय समाचार सम्पादक एवं मुख्य संवाददाता था। मैं पत्रकारिता को जनहितकारी मिषन मानता था तथा उसी भावना के अनुरूप मैं नए लोगों को रचनात्मक दिषा में प्रोत्साहित किया करता था। परिणाम यह हुआ कि इलाहाबाद में मुझसे प्रेरणा व प्रोत्साहन पाकर मेरे असंख्य षिश्यों की श्रृंखला तैयार हो गई। कृश्णमोहन सक्सेना नामक एक लड़का डाक विभाग में डाकिया था और मेरे यहां डाक देने आता था। उसने मेरी काफी प्रषंसा सुन रखी थी तथा मुझसे मिलने का बहुत इच्छुक था। एक दिन समय निकालकर मैंने उससे बात की तो हैरत में पड़ गया कि वह कठोर परिश्रमी तो है ही, उसका साहित्यिक एवं अन्य रचनात्मक कार्याें में घोर लगाव है। मैंने उसे हरसंभव प्रोत्साहन दिया और धीरे-धीरे डाकिया का काम करते हुए भी उसने आगे पढ़ाई की तथा एमए व पीएचडी तक कर डाली। उसे लिखने का षौक था, जिसमें सुधार कर मैं उसे प्रोत्साहित करने लगा तथा वह बहुत अच्छा लेखक बन गया। बाद में नश्ट हो चुकी प्राचीन नौटंकी कला के उद्धार एवं उत्थान का उसने बीड़ा उठाया और अपने अभियान में सफल हुआ। नौटंकी कला को पुनर्जीवित करने में उसने महान योगदान किया।
    कृश्णमोहन सक्सेना ने मुझे घेरा कि लखनऊ में जगदीष गांधी का राश्ट्रीय बाल मेला आयोजित हो रहा है, जिसमें मैं ‘रंगभारती’ की टीम लेकर चलूं। मेरी इतनी व्यस्तता रहती थी कि इस प्रकार बाहर जाना बड़ा कठिन होता था। किन्तु कृश्ण मोहन सक्सेना ने मुझे घेरघारकर तैयार कर लिया। टीम में पंकज गुप्त, कृश्ण मोहन सक्सेना का भाई तथा चंचल प्रकृति का लड़का सूरज नंदा आदि भी षामिल थे। लखनऊ में हमें चारबाग में कान्यकुब्ज कॉलेज(केकेसी) के छात्रावास में एक कमरे में ठहराया गया। वहां की व्यवस्था बहुत खराब व गंदी थी। बाल मेले की सम्पूर्ण सामग्री सिर्फ अंग्रेजी में छपी थी। छात्रावास के जिस कमरे में हम ठहरे थे, वहां कमरों में दूसरी जगहों से आए लोग भी ठहराए गए थे।
    अगले दिन हमारी टीम लखनऊ-भ्रमण करने निकली। मेरा स्वभाव रहा है कि मैं बच्चों के बीच बच्चा, युवाओं के बीच युवा तथा वृद्धजनों के बीच उनके-जैसा बन जाता हूं। उस समय लखनऊ एवं कानपुर की बस परिवहन सेवा देष में सर्वश्रेश्ठ मानी जाती थी। हम लोग घूमने निकले। जब हम बसों में घूमने लगे तो सूरज नंदा पूरी टीम से पूरे रास्ते ‘रंगभारती’ की जय के नारे लगवाने लगा। इस प्रकार षहर में लोगों को एहसास दिला दिया गया कि इलाहाबाद से ‘रंगभारती’ की टीम आई हुई है। हम लोग सभी इमामबाड़ों, भूलभुलैया आदि स्थानों पर तो गए ही, अमृतलाल नागर एवं यषपाल-जैसे महान साहित्यकारों के यहां भी गए। उनके यहां काफी समय व्यतीत हुआ। मैंने उनके बड़े अच्छे साक्षात्कार लिए। अमृतलाल नागर ने अपनी पुरानी हवेली में हम सबको अनेक स्वादिश्ट व्यंजन खिलाए। मुझे याद है, उस समय उन्होंने कहा था कि नई पीढ़ी में केपी सक्सेना नामक एक लड़का अच्छे व्यंग्यकार के रूप में उभर रहा है।
    यषपाल जी का आवास महानगर में स्थित था। उन्होंने भी हमारा बहुत स्वागत किया तथा प्रष्नों के उत्तर दिए। अपने क्रांतिकारी जीवन के अनुभव एवं विभाजन की त्रासदी के बड़े मार्मिक विवरण सुनाए। जब मैं उनकी फोटो खींचने लगा तो उन्होंने कहा कि ऐसी साधारण वेषभूशा में भला क्या अच्छा चित्र आएगा तो सूरज नंदा बोल पड़ा था कि चांद बदली में और सुंदर लगता है। तुरंत यषपाल जी ने हंसकर उत्तर दिया-‘‘चांद हो, तब न!’’
