तब भारत में सैकड़ों स्वतंत्र राज्य होते…!

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श्याम कुमार

एक बार एक बड़े कांग्रेसी नेता ने सरदार पटेल की खिल्ली उड़ाते हुए कहा था कि उन्हें कुछ आता-जाता नहीं था, बस खाली बैठे रहते थे और चिट्ठियां लिखते रहते थे। मैं उस कांग्रेसी नेता की टिप्पणी पर हतप्रभ रह गया था, क्योंकि सरदार पटेल की महानता और देश के लिए उनके अतुलनीय योगदान सर्वविदित थे।

कांग्रेस पार्टी का दुर्भाग्य यह है कि उसका जन्म विदेशी कोख से तथा अंग्रेजी हुकूमत को बनाए रखने एवं उसकी मदद करते रहने के उद्देश्य से हुआ था। बाद में लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि का सान्निध्य मिलने से कांग्रेस का भारतीयकरण हुआ।किन्तु जब देश के अधिकतर वास्तविक महान नेताओं का अवसान हो गया और कांग्रेस पर जवाहरलाल नेहरू का वर्चस्व स्थापित हुआ तो पार्टी पर पुनः विदेशी रंग चढ़ गया तथा धीरे-धीरे पार्टी नेहरू-वंशजों का पारिवारिक गिरोह बनकर रह गई।
कांग्रेस पार्टी के जन्म के समय उस पार्टी का निर्माता एवं कर्णधार अंग्रेज ओएच ह्यूम था तो अब पार्टी के अंतिम समय में पुनः उसका कर्णधार एक विदेशी ही है।

अंग्रेजों ने जब अपने आधिपत्य से भारत को आजाद किया था तो उन्होंने देश में विद्यमान लगभग पौने छह सौ रियासतों को यह छूट दे दी थी कि वे चाहे भारत में शामिल हों, चाहे पाकिस्तान में अथवा चाहें तो अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखें। तब यह केवल उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल के विराट व्यक्तित्व का चमत्कार था कि उन्होंने उन पौने छह सौ रियासतों का भारत में विलय करा लिया। उनके इस कृत्य से सारा विश्व आश्चर्यचकित रह गया था। यदि सरदार पटेल न होते तो भारत भूमि पर तीन-चार सौ स्वतंत्र राज्यों का अस्तित्व निश्चित रूप से हो गया होता।

सरदार पटेल ने उन सब रियासतों का जिस आसानी से भारत संघ में विलय कर लिया, वह विश्व इतिहास में एक अद्भुत एवं अतुलनीय उदाहरण था।हैदराबाद व जूनागढ़ के मुसलिम शासक अपनी रियासतों का पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे तो सरदार पटेल ने शक्ति का इस्तेमाल कर वैसा नहीं होने दिया और उन रियासतों का भी भारत में विलय करा लिया। बिस्मार्क का गुणगान होता है, जिसने जर्मनी का एकीकरण किया था। लेकिन सरदार पटेल ने जिस विशाल भारतभूमि में लगभग पौने छह सौ रियासतों के एकीकरण का असंभव कार्य किया, उसके आगे बिस्मार्क का कृत्य कुछ भी नहीं था।


केवल जम्मू-कश्मीर का मामला उलझकर रह गया, जिसका एकमात्र कारण प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे। रियासतों के भारत में विलय की जिम्मेदारी सरदार पटेल के कंधों पर थी। किन्तु नेहरू ने जम्मू-कश्मीर रियासत के मामले में टांग अड़ाकर अपनी विनाशकारी मूर्खता से उस रियासत का मामला उलझा दिया।


जब देश में लोकनायक जयप्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति का आंदोलन चल रहा था, उस समय जयप्रकाश नारायण का एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि उन्हें अभी जानकारी हुई है कि जब नेहरू तिब्बत चीन के हवाले कर रहे थे, उस समय सरदार पटेल ने उस कदम का कड़ा विरोध किया था और कहा था कि तिब्बत पर अधिकार हो जाने से चीन भारत के सिर पर आकर बैठ जाएगा, इसलिए तिब्बत का मध्यवर्ती स्वतंत्र देश (बफर स्टेट) बनाए रखा जाना हमारे देश के हित में है।


नेहरू चीन को अपना बहुत सगा समझ रहे थे, किन्तु सरदार पटेल इतने काबिल व दूरदर्शी थे कि उन्होंने चीन की कुटिलता का उसी समय अंदाज लगा लिया था। मगर बुद्धिहीनता से ग्रस्त नेहरू नहीं माने और उन्होंने तिब्बत में भारत के जो अधिकार थे, उन्हें त्यागकर तिब्बत चीन के हवाले कर दिया।मुझे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के उस लेख को पढ़कर आश्चर्य हुआ था, क्योंकि तिब्बत-प्रकरण पर पटेल ने नेहरू का जो विरोध किया था, उसकी मुझे बहुत पहले से पूर्णरूपेण जानकारी थी। मुझे ताज्जुब हुआ कि जयप्रकाश नारायण-जैसे इतने बड़े नेता को उस महत्वपूर्ण प्रकरण की जानकारी अब हुई है। नेहरू ने अपनी शांति-नीति के अंधानुकरण के कारण तिब्बत चीन को सौंप दिया था।


