जानें योग क्या है….?

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योगगुरु के0 डी0 मिश्रा

[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”इस समाचार को सुने”] योग हमारे जीवन से जुड़े मानसिक, भौतिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक आज सभी पहलुओं पर काम करता है। योग का अर्थ है जुड़ना, मन को वश में करना और वृत्तियों से मुक्त होना योग है।सदियों पहले महर्षि पतंजलि ने मुक्ति के आठ द्वार बताए, जिन्हें हम ‘अष्टांग योग’ कहते हैं। मौजूदा दौर में हम अष्टांग योग के कुछ अंगों जैसे आसन, प्राणायाम और ध्यान को ही जान पाए हैं।योग सिर्फ योग ही नहीं है योग दर्शन या धर्म नहीं गणित से कुछ ज्यादा है। 2 में 2 जोड़ों तो 4 ही आएंगे चाहे विश्वास करो या ना करो सिर्फ करके देख लो। आग में हाथ डालने से हाथ जलेंगे ही यह विश्वास का मामला नहीं है। योग धर्म आस्था और अंधविश्वास से परे है, योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण है। पहला है जोड़ और दूसरा है समाधि जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते समाधि तक पहुंचना कठिन होगा। इस संसार में दो मार्ग हैं सांसारिक रहकर श्रेष्ठ जीवन जीना और दूसरा सन्यासी बन कर मोक्ष की ओर गमन करना, योग इन दोनों ही मार्ग को सिखाता है।

योग शब्द वेदों, उपनिषदों, गीता एवं पुराणों आदि में अति पुरातन काल से व्यवहृत होता आया है। भारतीय दर्शन में योग एक अति महत्त्वपूर्ण शब्द है। आत्मदर्शन एवं समाधि से लेकर कर्मक्षेत्र तक योग का व्यापक व्यवहार हमारे शास्त्रों में हुआ है। योगदर्शन के उपदेष्टा महर्षि पतञ्जलि ‘योग’ शब्द का अर्थ चित्तवृत्ति का निरोध करते हैं। प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा एवं स्मृति ये पञ्चविध वृत्तियाँ जब अभ्यास एवं वैराग्यादि साधनों के द्वारा निरुद्ध हो जाती हैं और (आत्मा) अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है, तब योग होता है।महर्षि व्यास योग का अर्थ समाधि करते हैं। व्याकरणशास्त्र में ‘युज्’ धातु से भाव में घञ् प्रत्यय करने पर योग शब्द व्युत्पन्न होता है। महर्षि पाणिनि के धातुपाठ के दिवादिगण में (युज् समाधौ), रुधादिगण में (युजिर् योगे) तथा चुरादिगण में (युज् संयमने) अर्थ में ‘युज्’ धातु आती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि संयमपूर्वक साधना करते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ योग करके (जोड़कर) समाधि का आनन्द लेना योग है।आत्मा जब परमात्मा की उपासना करता है तो भगवान् के दिव्य ज्ञान, दिव्य प्रेरणा, दिव्य सामर्थ्य, दिव्य सुख-शान्ति एवं दिव्य आनन्द से युक्त हो जाता है। भगवान् की दिव्यता से जुड़ना यही योग है।

उपर्युक्त ऋषियों की मान्यताओं के अनुसार योग का तात्पर्य स्वचेतना और पराचेतना के मुख्य केन्द्र परमचैतन्य प्रभु के साथ संयुक्त हो जाना है। सम्यक् बोध से रागोपहति होने पर जब व्यक्ति वैराग्य के भाव से अभिभूत होता है, तब वह समस्त क्षणिक भावों, वृत्तियों से ऊपर उठकर आत्मसत्ता के सम्पर्क में आता है। चित्त की पाँच अवस्थाएँ हैं– क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध। इनमें से प्रथम तीन अवस्थाओं में योग एवं समाधि नहीं होती। एकाग्र और निरुद्ध अवस्थाएँ में अविद्यादि पंच क्लेशों एवं कर्म के बन्धन के शिथिल होने पर क्रमश सप्रज्ञात समाधि (वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत, अस्मितानुगत) और असप्रज्ञात समाधि (भवप्रत्ययगत एवं उपायप्रत्ययगत) की प्राप्ति होती है।

भारतीय वाङ्मय में गीता का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत के आधुनिक सन्तों ने तो गीता के योग का प्रचार विश्वभर में किया है। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण को विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त करते हैं- अनुकूलता-प्रतिकूलता, सिद्धि-असिद्धि, सफलता-विफलता, जय-पराजय, इन समस्त भावों में आत्मस्थ रहते हुए सम रहने को योग कहते हैं। असंग भाव से द्रष्टा बनकर, अन्तर की दिव्य प्रेरणा से प्रेरित होकर कुशलतापूर्वक कर्म करना ही योग है।

योग एक कला है जो हमारे शरीर, मन और आत्मा को एक साथ जोड़ता है और हमें मजबूत और शांतिपूर्ण बनाता है। योग आवश्यक है क्योंकि यह हमें फिट रखता है, तनाव को कम करने में मदद करता है और समग्र स्वास्थ्य को बनाए रखता है और एक स्वस्थ मन ही अच्छी तरह से ध्यान केंद्रित करने में सहायता कर सकता है।योग एक प्रकार से सही तरीके से जीवन जीने का विज्ञान है और इसीलिए इसे दैनिक जीवन में शामिल किया जाना चाहिए। योग हमारे जीवन से जुड़े मानसिक, भौतिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक आज सभी पहलुओं पर काम करता है। योग का अर्थ एकता को बांधना है। आध्यात्मिक स्तर पर इससे जुड़ने का अर्थ है सार्वभौमिक चेतना के साथ व्यक्तिगत चेतना का एक होना है।व्यावहारिक जीवन में योग व्यावहारिक स्तर पर योग शरीर, मन और भावनाओं को संतुलित करने और तालमेल बनाने का एक साधन है। योग तो जीवन जीने का एक तरीका भी है। [/Responsivevoice]