    रात में हम लोग छात्रावास के कमरे में सोने गए। जमीन पर ही बिस्तर लगाए गए थे। तभी मैंने कहा कि हमारी यात्रा सीधी-सपाट जा रही है, कुछ रोचकता पैदा की जानी चाहिए। और कुछ नहीं सूझा तो मैंने कहा कि कमरे का दरवाजा भीतर से जोर-जोर से पीटो, देखें क्या प्रतिक्रिया होती है! हम लोगों ने ऐसा चार-पांच बार किया, किन्तु बाहर जब कोई प्रतिक्रिया नहीं सुनाई दी तो हारकर सोने के लिए लेट गए। तभी चमत्कार हुआ। पहले छात्रावास के एक कमरे का दरवाजा खुला और फिर अन्य कमरों से लोग बाहर निकल आए तथा जोर-जोर से ‘भूत-भूत’ चिल्लाने लगे। उधर बाहर हंगामा मचा, इधर हमारी टीम के लड़कों का हंसी से बुरा हाल होने लगा। उसी समय बाहर सुनाई दिया कि बाल मेले के कुछ आयोजक आ गए हैं तथा हर कमरे को खुलवाकर पूछताछ कर रहे हैं। हमारा कमरा खुलवाने के लिए जब उन्होंने दस्तक दी तो हम सबने सोने का बहाना किया तथा सूरज नंदा दरवाजा खोलने के लिए गया। उसने नींद में होने का अभिनय करते हुए उन लोगों को बताया कि हम लोग तो थकान के कारण गहरी नींद में सो रहे हैं। सूरज नंदा उधर बातें कर रहा था, इधर कृश्ण मोहन सक्सेना के भाई का हंसी से बुरा हाल था। कहीं भेद न खुल जाय, इसलिए कई लड़के उसका मुंह जोर से दबाए हुए थे। लेकिन फिर भी उसका षरीर जोर से उछला जा रहा था, जिसे बड़ी मुष्किल से दबाया गया।
    अगले दिन चिडि़याघर में मेले का समापन था। पूरे परिसर में अलग-अलग क्षेत्रों से आए झुंड के झुंड लोग बैठे हुए थे। तभी बारादरी में लड्डुओं का वितरण होने लगा। सूरज नंदा व पंकज गुप्त बारादरी में चढ़ गए और लड्डू वितरित करने वालों में षामिल हो गए। उन्होंने ‘रंगभारती’ की टीम के लोगों को बार-बार लड्डू देने षुरू कर दिए। इस प्रकार हमारे पास लड्डुओं की भरमार हो गई, जिन्हें वहां आए सभी लोगों में ‘रंगभारती’ की ओर से वितरित कर दिया गया।
    चिडि़याघर के मैदान में जगह-जगह झुंड में खड़े लोग छात्रावास में घटी रात वाली घटना का जिक्र कर रहे थे। एक जगह काफी लोग जमा थे। वहां खड़े एक अध्यापक से मैंने कहा-‘भाईसाहब बुरा न मानिए तो एक निवेदन करूं?’ उन्होंने बुरा न मानने का आष्वासन दिया। लेकिन मैंने अपने वाक्य को इतनी बार दुहराया कि वहां खड़े सभी लोगों का ध्यान उन अध्यापक पर टिक गया। तब मैंने उनसे कहा-‘गलती से आपका पोस्टऑफिस खुला रह गया है।’ वह पैंट के बटन बंद करना भूल गए थे। फिर तो सब हंसते-हंसते लोटपोट हो गए तथा वे अध्यापक महोदय धीरे से वहां से खिसक गए। बाल मेले की हमारी वह यात्रा अविस्मरणीय यात्रा बन गई!