इसी प्रकार भारत को जब संयुक्तराष्ट्र में सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाया जा रहा था तो नेहरू ने मूर्खतापूर्ण उदारता दिखाकर भारत के बजाय चीन को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनवा दिया था।चीन ने नेहरू की मूर्खताओं का फायदा उठाकर वर्ष १९६२ में भारत पर हमला किया और भारत की हजारों वर्गमील जमीन पर कब्जा कर लिया। वह जमीन चीन से वापस ले पाना अब भारत के लिए लगभग असंभव है।


उस समय हमारी सेना आवश्यक सैन्य उपकरणों से विहीन थी तथा सैनिकों को साधारण जूतों में बर्फीली चोटियों पर चीन से युद्ध लड़ना पड़ा था। उसमें तमाम सैनिकों के पैर गल गए थे।यह स्पष्ट रूप से नेहरू का देशद्रोहपूर्ण कृत्य था। नेहरू वंश के चमचे नेहरू की मूर्खताओं को सही ठहराने के लिए तरह-तरह की चेष्टाएं किया करते हैं तथा मिथ्या तर्क देते हैं। लेकिन पूर्ण सच्चाई वही है, जिसका ऊपर वर्णन किया गया है। देशभक्ति व देशद्रोह की सीधी-सी परिभाषा है कि जो बात देश के हित में हो, वह देशभक्ति है तथा जो बात देशहित के विरुद्ध हो, वह देशद्रोह है।


जवाहरलाल नेहरू ने अहिंसा के सिद्धांत को अपनाने में मूर्खता की एक और पराकाष्ठा की थी। उनकी इच्छा थी कि चूंकि भारत शांति का पुजारी है, इसलिए उसे सेना रखने या उस पर धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। तब तक सरदार पटेल का महाप्रयाण हो चुका था। भारत में उस समय सैन्य सामग्रियों का छोटे पैमाने पर उत्पादन होता था। नेहरू ने कम्युनिस्टों के पक्के साथी वीके कृष्ण मेनन को देश का रक्षामंत्री बना दिया था, जिनके साथ मिलकर नेहरू ने देश के रक्षातंत्र को तहस-नहस कर डाला। अपनी मूर्खतापूर्ण अहिंसा-नीति का अनुसरण करते हुए नेहरू ने सैन्य सामग्रियों का उत्पादन बंद कराकर उन उत्पादन-इकाइयों में प्रसाधन-सामग्रियों(काॅस्मेटिक्स) आदि का उत्पादन शुरू करा दिया था।


नेहरू की नीति के विपरीत सरदार पटेल देश को सैन्य दृष्टि से बहुत मजबूत रखने के पक्ष में थे। वह कम बोलते थे, लेकिन जब बोलते थे तो प्रायः अखबारों में उसे ‘सरदार पटेल की गर्जना’ कहा जाता था।


सरदार पटेल के बारे में आम कथन था कि उन्हें मातृभूमि की पूर्ण सुरक्षा से अधिक प्रिय कुछ भी नहीं था। जब पाकिस्तान पूर्वी बंगाल में अल्पसंख्यकों के प्रति अपनी घोर द्वेषपूर्ण नीति का अनुसरण कर रहा था तथा कश्मीर की घाटी में हमला कर दिया था तो सरदार पटेल ने चार नवम्बर, १९४८ को नागपुर में अपने ऐतिहासिक भाषण में गर्जना की थी- ‘‘हम पर देश के संरक्षण का दायित्व है और यदि पाकिस्तान पूर्वी बंगाल में हिंदुओं को अपने घरों से निकालने की हिमाकत करता रहा तो लाखों उजड़े हुए लोगों को पुनः बसाने के लिए पाकिस्तान को अपने एक भाग से हाथ धोकर उस कुकृत्य की क्षतिपूर्ति करनी पड़ेगी।’’ सरदार पटेल का उक्त कथन बाद में बंगलादेश के निर्माण के रूप में फलीभूत हुआ।


विदित हुआ है कि वर्ष १९६५ में जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान से युद्ध जीता था, तभी शास्त्री जी ने पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान से अलग करने की इच्छा बना ली थी। यदि शास्त्री जी की हत्या न हो गई होती तो शायद बंगलादेश का निर्माण उनके ही जीवनकाल में हो गया होता।


यह भी सत्य है कि यदि सरदार पटेल जीवित होते तो वह नेहरू के विरोध के बावजूद कश्मीर का पाकिस्तान के कब्जेवाला हिस्सा वापस ले चुके होते तथा उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान से अलग कर भारत में फिर मिला लिया होता। तब मजहब के नाम पर जो लोग उपद्रव या देशद्रोह करते उन्हें या तो पाकिस्तान भेज दिया जाता अथवा उनकी नागरिकता समाप्त कर दी जाती।